भारत अभी एक मिनी आम चुनाव के दौर से गुजर रहा है. दो राज्यों- गोवा और पंजाब में मतदान हो चुका. अभी तीन और राज्यों- उप्र, उत्तराखंड और मणिपुर- में होना बाकी है. अनेक दलों का बहुत कुछ दांव पर लगा है. कोई इसे केंद्र सरकार के शासन पर, ख़ास कर नोटबंदी पर जनता के फैसले के रूप में देख रहा है, तो कोई प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा से जोड़ रहा है. दोनों बातों में कुछ सच्चाई है, पर यह पूरा सच नहीं है. हर राज्य की अपनी विशेष परिस्थिति होती है, राज्य की वर्तमान सरकार का कामकाज होता है; और सबसे बढ़ कर वहां का सामाजिक समीकरण होता है. जो भी हो, इन चुनाओं के नतीजों का देश की राजनीतिक दशा-दिशा पर असर, कम या अधिक, पड़ना तो अवश्यम्भावी है. नतीजा जो भी हो, फिलहाल हम भारतीय राजनीति और चुनाव में धन बल, बाहु बल के असर पर बात करेंगे. हर बार की तरह, इस बार भी राजनीति और अपराध के रिश्तों पर, राजनीति के अपराधीकरण या अपराध के राजनीतीकरण की खूब चर्चा हुई. इनके साथ ही ‘जघन्य अपराध’ के आरोपियों को चुनाव लड़ने से रोकने की मांग भी उठी. इसके अलावा चुनाव में धन बल के बढ़ते प्रभाव की चर्चा भी हो रही है. निश्चय ही ये गंभीर समस्याएं हैं, जिनसे भारतीय राजनीति बदनाम और दूषित होती रही है. मगर सवाल यह है कि मतदाताओं को इस बात से कितना फर्क पड़ता है कि प्रत्याशी का अतीत क्या है, उस पर कितने गंभीर अपराधों में लिप्त होने का आरोप है? वह कितना शिक्षित है? वह कितना धनी और चुनाव में कितना कला या सफ़ेद धन खर्च करता है? ऐसे मौके पर कुछ लोग प्रत्याशियों की निम्नतम शैक्षणिक योग्यता तय किये जाने की जरूरत की बात भी करते ही हैं. अब देखें कि इन मुद्दों का व्यवहार में कितना प्रभाव चुनाव नतीजों पर पड़ता है. चुनाव आयोग की पहल और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद प्रत्याशियों पर परचा भरते समय अपनी संपत्ति, शैक्षणिक योग्यता और अपने आपराधिक अतीत का ब्यौरा देने की बाध्यता का प्रावधान लागू हो गया. इससे ‘योग्य’ उम्मीदवारों के चयन के लिहाज से कितना लाभ हुआ? मेरी समझ और जानकारी में एकदम नहीं या बहुत कम. चुनाव खर्च की सीमा का सच : सच तो यह है कि विरल अपवादों (या शायद नहीं ही) को छोड़कर विधानसभा और लोकसभा का चुनाव लड़ने और जीतनेवाला प्रत्येक प्रत्याशी तय सीमा से अधिक खर्च करता है; फिर किसी ‘काबिल’ आदमी से तैयार करा कर तय सीमा के अंदर खर्च का ब्यौरा जमा कर देता है. यह बात हर कोई जानता है. चुनाव आयोग भी. लेकिन आज तक किसी विजयी संसद या विधायक का चुनाव इस आधार पर रद्द हुआ? नहीं. एक अपवाद है. पूर्व व दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी, जब 1975 में इलाहबाद हाईकोर्ट ने एक ‘ऐतिहासिक’ फैसले में ’71 में उनके चयन को रद्द कर दिया था. जाहिर है, वह इंदिरा गाँधी की नहीं, उनके चुनाव प्रबंधकों की ही ‘चूक’ रही होगी. चुनाव खर्च की ऐसी सीमा का कोई औचित्य है, जब उसे कोई मानता ही नहीं और चुनाव आयोग कुछ कर भी नहीं पाता? या तो इसे सख्ती से लागू किया जाये (जो फिलहाल तो लगभग नामुमकिन ही लगता है); या इस पाखण्ड को बंद किया जाये. इससे जुड़ा सवाल यह भी है कि क्या सिर्फ पैसे के बल पर चुनाव जीतने की गारंटी होती है? मेरी समझ से तो नहीं. यह सही है कि आज चुनाव इतना खर्चीला हो गया है कि एक सामान्य व्यक्ति के लिए चुनाव लड़ने के बारे में सोचना भी कठिन हो गया है. इसी कारण संसद और विधानसभाओं में करोड़पतियों की तादाद बढ़ती जा रही है. फिर भी कोई यह दावा नहीं कर सकता कि आम तौर पर लोग सिर्फ पैसे के दम पर चुनाव जीत जाता है या जीत सकता है. हमने बड़े बड़े धनपतियों को चुनाव में पराजित होते देखा है; और तुलना में बहुत कम खर्च करनेवाले को जीतते भी. सत्ता का लाभ भी एक मिथ्या धारणा है : चुनावी लाभ की नीयत से सत्ता का दुरूपयोग का प्रयास तो शासक दल करता ही है, लेकिन सत्ता के बल पर चुनाव जीतना इतना आसान होता, तब तो सत्ता में रहते हुए कोई पार्टी पराजित ही नहीं होती. 1977 में इंदिरा गाँधी, 2004 में भाजपा, लालू प्रसाद, बंगाल में माकपा, फिर 2014 में कांग्रेस की पराजय इसके कुछ प्रत्यक्ष उदहारण हैं. ये दागी दागी क्या है! कुछ ऐसा ही हाल कथित दागी या आपराधिक छवि के नेताओं का भी है. यदि कोई प्रत्याशी अपना ‘दागदार अतीत’ छिपाना भी चाहे, तो क्या सके विरोधी जनता को नहीं बता देंगे, बता नहीं देते हैं? वैसे भी, उस क्षेत्र के कितने मतदाता नेताओं के चरित्र और आपराधिक अतीत से अनभिज्ञ होते हैं; या इस कारण उसे वोट नहीं देते? कोई जाति-बिरादरी के नाम पर, कोई मजहब के नाम पर. तो कोई अपनी पसंद के नेता या दल के नाम पर वोट देता है. जब इस तरह का ध्रुवीकरण हो, तो इससे कितनों को फर्क पड़ता है कि उसकी पसंदीदा पार्टी का प्रत्याशी कौन और कैसा है. पार्टियाँ भी यह बात बखूबी जानती हैं. तभी तो हर चुनाव में ऐसे ‘दागी’ से टिकट पाने में सफल होते हैं; और उनमें से अनेक जीत भी जाते हैं. पिछले चुनावों का रिकार्ड भी यही बताता है कि इस प्रावधान और हमारे चिंता के बावजूद कथित दागी लोग ‘माननीय’ बनते रहे हैं! और सबसे बड़ी बात यह कि मौजूदा कानून के अनुसार महज आरोपी या ‘दागी’ होने के आधार पर किसी को चुनाव लड़ने से रोका नहीं जा सकता. और मेरी समझ से यह सही भी है. ऐसे कथित दागियों को राजनीति में प्रभावी होने से रोकने का सबसे बड़ा उपाय तो यही है कि न्याय प्रक्रिया को चुस्त किया जाये. एक निश्चित अवधि में फैसले हों. किसी पर कितना भी गंभीर आरोप हो, दोषी सिद्ध होने तक वह अभियुक्त ही होता है. सम्भव है, वह अंततः बरी ही हो जाये. ऐसे में दस या बीस साल तक फैसला ही नहीं हो, तो उस व्यक्ति-नेता को सार्वजानिक जीवन में हिस्सा लेने से रोकना सही कैसे हो सकता है. यदि यह सुनिश्चित हो जाये कि अधिकतम छह माह या एक साल में फैसला हो जायेगा, तभी इस तरह की रोक का कोई मतलब होगा. दूसरा और कारगर उपाय यह है कि मतदाता जागरूक हों. लेकिन राजनीतिक दलों से यह उम्मीद तो नहीं ही की जा सकती. उन्हें ‘किसी कीमत पर’ जीत और जीत सकनेवाला उम्मीदवार चाहिए. जब तक ऐसे कथित दागी या बाहुबली अपने समुदय के ‘हीरो’ बने रहेंगे, उनको टिकट भी मिलेगा और उनके जीतने की सम्भावना (या आशंका) भी बनी रहेगी. ऐसे में दिवंगत कवि दुष्यंत की कोई चालीस साल पहले लिखी ये पंक्तियाँ आज भी प्रासंगिक हैं : ‘रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया, इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो…’ और उसी गजल की बार बार दुहराई जाती ये पंक्तियाँ उम्मीद और प्रेरणा भी देती हैं : ‘कौन कहता है कि आकाश में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो.’