आदिवासी भारत के प्रथम निवासी हैं, जिनकी जनसंख्या 10.43 करोड़ है जो देश के कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है. इनके साथ सबसे ज्यादा अन्याय किया गया हैए. सुप्रीम कोर्ट ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है। यही वह समुदाय है जिसके संघर्ष और बलिदान का सबसे लंबा इतिहास है। आदिवासी इलाकों की मिट्टी उनके खून से सना हुआ है, यहां के सड़कों का हरेक मोड़ आदिवासियों के खून से रंगा है और प्रत्येक आदिवासी गांव का रास्ता शहीदों के कब्रों से होकर गुजरती है। यह संघर्ष 1784 में बाबा तिलका मांझी की बर्बरतापूर्ण हत्या एवं फांसी से शुरू होकर 2016 में खूंटी के सायको में अब्राहम मुंडा की पुलिस फायरिंग में निर्मम हत्या से आगे बढ़ चुका है। लेकिन इतना संघर्ष और बलिदान के बावजूद आदिवासी लोग हाशिये पर पड़े हुए हैं। आदिवासियों के खून की कीमत पर बने सीएनटी/एसपीटी जैसे भूमि रक्षा कानूनों से उनकी जमीन नहीं बच पा रही है। भारत के संविधान की पांचवी व छठवीं अनुसूची, आरक्षण का प्रावधान एवं अन्याय व अत्याचार से सुरक्षा देने का संवैधानिक प्रावधान उनके काम नहीं आ रहा है। एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम 1989, पेसा कानून 1996, वन अधिकार कानून 2006 जैसे प्रगतिशील कानूनों से न उनके खिलाफ होने वाला अत्याचार रूक पा रहा है और न ही उन्हें अपने इलाकों में शासन करने तथा जंगल व जमीन पर अधिकार मिल रहा है। इसलिए हमें गंभीरता के साथ विश्लेषण करना चाहिए कि क्या आज आदिवासियों का संघर्ष दिशाहीन हो चुका है? आदिवासियों का यह संघर्ष राजसत्ता के अस्तित्व में आने के साथ ही शुरू हो गया था क्योंकि ब्रिटिश राजसत्ता ने आदिवासी इलाकों को बंदूक के बल पर कब्जा करना शुरू किया और आदिवासियों से उनकी जमीन का लगान मांगा। बाबा तिलका मांझी ने राजसत्ता के अस्तित्व को ही नाकारते हुए कहा कि जमीन हमें भागवान ने उपहार में दिया है तो ‘सरकार’ बीच में कहां से आयी? हम सरकार को लगान क्यों दें? जब आदिवासियों ने राजसत्ता के अस्तित्व को ही नाकार दिया तब ब्रिटिश हुकूमत ने बंदूक के साथ कानून का सहारा लेना शुरू किया। इसी के तहत 1793 में स्थायी बंदोबस्ती कानून लागू की गई और आदिवासियों से कहा गया के वे ब्रिटिश सरकार से अपनी जमीन के लिए कागज का टुकड़ा ;पट्टाद्ध हासिल कर लें। लेकिन बहुसंख्यक आदिवासियों ने अंग्रेजी सरकार से कागज का टुकड़ा लेने से इंकार कर दिया क्योंकि कागज का टुकड़ा लेने का अर्थ था राजसत्ता के अस्तित्व और अधीनता को स्वीकार करना। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने गैर-आदिवासियों की मद्द से आदिवासियों को पट्टा लेने पर मजबूर कर दिया और जिन्होंने पट्टा नहीं लिया उनकी जमीन गैर-आदिवासियों को दे दी गई। इस तरह से आदिवासी इलाकों में गैर-आदिवासियों की घुसपैठी हुईं। 1865 में पहला वन अधिनियम बनाकर जंगलों को भी आदिवासियों से छीन लिया गया और बाद में वनोपज पर भी लगान लाद दिया गया तथा 1894 में भूमि अधिग्रहण कानून के द्वारा विकास के नाम पर आदिवासियों की जमीन हाथियाने का सिलसिला शुरू हुआ, जिसके खिलाफ लंबा संघर्ष चला। आदिवासियों का मौलिक संघर्ष राजसत्ता के खिलाफ है इसलिए जो भी व्यक्ति सत्ता पर बैठता है वह आदिवासियों के उपर गोली चलवाता है। अंग्रेजी हुकूमत के समय अंग्रेजों ने आदिवासियों के उपर गोली चलाया और आजादी के बाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 1 जनवरी 1948 को खरसावां में गोली चली, जिसमें 2000 से अधिक लोग मारे गये। इसी तरह झारखंड गठन के बाद बाबूलाल मरांडी के शासनकाल में 2 फरवरी 2001 को झारखंड के खूंटी जिले स्थित तपकारा में पुलिस ने आंदोलनकारियों के उपर गोली चलाकर 8 आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया। राजसत्ता आदिवासियों के संघर्ष को दबाने के लिए पुलिसिया दमन, चाटुकारिता और फर्जी सहानुभूति का सहारा लेती रही है, जिसमें आदिवासी लोग फंस जाते हैं। यहां सवाल यह है आखिर इस संघर्ष का अंत क्यों नहीं हो रहा है? राजसत्ता और आदिवासियों के बीच जारी संघर्ष का मौलिक कारण क्या हैं? आदिवासी लोग राजसत्ता की दोहरी चाल को क्यों नहीं समझ पाते हैं? ऐतिहासिक रूप से देखें तो आदिवासियों के पास अपना ‘आडिया आॅफ स्टेट’ मौजूद था। वे पुलिस के बगैर अपने-अपने इलाके में शासन व्यवस्था चलाते थे, जहां न्याय व्यवस्था भी मौजूद था। संताल दिशुम, मुंडा दिशुम, हो लैंड इत्यादि इसके प्रमुख उदाहरण हैं। इसलिए बाहर से थोपा गया शासन व्यवस्था को आदिवासियों ने नाकार दिया। बावजूद इसके आदिवासी इलाकों में जबर्रदस्ती राजसत्ता की स्थापना की गई। आज राजसत्ता चाहता है कि आदिवासी लोग भूमि, भू-भाग और प्राकृतिक संसाधनों पर अपना मालिकाना हक का दावा छोड़कर इन्हें राजसत्ता को सौंप दें, वे तथाकथित मुख्यधारा में शामिल होने के नामपर जाति, नस्ल एवं लिंग आधारित भेदभाव से लैश भारतीय समाज का हिस्स बनते हुए अपनी मूल आदिवासी पहचान, भाषा, संस्कृति, परंपरा और रीति-रिवाज को दफन कर दंे और स्वायतता, स्वशासन एवं पारंपरिक शासन व्यवस्था को त्याग कर गैर-आदिवासियों के शासन व्यवस्था को पूर्णरूप से स्वीकार कर लें। और जब बहुसंख्य आदिवासी लोग इसे स्वीकार नहीं किया तो राजसत्ता उनके खिलाफ पुलिसिया दमन, चाटुकारिता और फर्जी सहानुभूमि का सहारा ले कर उनके संघर्ष को खत्म करने का प्रयास में जुटा। कोल विद्रोह, संताल हुल और बिरसा उलगुलान के बाद विल्किंसन्स रूल्स, संताल परगना एक्ट एवं छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम आदिवासियों को खुश करने का प्रयास था। इन कानूनों के द्वारा आदिवासियों की जमीन, संस्कृति और परंपराओं की रक्षा को स्वीकृति मिली लेकिन आदिवासियों के जमीन का मालिक जिला के उपायुक्त को बना दिया गया, जो मूलतः गैर-आदिवासी ही होते हैं। के.बी. सक्सेना की जांच रिपोर्ट बताती है कि सिर्फ रांची जिले के 8 उपायुक्तों ने आदिवासी जमीनों को गैर-आदिवासियों को गैर-कानूनी तरीके से हस्तांतरित किया। ये जमीन रक्षा कानून आदिवासियों की जमीन नहीं बचा सकते क्योंकि कानूनी तौर पर लूटेरों को ही पहरेदार बना दिया गया हैं। हकीकत में इन कानूनों का मकसद आदिवासियों की भूमि रक्षा नहीं बल्कि उन्हें खुश करते हुए उनके संघर्ष को समाप्त करना था। 1938 में आदिवासी महासभा की स्थापना के बाद आदिवासी स्वायतता की स्थापना के लिए जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासियों को एकजुट कर आदिवासी राजनीति को स्थापित किया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय जब हिन्दुओं के लिए हिन्दुस्तान, मुसलमानों के लिए पाकिस्तान और दलितों के लिए दलिस्तान की मांग उठी तब जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासी इलाकों को मिलाकर आदिवासियों के लिए ‘आदिवासीस्तान’ (संघीय संरचना के भीतर स्वायत्त आदिवासी राष्ट्र) के स्थापना की मांग की थी। उन्होंने संविधान निर्माण के समय आदिवासियों की मूल पहचान को संविधान में रखने की भी मांग की थी। आदिवासियों के लिए दो अनुसूचियों पर उन्होंने सवाल उठाए थे। लेकिन उनकी बात को दरकिनार कर पांचवी एवं छठवीं अनुसूची के साथ आरक्षण का झुनझुना थमा दिया गया। संविधान में एक सूची और एक आदिवासी पहचान नहीं रह जाने से तथा पांचवी एवं छठवीं अनुसूची के दो प्रावधानों के बन जाने से पूर्वोतर, मध्यभारत एवं दक्षिण भारत के आदिवासी अलग-थलग कर बिखेर दिए गए। वहीं आरक्षण के कारण भी उनकी आदिवासी एकता खंडित हुई और असम व पूर्वोत्तर आदि राज्यों में वे आपस में लड़ बैठे। इसके साथ देश के राष्ट््रपति एवं राज्यों के राज्यपालों को पांचवीं अनुसूची इलाके का भगवान बना दिया गया। क्या अबतक किसी राष्ट््रपति या राज्यपाल ने आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा की है? इन लोगों ने आदिवासियों की जमीन लूट को क्यों नहीं रोका? मौलिक सवाल यह है कि क्या बिल्ली दूध की रक्षा करेगी? आरक्षण आदिवासियों के लिए एक संवैधानिक प्रावधान है। जयपाल सिंह मुंडा ने कभी भी आरक्षण की मांग नहीं की थी बल्कि वे आत्म-निर्णय के अधिकार वाली स्वशासन व्यवस्था चाहते थे। आरक्षण ने आदिवासी समाज के अंदर एक मध्यवर्ग को जन्म दिया, जिसने आगे चलकर आदिवासी समाज को कई टूकड़ों में बांट दिया। 1970 के दशक में इसी मध्यवर्ग ने अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए आदिवासियों के बीच में धर्म का विवाद पैदा किया, जिसकी नींव 1940-50 के दशक में आदिवासी महासभा और उसके नेतृत्व में चल रहे आदिवासी आंदोलन को तोड़ने के लिए कांग्रेस ने डाली थी। लोहरदगा सीट से लोकसभा चुनाव हारने के बाद कार्तिक उरांव ने एक साथ संघर्ष कर रहे आदिवासियों को राजनीतिक तौर पर सरना और ईसाई के नाम पर बांट दिया, जो बाद में संघ परिवार के लिए सबसे बड़ा हथियार बन गया। आरक्षण से उपजे मध्यवर्ग ने गैर-आदिवासियों का नकल करते हुए गाड़ी, बंगला और बैंक बैलेंश बनाने में व्यस्त हो गया तथा आदिवासी दर्शन को जमींदोज करते हुए आदिवासी पहचान, भाषा, संस्कृति, परंपरा और रीति-रिवाज को भी दफन कर दिया। आज आदिवासी संघर्ष में यह मध्यवर्ग कहां खड़ा है? क्या आरक्षण से उपजा यह वर्ग गरीब आदिवासियों को मद्द करने के बजाये विदेशी नस्ल का कुता पालने मंे व्यस्त नहीं है? आरक्षण ने आदिवासी समाज को दो हिस्सों में बांट दिया है। आज आरक्षण से उपजा मध्यवर्ग ही सत्ता की दलाली कर रहा है और आदिवासी समाज को अपनी मूल मांग से भटका रहा है। आज राजसत्ता प्रयोजित धर्म की लड़ाई को कौन हवा दे रहा है? झारखंड आंदोलन के समय बिहार, झारखंड, ओडिसा, पश्चिम बंगाल और मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल इलाकों को मिलाकर बृहत झारखंड की मांग ‘अपनी धरती पर अपना राज’ का हिस्सा था, जिसके तहत आदिवासी लोग उपनिवेशी शासन को नाकारते हुए अपना शासन व्यवस्था स्थापित कर भूमि, भू-भाग और संसाधनों पर अपना मालिकाना हक को सुरक्षित करना चाहते थे। लेकिन इसके ठीक विपरीत 2001 में झारखंड एवं छत्तीसगढ़ का गठन हुआ और ये दोनों राज्य गैर-आदिवासियों का उपनिवेश बन गया, जिन्होंने आदिवासियों को हासिये पर धाकेल दिया। अब केन्द्र के साथ इन दोनों राज्यों की राज्य सरकारें आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने का अभियान चला रही हैं। इन्होंने सबसे पहले आदिवासियों की भूमि, भू-भाग और संसाधनों पर कब्जा किया, उनकी स्वायतता तथा शासन व्यवस्था को नाकारा और फिर उनके विकास एवं उन्हंे मुध्यधारा में लाने का अभियान चला रहे हैं। क्या यह आदिवासियों के साथ मजाक नहीं है? क्या राजसत्ता आदिवासियों को कभी न्याय दे सकता है? 1980 एवं 90 के दशक में देश के आदिवासी इलाकों में जबर्रदस्त तरीके से स्वशासन आंदोलन चला। कोल्हान रक्षा समिति ने कोल्हान को ‘हो’ लैंड के रूप में अलग देश घोषित कर दिया। इस तरह के स्वशासन की मांग को समाप्त करने के लिए राजसत्ता ने जहां एक ओर पुलिसिया दमन का सहारा लिया वहीं आदिवासियों को खुश करने के लिए आदिवासियों के सामने पेसा कानून 1996 जैसा एक हड्डी का टुकड़ा फेंक दिया। लोग खुश होकर ढोल और नगाड़ा लेकर ‘अपने गांव मंे अपना राज’ की स्थापना की खुशी में नाचने-गाने लगे। लेकिन यह नहीं समझ पाये कि पेसा कानून उनकी बची-खुची स्वशासन व्यवस्था को कुचलने का षडयंत्र था। सर्वसम्मति से चलने वाला आदिवासी समाज के उपर चुनाव थोपकर लोकतंत्र के नाम पर भ्रष्टतंत्र लाद दिया गया। इस तरह से आदिवासी समाज बिखर गया। जयपाल सिंह मुंडा ने संविधानसभा में कहा था कि लोकतंत्र आदिवासियों के खून में बसता है। लेकिन आज आदिवासी समाज क्यों आरक्षित सीटों में सर्वसम्मति से उम्मीदवार खड़ा नहीं कर पा रहा है? क्यों चुनाव के नाम पर लाखों रूपये खर्च करने के लिए मजबूर है यह समाज जिनके पूर्वजों ने एक पैसा खर्च किये बिना ही शासन व्यवस्था चलाया था? जब आदिवासियों ने जंगल पर अधिकार की मांग की तो उन्हें वन अधिकार कानून 2006 दिया गया, जिसके तहत व्यक्तिगत अधिकार के नाम पर 10 के जगह पर 1 डिसमिल से लेकर 2 एकड़ जमीन का पट्टा दिया जा रहा है। क्या यह न्याय है? जब विकास के नाम पर उनकी जमीन को अधिग्रहण किया गया और जब पुनर्वास की मांग की गई तो केन्द्र सरकार ने 2013 में भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पनस्र्थापना कानून बनाया लेकिन क्या यह कानून लागू हुआ? इसी तरह विकास के लिए पैसा मांगा तो ट््राईबल सब-प्लान आया लेकिन पैसा कहां जा रहा है? क्यों आदिवासियों का पैसा खेलगांव और राष्ट््रीय राजमार्गों में खर्च किया जा रहा है? आदिवासियों को समझना चाहिए कि वे राजसत्ता के खिलाफ लड़ रहे हैं इसलिए राज्यसत्ता उन्हें झुनझुना पकड़ा रहा है। आदिवासियों का विकास करना है तो उन्हें उनकी भूमि, भू-भाग और संसाधनों को पहले की तरह उन्हें वापस दे होगा क्योंकि दोहन, शोषण और लूट पर आधारित विकास प्रक्रिया में वे कभी भी आगे नहीं बढ़ सकते हैं क्योंकि उनका जीवन दर्शन इसकी इजाजत नहीं देता है।
अंग्रेजी में एक शब्द है ष्मगचसवपजंजपवदष् जिसका अर्थ है ‘शोषण’ या ‘दोहन’, जो मौलिक तौर पर आदिवासी सभ्यता को दूसरों से अलग करता है। राज्यसत्ता मुटठीभर लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए प्रकृतिक संसाधनों का दोहन और उसपर आश्रित लोगों का शोषण करता है। इसलिए राजसत्ता के द्वारा बंदूक, कागज और कलम के बल पर आदिवासियों की भूमि, भू-भाग और संसाधनों पर जबर्रदस्ती अधिपत्या जमाने के खिलाफ वे संघर्षरत हैं। लेकिन भौंकता कुता के सामने हड्डी फंेकने जैसा ही राजसत्ता बीच-बीच में एसपीटी/सीएनटी, पांचवी अनुसूची, आरक्षण, पेसा कानून, वनाधिकार कानून, इत्यादि से आदिवासियों को लालचाकर उनके संघर्ष को कई टूकड़ों में बांटते हुए उन्हें कमजोर कर दिया है, जो स्पष्ट दिखाई पड़ता है। फलस्वरूप, आदिवासियों का एक समूह एसपीटी/सीएनटी के संघर्ष का आहवान कर रहा है, तो कोई पांचवीं अनुसूची की मांग पर अटका हुआ है, कोई धर्म बचाने की बात करता है और कोई पेसा कानून, आरक्षण और वन अधिकार कानून को लागू करने का अभियान चला रहा है। इस तरह से आदिवासियों का मौलिक मांग हाशिये पर चला गया है। इसलिए अब समय आ गया है कि राजसत्ता के पराधीनता को छोड़कर आदिवासी लोग अपने संघर्ष के केन्द्र में अपनी मूल मांगों को वापस लेकर आये। आदिवासी इलाकों में गैर-आदिवासियों के शासन व्यवस्था को स्वीकार करना ही आदिवासियों के बदहाली का मूल कारण है। आजादी के पिछले 70 वर्षों में गैर-आदिवासी शासकों ने आदिवासियों की भूमि, भू-भाग और संसाधनों को विकास एवं आर्थिक तरक्की के नाम पर लूटने और कब्जा करने के अलावा क्या किया? पिछले सात दशकों का अनुभव ने यह स्पष्ट कर दिया कि भूमि, भू-भाग और प्रकृतिक संसाधनों से बेदखल होकर आदिवासी समुदाय कभी भी नहीं बच सकता है। जमशेदपुर इसका सबसे सटीक उदाहरण है जहां मात्र एक सौ साल में आदिवासी लोग 95 प्रतिशत से घटकर 5 प्रतिशत पर आ गये हैं जबकि वहां आधुनिक विकास का चमचमाता इमारत खड़ा है। इसलिए आदिवासी संघर्ष को एक साथ स्वायतता, स्वशासन और भूमि, भू-भाग एवं संसाधनों पर मालिकाना हक हासिल करने पर केन्द्रित करना चाहिए। आदिवासियों को दृढ़संकल्प लेकर एक नई रणनीति के साथ संघर्ष करना चाहिए कि वे अपने इलाकों में स्वयं शासन व्यवस्था चलायेंगे, उन इलाकों का विकास उनके अनुसार होगा और उनकी जमीन, भू-भाग और संसाधनों पर उनका मालिकाना हक होगा। लेकिन सबसे पहले इसके लिए आदिवासियों को राजसत्ता के द्वारा फेंका गया ‘हड्डी’ चूसना बंद करना होगा।