झारखंड फिर से सुलग रहा है, जमीन के अंदर कोयले में लगी आग की तरह, जो बीच-बीच में धधक-धधक कर बाहर निकल आती है। यह आग पिछले तीन सौ सालों से लगी हुई है, जो कभी बुझने का नाम ही नहीं लेती। इसे आप युद्ध भी कह सकते हैं। पूर्वजों की विरासत - जल, जंगल और जमीन बचाने का युद्ध। आदिवासियों ने यह युद्ध पहले गोरे अंग्रेजों के खिलाफ लड़ा और अब अपने काले अंग्रेजों से लड़ रहे हैं। आदिवासी और उद्योगपति व व्यापारियों के गोद में बैठी सरकार के बीच। झारखंड सरकार ने आदिवासी जमीन का सुरक्षा कवच कहलाने वाले छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 एवं संताल परगना काश्तकारी अधिनियम 1949 का तानाशाही तरीके से संशोधन किया है, जिसका आदिवासी लोग जबर्दास्त विरोध कर रहे हैं। आदिवासी अपनी जमीन बचाने के लिए पारंपरिक हथियार उठ रहे हैं और सरकार उनकी जमीन लूटने के लिए बंदूक, कानून, विकास की पोथी, सम्प्रदायिक विभाजन और धर्मांतरण का सहारा ले रही है। आदिवासियों के द्वारा जमीन बचाने के लिए रैली, मार्च और बंद का ऐलान होते ही झारखंड की सड़कें भारत-पाकिस्तान सीमा की तरह पुलिस छवनी मंे तब्दील हो जाती हैं। अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोटकर सरकार पूरे राज्य में धारा-144 लागू कर देती है। राज्य के मुखिया आदिवासियों को विकास का पाठ पढ़ाते फिरते हैं। और जहां विकास की पोथी काम नहीं आती हैं, वहां वे आदिवासियों को सरना और ईसाई के नाम पर बांटकर आपस में लड़ाने से भी परहेज नहीं करते। और तो और आवाज उठाने वाले आदिवासियों को मिशनरी प्रायोजित बताकर सरकार धर्मांतरण का आरोप लगाकर मिशनरी संस्थानों को निशाना बनाती है। इतना कुछ करने के बावजूद आदिवासी लोग सरकार के तर्क को मानने के लिए तैयार नहीं है इसलिए उनके खिलाफ मोर्चा खोलकर रखा है। लेकिन रघुवर दास इस युद्ध को आदिवासी और राज्य के विकास के लिए अनिवार्य मानते हैं। हैरत की बात यह है कि झारखंड विधानसभा के बाहर और भीतर भारी विरोध के बावजूद वे नहीं माने और 23 नवंबर 2016 को संशोधनों पर बहस के बगैर ही तीन मिनटों में संशोधन विधेयकों को पास कर दिया गया। सरकार ने आरोप लगाया कि विपक्षी पार्टियां सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रही हैं, जबकि उन्होंने कोई संशोधन पेश नहीं किया। अब इस विधेयक को राष्ट््रपति के पास हस्ताक्षर के लिए भेजा गया है। यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि लोकतंत्र का चैथा स्तंभ भी उनके ही साथ है हमेशा की तरह। और रहे भी क्यों नहीं, विज्ञापन के रूप में गांधी छाप कागजों की बाढ़ तो सत्ता से ही आती है। आदिवासी उन्हें दे भी क्या सकते हैं प्रतिदिन पांच रूपये का एक अखबार खरीदने के अलावा? लोकतंत्र का चैथा खंभा लोगों के बीच उसी को परोस रहा है जो राज्य के मुखिया कह रहे हैं। कहीं कोई विश्लेषण दिखाई नहीं पड़ता है। इन कानूनों का उल्लंघन कर जमीन खरीदने वाले आदिवासी नेता और अफसरों के नाम और जमीन लूट की कहानियां अखबारों की सुर्खियां बनती है। लेकिन रांची, जमशेदपुर, बोकारों जैसे शहरों को गैर-कानूनी तरीके से कब्जा करने वाले गैर-आदिवासियों की सूची और कहानी मीडिया से गायब है। ऐसा प्रतीत होता है कि चैथा स्तंभ एकपक्षीय हो गया है। क्या लोकतंत्र और आदिवासियों के बुरे दिन आ गये हैं? झारखंड सरकार ने छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 की धारा 21, 49 एवं 71 तथा संताल परगना काश्तकारी अधिनियम 1949 की धारा 13 का संशोधन किया है। अब रघुवर दास डंके की चोट पर लगातार ऐलान कर रहे हैं कि जरूरत पड़ी तो इन कानूनों का और भी संशोधन करेंगे। क्या रघुवर दास लोकतंत्र पर विश्वास नहीं करते हैं? वे बार-बार कह रहे हैं कि इन भूमि कानूनों में बदलाव से आदिवासी समुदाय और झारखंड का सम्पूर्ण विकास होगा, वहीं आदिवासी लोग उनके विचारों को नमक के भाव से भी लेने को तैयार नहीं हैं। हालांकि राज्य में सरना समिति चलाने वाले आदिवासियों का एक छोटा सा गुट उनका समर्थन कर रहा है, लेकिन इसके लिए उनके पास अपना कोई तर्क नहीं है। इसलिए हमें विश्लेषण करना चाहिए कि संशोधन कितना तर्कसंगत है? इसका मूल मकसद क्या है? और सरकार की असली मंशा क्या है? क्या आदिवासियों का विरोध सिर्फ भावनात्मक है? क्या इन संशोधनों के लागू होने से आदिवासियों की जमीन उनके हाथों से निकल जायेगी?

  1. मूल भावना और मालिकाना हक इसमें सबसे पहले कानूनों की मूल भावना और मालिकाना हक का सवाल है। रघुवर दास ने इस बात को बार-बार दोहराते हुए कहा है कि सीएनटी एक्ट एवं एसपीटी एक्ट के मूल भावनाओं के साथ छेड़छाड़ नहीं होगा तथा संशोधन में इस बात का ख्याल रखा गया है कि जमीन का व्यवसायिक उपयोग होने के बाद भी उसपर आदिवासियों का मालिकाना हक बना रहेगा। लेकिन कानूनी दृष्टिकोण से यह तर्क बिल्कुल ही बेबुनियाद है, क्योंकि कृषि भूमि का उपयोग व्यवसायिक कार्यों के लिए होने के साथ ही जमीन की प्रकृति बदल जायेगी और वह सीएनटी/एसपीटी कानूनों के दायरे से बाहर हो जायेगा। उक्त भूमि का लागान भी कृषि न होकर व्यवसायिक हो जायेगा, जो सरकार के द्वारा तय की जायेगी। इसी तरह यदि किसी गैर-आदिवासी के द्वारा उक्त जमीन का व्यावसायिक उपयोग करते समय आदिवासी रैयत के साथ किसी तरह का विवाद होने की स्थिति में आदिवासी रैयत उक्त जमीन को वापस भी नहीं ले सकेगा। कमल खेस बनाम स्टेट आॅफ झारखंड एवं अन्य, जून 2011, सीडब्ल्यूजेसी सं. 43 आॅफ 1999 में झारखंड उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि सीएनटी एक्ट की धारा 71ए का उपयोग सिर्फ कृषि भूमि से बेदखल हुए रैयतों को दोबारा दखल दिहानी के लिए किया जा सकता है गैर कृषि भूमि के लिए नहीं। इसी तरह अश्विनी कुमार राॅय बनाम स्टेट आॅफ बिहार, 1987 बीएलटी रिट 332ः 1988 बीएलजेआर 180 के मामले में पटना उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि जमीन की प्रकृति छप्परबंदी है इसलिए उक्त जमीन पर सीएनटी एक्ट की धारा 71ए लागू नहीं होती है। इसका अर्थ यह है कि संशोधनों के लागू होते ही इन कानूनों की मूल भावना और आदिवासियों का मालिकाना हक खत्म हो जायेगा और जमीन आदिवासियों के हाथ से निकल जायेगी।
  2. बैंकों से कर्ज सरकार का तर्क है कि आदिवासियों के कृषि भूमि का व्यावसायिक उपयोग पर प्रतिबंध होने से बैंक उन्हें कर्ज नहीं देते हैं जिसके कारण आदिवासी बच्चे उच्च शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। इसलिए संशोधन के बाद वे अपनी जमीन को बैंकों मंे गिरवी रखकर अपने सपनों को पूरा कर पायेंगे। क्या सचमुच आदिवासी बच्चों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए बैंकों से कर्ज लेने की जरूरत है? कर्ज नहीं चुका पाने की स्थिति में उक्त जमीन का क्या होगा? बैंक उक्त कर्ज की भरपाई कैसे करेगा? क्या बैंक अपने कर्ज की भरपाई करने के लिए उक्त भूमि को सिर्फ आदिवासियों को ही बेचेगा? यदि आदिवासी उप-योजना के तहत आवंटित राशि का उपयोग योजना आयोग के दिशा-निर्देश के अनुसार किया जाये तो आदिवासियों को बैंकों से कर्ज लेने की जरूरत ही नहीं होगी, क्योंकि वर्तमान समय में उक्त राशि का दूसरों मदों में खर्च किया जाता है जबकि उसके अधिकांश हिस्से का खर्च मानव संसाधन विकास के लिए करना है। दूसरी बात यह है कि कर्ज नहीं भर पाने की स्थिति में बैंक उक्त जमीन को किसी को भी बेचने के लिए स्वतंत्र होगा। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने यूको बैंक एवं अन्य बनाम दीपक दे बर्मा एवं अन्य सिविल अपील सं. 1125 आॅफ 2016 में स्पष्ट कर दिया है कि सेक्यूनिटाईजेशन एंड रिकाॅस्ट््रक्शन आॅफ फाईनेनशियल एसेट एंड इंफोर्समेंट आॅफ सेक्यूरिटि इंटरेस्ट एक्ट 2002 के प्रावधानों के मुताबिक बैंक अपना कर्ज को चुकता करने के लिए गिरवी रखे गये सम्पति को किसी को भी बेच सकता है। त्रिपुरा में यूको बैंक ने एक आदिवासी का कर्ज चुकता करने के लिए उसकी जमीन को गैर-आदिवासी को बेच दिया और जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आया तो सुप्रीम कोर्ट ने उसे वैध करार दे दिया। मतलब साफ है कि यह रास्ता आदिवासियों को अपनी जमीन से बेदखल करायेगा।
  3. आदिवासियों का विकास सरकार कह रही है कि आदिवासियों के कृषि भूमि का व्यावसायिक उपयोग नहीं होने से उनका विकास नहीं हो पा रहा है। संशोधन के बाद वे अपनी जमीन पर दुकान, होटल, मैरिज हाॅल इत्यादि बना सकेंगे। यहां सवाल यह है कि कितने प्रतिशत आदिवासी लोग व्यवसायिक गतिविधियों में शामिल हैं? कितने आदिवासियों के पास दुकान, होटल या मैरिज हाॅल बनाकर व्यवसाय करने की क्षमता है? इसके लिए पूंजी कौन देगा? क्या सरकार पूंजी देगी? हकीकत यह है कि छोटे-बड़े व्यवसायों को एक साथ मिलाने पर भी व्यवसायिक गतिविधियों में जुड़े आदिवासियों की संख्या एक प्रतिशत भी नहीं पहुंचती है। दुकान, होटल या मैरिज हाॅल बनाकर व्यवसाय करने की हैसियत रखने वाले आदिवासियों को उंगलियों में गिना जा सकता है। ऐसी स्थिति में सवाल यह है कि उनके जमीन पर व्यवसाय करने की मंशा किसकी है और सरकार उनको क्यों इतनी तवज्जो दे रही है? असल में यह प्रावधान उन गैर-आदिवासी मध्यवर्ग के व्यवसायियों के लिए हैं, जो आदिवासी जमीन पर व्यावसायिक प्रतिष्ठान, होटल या मैरिज हाॅल बना चुके हैं या बनाने का इरादा रखते हैं लेकिन कानून उन्हें ऐसा करने से मना करता है। शायद आदिवासियों को प्रारंभ में कुछ पैसा मिल जाये लेकिन एक बार जमीन चले जाने के बाद उनका मालिकाना हक बरकरार नहीं रहेगा क्योंकि जमीन की प्रकृति बदल जायेगी। इसको समझने के लिए बोकारो का बारी काॅपरेटिव सटीक उदाहरण है। दो व्यवसायी आर.के. सिंह एवं बी.के.सिंह ने 1980 में बोकारों में संताल आदिवासियों की 50 एकड़ जमीन पर बारी काॅपरेटिव सोसाईटी की स्थापना की। इसके लिए उन्होंने आदिवासियों से वादा किया कि वे एक कपड़ा उद्योग खोलना चाहते हैं और वहां उन्हें नौकरी मिलेगी तथा जमीन का मालिकाना हक उनका ही रहेगा। उन्होंने बारी काॅओपरेटिव के नाम से जमीन लिया जहां कुछ दिनों तक कपड़ा उद्योग चला। बाद में उक्त जमीन में उन्होंने 250 पाश बिल्डिंग बनाकर गैर-आदिवासियों को बेच दिया। 2006 में आदिवासियों ने न्यायालय का शरण लिया और जब यह मामला बाहर आया तो बोकारो के उपायुक्त ने इसकी जांच की और आरोप को सही पाया। बावजूद इसके आदिवासियों के हाथ अबतक कुछ नहीं लगा है जबकि यह मामला सीएनटी एक्ट 1908 का घोर उल्लंघन हैं। इस कानून के रहते ऐसा हुआ है तो जब कानून को कमजोर कर दिया जायेगा उसके बाद क्या होगा? आदिवासियों के जमीन का व्यावसायिक उपयोग के नाम पर उनसे उनकी जमीन गैर-आदिवासियों के द्वारा कब्जा कर लिया जायेगा और आदिवासियों के पास जमीन का कागज होने के बावजूद उनको फायदा नहीं मिलेगा।
  4. राज्य के विकास में बाधक सरकार का एक तर्क यह है कि सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट राज्य के विकास के लिए बाधक हैं। लेकिन यह तर्क संगत नहीं है। इन कानूनों में संशोधन कर खनन एवं उधोगों के लिए जमीन लेने का प्रावधान है बशर्ते कि जमीन अधिग्रहण से पहले रैयतों का पुनर्वास हो लेकिन भूईंहारी एवं खूटकट्टी जैसे जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता है क्योंकि इसका आदिवासी संस्कृति से गहरा जुड़ाव है। सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट के अस्तित्व में रहते हुए झारखंड में प्रतिवर्ष 15,000 करोड़ रूपये मूल्य के खनिज का उत्खनन होता है, जिसमें कोयला, लौह-अयस्क, बाॅक्साईट, इत्यादि प्रमुख हैं। राज्य में औद्योगिक विकास जारी है। 1951 से 1995 तक झारखंड में कुछ महत्वपूर्ण औद्योगिक इकाई स्थापित की गई, जिसमें बोकारा स्टील प्लांट, सिंदरी खाद कारखाना, भारी इंजीनियरिंग निगम रांची, तांबा स्मेलटर घाटशिला, यू.सी.आई.एल. तथा कई खनन उद्योग। करीब 90 बड़े बांध, 400 मध्यम तथा 11,878 छोटे बांध बनाये गये जिसमें चांडिल की स्वर्ण रेखा बहुददेशीये परियोजना, दुमका की मयूराक्षी जलाशय परियोजना, दामोदर घाटी परियोजना, पलामू की कुटकू जलाशय परियोजना प्रमुख हैं। इन परियोजनाओं के लिए जमीन का अधिग्रहण जरूरत से कहीं ज्यादा किया गया। इनमें औद्योगिक प्रतिष्ठान के लिए 17,5730.18, थर्मल पावर हेतु 6026.78, खान खनन कार्य के लिए 515124.59, प्रतिरक्षा प्रतिष्ठान हेतु 112289.11, जलाशय परियोजना हेतु 507952 हेक्टर व अन्य परियोजना के नाम पर 178824, कुल 14,95,947.04 हेक्टर जमीन का अधिग्रहण किया गया। किस आधार पर सरकार कह रही है कि ये कानून विकास में बाधक हैं? ये कानून राज्य के विकास में कहीं से भी बाधक नहीं हैं। जहां तक शिक्षा और स्वस्थ्य के क्षेत्रों में आधारभूत सरंचना विकसित करने का सवाल है, सरकार को किसी ने नहीं रोका है। सरकार को खिचड़ी विद्यालयों में गुणवता लाकर प्राथमिक शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए काम करना चाहिए तथा बीमार पड़े उप-स्वस्थ्य केन्द्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केद्र एवं सामुदायिक स्वस्थ्य केन्द्रों को बेहतर करना चाहिए। बेहतर शिक्षा, स्वस्थ्य, ग्रामीण सड़क, शुद्ध पेयजल, बिजली एवं संचार मध्यमों को गांवों तक पहुंचाने में सीएनटी एक्ट एवं एसपीटी एक्ट कहां रोक रहे हैं? असल में सरकार विकास के नाम पर निजी विद्यालयों एवं निजी अस्पतालों के लिए आदिवासियों की जमीन का उपयोग करना चाहती है जबकि यह संवैधानिक रूप से भी सही नहीं है। ऐसा करने से देश में असमानता की खाई बढ़ती ही जायेगी। सरकार का ध्यान राज्य के मूलभूत विकास के बजाये निजी व्यवसायिक घरानों के द्वारा शिक्षा और स्वस्थ्य के क्षेत्र में व्यवसाय को बढ़ाने का है इसलिए इन कानूनों पर विकास के नाम पर हमला किया जा रहा है। शिक्षा और स्वस्थ्य का व्यवसायिकरण संविधान के मौलिक अधिकारों के खिलाफ है।
  5. मुआवजा की स्थिति सरकार की दलील है कि अधिगृहित जमीन का कीमत बाजार मूल्य से चार गुणा ज्यादा और दो महिने के अंदर ही मुआवजा देने का काम निपटा लिया जायेगा। इसे समझने के लिए झारखंड के तीन बड़े परियोजनाओं का आंकलन करना चाहिए। हेवी इंजीनियरिंग काॅरपोरेशन, रांची, बोकारो स्टील लिमिटेड, बोकारो और तेनुघाट बिजली परियोजना। एक तो यह कि जमीन अधिग्रहण करने के बाद किये गये वादे के अनुसार विस्थापितों को न तो नौकरी मिली और न ही मुआवजा। और दूसरा जिन परिवारों को मुआवजा और नौकरी मिली उनकी भी स्थिति नहीं बदली। पहली पीढ़ि को मुआवजा और नौकरी मिला लेकिन आज उनकी चैथी पीढ़ि के लोग रिक्शा चला रहे हैं, मजबूरी करने को मजबूर है या दूसरे के घरों में जुठा बर्तन घोकर अपना गुजारा कर रहे हैं। सरकार को यह समझना होगा कि प्रत्येक व्यक्ति पैसा से पैसा नहीं बना सकता है क्योंकि हर कोई व्यवसायी नहीं हो सकता है। ऐसी स्थिति में जिस तरह से कृषि से कई पीढ़ियों तक आजीविका चलती रहती है उसी तरह का प्रावधान करने की जरूरत है। मुआवजा, नौकरी और कृषि जमीन के बदले दूसरे जगह पर कृषि जमीन या उक्त परियोजना में शेयर धारक बनाने से ही रैयतों को उनके कई पीढ़ियों के लिए आजीविका सुनिश्चित की जा सकती है। सरकार की वर्तमान नीति से आदिवासी लोग सिर्फ बर्बादी की ओर जायेंगे।
  6. अनुपयोगी भूमि वापसी की स्थिति झारखंड सरकार का एक तर्क यह है कि यदि किसी परियोजना के लिए अधिगृहित जमीन का उपयोग पांच वर्षों के अंदर नहीं किया गया तो उक्त जमीन को रैयतों को लौटा दिया जायेगा और भुगतान किया हुआ मुआवजा की राशि भी वापस नहीं ली जायेगी। यह निश्चित रूप से सुनने में अच्छा लगता है लेकिन पिछले सात दशकों का इतिहास इसके ठीक विपरीत है। बिहार भूमि सुधार कानून में भी इसी तरह की व्यवस्था की गई थी कि अधिगृहित भूमि का उपयोग 50 वर्षों के अंदर नहीं होने पर उक्त जमीन को मूल रैयतों को लौटा दिया जायेगा। उदाहरण के रूप में टाटा स्टील लि., जमशेदपुर में स्थापित स्टील प्लांट के लिए 12,708.59 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था लेकिन सिर्फ 2163 एकड़ जमीन का ही उपयोग हुआ और शेष जमीन बेकार पड़ी रही, जिसमें से 4031.075 एकड़ जमीन गैर-कानूनी तरीके से सब-लीज में दे दिया गया। इसी तरह एच.ई.सी. रांची के लिए वर्ष 1958 में 7199.71 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया, जिसमें से सिर्फ 4008.35 एकड़ जमीन का ही उपयोग मूल मकसद के लिए किया गया, 793.68 एकड़ जमीन गैर-कानूनी तरीके से निजी संस्थानों को सब्लीज में दे दी गयी एवं शेष जमीन अभी तक उपयोग रहित हैं। इसी तरह रांची के पास नगड़ी गांव में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा अधिगृहित जमीन उपयोग किये बिना पड़ा रहा लेकिन रैयतों को नहीं लौटाया गया। एक बार जमीन का अधिग्रहण कर लेने के बाद सरकार जमीन वापस नहीं लौटाती है। हकीकत में झारखंड के भूमि रक्षा कानूनों को संशोधन करने के तीन मौलिक कारण हैं - पद्ध राज्य में विभिन्न तरह के उद्योग लगाने के लिए झारखंड सरकार और उद्योगपतियों के बीच अबतक 100 से ज्यादा समझौता-पत्रों पर हस्ताक्षर हुआ है लेकिन सीएनटी/एसपीटी को आधार बनाकर जनांदोलन होने से भूमि अधिग्रहण में भारी परेशानी हुई है। फलस्वरूप, पिछले डेढ़ दशक में राज्य में कोई बड़ा परियोजना नहीं लग पाया है। जनांदोलनों के कारण अर्सेलर मितल कंपनी को खंूटी क्षेत्र से भागना पड़ा और जिंदल स्टील लि. पोटका में परियोजना नहीं लगा सका। पपद्ध राज्य में रीयल स्टेट कारोबार धीमा पड़ गया है क्योंकि मकानों के खरीददार सीएनटी/एसपीटी से मुक्त जमीन पर बने मकान चाहते हैं क्योंकि कई बिल्डर्स इसमें फांस चुके हैं। जैसे रांची का पंचवटी प्लाजा और हरिओम टाॅवर इसका उदाहरण हैं। पपपपद्ध छोटे व्यापारी कानूनी पचड़ों से मुक्ति चाहते हैं क्योंकि राज्य में अधिकांश होटल, शोपिंग काॅम्पलेक्स, अपार्टमेंट, निजी विद्यालय भवन एवं निजी अस्पातालों का निर्माण आदिवासियों के जमीन पर ही किया गया है, जिनके खिलाफ न्यायालयों में मुकदमा चल रहा है या मुकदमा करने की तैयारी चल रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण रांची का ‘अपोलो’ होस्पिटल’ है जो मुंडाओं की जमीन पर बनाया गया है। रैयतों ने एसएआर कोर्ट से लेकर कमिश्नर कोर्ट तक मुकदमा जीता है। रांची के कमिश्नर ने अपोलो को ध्वस्त करने का भी आदेश दिया था लेकिन यह मामला उच्च न्यायालय पहुंच गया जहां मामला लंबित है। कानून में संशोधन होने से अपोलो सुरक्षित हो जायेगा। राज्य में आपोलो जैसे कई उदाहरण हैं। इसमें सबसे बड़ा मसला यह है कि झारखंड सरकार आगामी 16 एवं 17 फरवरी 2017 को रांची में ग्लोबल इंवेस्टर समिट ;वैश्विक निवेशक सम्मेलनद्ध का आयोजन कर रही है, जिसके लिए भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व से झारखंड के मुख्यमंत्री को स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि सम्मेलन से पहले भूमि अधिग्रहण मंे आने वाला सारा अडंगा दूर कर लिया जाना चाहिए, जिसे देश के प्रधानमंत्री मोदी निवेशकों को स्पष्ट संदेश देकर राज्य में निवेश को सुनिचित कर सकेंगे। केन्द्रीय नेतृत्व ने रघुवर दास को स्पष्ट कह दिया है कि व्यापार और पूंजीनिवेश में अड़ंगा लगाने वाले कानूनों को बदलें, अपना नेतृत्व क्षमता दिखाये या मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ें। इसलिए रघुवर दास अपना नेतृत्व क्षमता दिखाकर अपनी कुर्सी बचाने की कोशिश में आदिवासी और मूलवासियों से घायल शेर की तरह व्यवहार कर रहे हैं तथा उन्होंने पांचवी अनुसूची क्षेत्र के संवैधानिक प्रावधान, पेसा कानून और आदिवासी परंपरा को ताख पर रख दिया है। लेकिन आदिवासी भी कहां मानने वाले हैं। उन्होंने सिर में कफन बांध लिया है। यह युद्ध दोनों पक्षों के लिए अभी नहीं तो कभी नहीं जैसा हो गया है। आदिवासी जमीन को सम्पति की तरह नहीं देखते हैं बल्कि इसमें उनकी पहचान, संस्कृति और विरासत जुड़ी हुई है, वहीं जमीन को मात्र सम्पति का दर्जा देने वाला गैर-आदिवासी समाज इसे समझने को तैयार नहीं है। सीएनटी/एसपीटी कानूनों का संशोधन लागू होने से आदिवासी लोग बर्बाद हो जायेंगे। उनकी आजीविका, पहचान, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताना-बाना सब समाप्त हो जायेगा। क्योंकि सरकार बंदूक के बल पर औद्योगतियों के लिए कानूनी रूप से जमीन कब्जा करेगी और छोटे-व्यापारियों के द्वारा आदिवासियों की लूटी जमीन कानूनी हो जायेगी। इस युद्ध में सरकार को राजस्व मिलेगा, उद्योगपतियों को जमीन, खनिज एवं पानी, छोटे व्यापारियों को जमीन, मीडिया को विज्ञापन के रूप में नगदी और आदिवासियों दुःख का एक नया संसार। लेकिन सवाल यह भी है कि जमीन का युद्ध कब खत्म होगा?