जे.पी. ने ‘छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी’ के रूप में एक निर्दलीय और क्रांतिकारी युवा संगठन की बुनियाद डाली थी और यह अपेक्षा की थी कि वह संपूर्ण क्रांति का सशक्त औजार बनेगी ; देश भर के क्रांतिकारी युवाओं का मोर्चा बनाकर संपूर्ण क्रांति की मशाल को आगे बढ़ाती रहेगी। लेकिन आपातकाल के पूर्व विवादों के अंधियारे गर्भ में छटपटाती और आपातकाल में जेल की कालकोठरियों में पली वाहिनी को दूसरी आजादी के दौर में आगे की लड़ाई की खातिर खड़े होने एवं आगे बढ़ने के लिए सीधे जेपी का नेतृत्व या निर्देश नसीब न हुआ। उसे अपने घायल सेनापति का सिर्फ एक संदेश - नसीहतनुमा संदेश और वह भी अंतिम - प्राप्त हुआ। ‘रास्ता’ खोदने का संदेश! उस संदेश का प्रत्यक्ष अर्थ क्या था? निहितार्थ क्या था? क्या अपना भविष्य और भविष्य की क्रांति के लिए वाहनी को खुद चलकर नया रास्ता बनाना था (मेक द रोड बाय वाकिंग)? या ‘हम चलें उधर, रस्ता मिले जिधर’ की धुन पर मरम्मत की खातिर बने-बनाए टूटे-फूटे-अधूरे रास्ते को खोदना था? वाहिनी ने अपने नायक के संदेश के अर्थ-निहितार्थ के संधान के लिए संघर्ष के उसी क्षेत्र को - बोधगया में भूमि संघर्ष – को प्रस्थान बिदु बनाया, जिसे बिहार आंदोलन के दौर में सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व हासिल हुआ था। इसके लिए वाहिनी को घायल सेनापति से आशीर्वाद भी मिला। हालांकि तब तक वाहिनी पर उस विवाद का ‘ग्रहण’ असर दिखाने लगा, जो उसके जन्म के पूर्व से ही शुरू था। कैसा ‘ग्रहण’? इसको समझने के लिए सन् 1974 के एक परिदृश्य का संक्षिप्त उल्लेख मददगार हो सकता है। बिहार आंदोलन के अखिल भारतीय विस्तार पाने के दौर में (1974 के अंत तक) यह तथ्य बिलकुल खांटी सत्य बनकर उभरा कि आंदोलन की मुख्य शक्ति वे 70-75 प्रतिशत युवा हैं, जो किसी राजनीतिक दल या दलीय युवा संगठनों की दायरे में बंधे नहीं हैं। वे उनके नेताओं या दलीय सत्ताकांक्षा से बंधे उनके प्रभाव-क्षेत्रों (कंस्टिच्युएन्सीज) की जद में नहीं गए। आंदोलन की तेज रफ़्तार में शामिल अधिसंख्य स्वतंत्र युवाओं का झुकाव गैरपार्टी संगठनों की ओर भी नहीं दिखा। गैरपार्टी संगठनों के कतिपय नेताओं (जेपी के शब्दों में गुडी-गुडी पीपुल) के पारंपरिक विचार-व्यवहार से कुछ प्रेरित होने के बावजूद जांच-परख के बिना उनके संगठनों की सीमाओं में न बंधने का उनका रुख भी प्रकट था। कुछ नए की तलाश में उनका बेचैन रुख नारों के रूप में मुखर भी होने लगा था। जेपी ने सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान किया तो बिहार आन्दोलन ‘सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन’ के रूप में प्रचारित होने लगा। तब जेपी के सर्वोदयी सहयोगी इसे ‘सर्वोदय’ के पर्याय के रूप में विश्लेषित करने लगे। दूसरी तरफ जेपी के समाजवादी मित्र इसे लोहिया की ‘सप्तक्रांति’ के पर्याय के रूप में प्रचारित करने में लग गए। परिणामस्वरूप ‘बिहार आंदोलन’ के प्रति विभिन्न दृष्टियां अलग-अलग नारों के रूप में व्यक्त होने लगीं। सर्वोदयियों के लिए प्रेरक नारा बना – ‘अंधेरे में तीन प्रकाश - गांधी-विनोबा-जयप्रकाश’। वहीं समाजवादियों के लिए नारा बना – ‘अंधेरे में तीन प्रकाश – गांधी, लोहिया जयप्रकाश’! आन्दोलन के उसी तेज दौर में जब-जब मौका मिला दोनों पक्षों ने जेपी से अपनी-अपनी ‘दृष्टि’ पर सहमति की मोहर भी लगवाई! लेकिन तभी लाखों स्वतंत्र छात्र-युवाओं की तरफ से दो नारे गूंजे – ‘अंधेरे में एक प्रकाश, लोकनायक जयप्रकाश’, ‘संम्पूर्ण क्रांति अब नारा है - भावी इतिहास हमारा है’। सन् 1974 के अक्टूबर महीने में तो ऐसी घटना हुई, जो देश के शांतिमय संघर्षों के इतिहास में बेमिसाल थी। सत्याग्रही गांधी की याद का बल संचित कर अविभाजित बिहार ने तीन दिवसीय ‘महाबंद’ (3 से 5 अक्टूबर) की आयोजाना की। उसमें आम जन ने अपनी बेमिसाल साझेदारी प्रकट की और युवा बिहार के मुख से निकला यह नारा पूरे देश में गूँज उठा – ‘ये तो अभी अंगडाई है, आगे और लड़ाई है।’ ऐसे ही रोमांचक माहौल में जेपी की वाहिनी-कल्पना - नये युवा संगठन के निर्माण की कल्पना - अंगड़ाई लेने लगी! जेपी की वाहिनी-कल्पना की अंगडाई ने स्पष्ट संकेत दिया कि संपूर्ण क्रांति की उभरती नयी तस्वीर के लिए नए फ्रेम की जरूरत है। अब तक के बने-बनाये ‘फ्रेम’ उस तस्वीर के लिए छोटे साबित होंगे। यह बात सिर्फ बिहार आंदोलन में शामिल दलीय और निर्दलीय युवा संगठनों पर नहीं, बल्कि खुद उनके (जेपी के) द्वारा समय-समय पर गठित पुराने सक्रिय-निष्क्रिय संस्था-संगठनों पर भी लागू होती है। अगर इन फ्रेमों में संपूर्ण क्रांति की तस्वीर फिट करनी है, तो तस्वीर को काटना-छांटना होगा। किसी फ्रेम में फिट करने के लिए तस्वीर को छोटा करना तो जेपी को कभी मान्य नहीं रहा! उस समय भी नहीं, जब वे किसी संघर्ष में उतरे, अपने नेतृत्व में उसका बना-बनाया फ्रेम लेकर चले। फ्रेम की ज्ञात सीमाओं के दवाब के बीच भी उन्होंने संघर्ष की पूर्ण वृहद् छवि उकेरने में कोई कोताही नहीं की, भीषण खतरे के रू-ब-रू होने के बावजूद कोई समझौता करने से इनकार किया। अगर तस्वीर फ्रेम का अतिक्रमण करती है, तो करे। फ्रेम टूटता है, तो टूटे। उन्होंने हर नयी तस्वीर के लिए नया फ्रेम गढ़ने की पहलकदमी की, यह जानते हुए कि भविष्य में वह फ्रेम भी टूटेगा। बहरहाल, नए संगठन के निर्माण की प्रक्रिया पर बिहार आंदोलन में शामिल तमाम निर्दलीय खेमों में ऐसी बहस चली कि असंख्य युवाओं को ‘जेपी’ की दिशा में एक साथ आजाद उड़ान भरने के अपने सपने पर ग्रहण लगता नजर आने लगा। सवाल दोमुंहा था - आंदोलन में शामिल जेपी समर्थित और जेपी प्रेरित निर्दलीय युवा संगठन पहले अपने अस्तित्व को खुद समाप्त करें और नए संगठन का नए सिरे से निर्माण का रास्ता प्रशस्त करें या कि जेपी पहले संगठन के नए नाम की घोषणा कर दें और विभिन्न युवा संगठनों को अपने दल-बल के साथ उसमें शामिल होने का फैसला करने को स्वतंत्र छोड़ दें? नतीजा? बहस की सुई जहां अटकी वहाँ से राम-राम की जगह मरा-मरा गूंजने लगा - राजनीति दलों में अपने वर्चस्व के लिए खुले आम चलने वाले ‘सत्ता के संघर्ष’ के शोर की तरह ही, जेपी के प्रभाव से निरंतर विस्तार पाते ‘संघर्ष की सत्ता’ पर वर्चस्व के लिए निर्दलीय खेमों की उठापटक की आवाज उठने लगी! अंततः हुआ क्या? बहस किस निर्णय पर पहुंची? वे असंख्य युवा कहां गए? एक साथ आजाद उड़ान भरने के उनके सपने का क्या हुआ? ऐसे कितने ही सवाल इमरजेंसी के बोझ के नीचे दब गए! दूसरी आजादी आयी, तो उनमें से कई सवाल मृत निकले। कुछ पिस कर और कुछ घिस कर बेमानी हो गए! वैसे, इस निर्मम वास्तविकता के बीच ही बोधगया भूमि संघर्ष ने सिर्फ दस साल (79-89) में एक अलग और नया ‘इतिहास’ रचा। गत 25-27 साल में बोधगया संघर्ष की सफलता और विफलता का वह इतिहास इतना पुराना नहीं हो गया कि उसे ‘भूली-बिसरी याद’ के खाने में डाल दिया जाए ; या देशभर में जल-जंगल-जमीन से जुड़े संघर्षों के लिए उसे ‘कसौटी’ के रूप में बरतने के विचार या पहल को बेमानी करार दिया जाए। लेकिन देश भर में फैले कितने ‘जेपी के लोगों’ के लिए बोधगया भूमि-संघर्ष का इतिहास जेपी की क्रांति-कल्पना की ‘उत्तरगाथा’ के तौर पर मान्य है? यह सवाल सिर्फ सत्ता-राजानीति से जुड़े पक्ष-विपक्ष के उन प्रभुओं के लिए नहीं, जो जनता की नजर में अपनी राजनीति की ‘वैधता’ को स्थापित रखने के लिए खुद को जेपी के नेतृत्व में चले आंदोलन की उपज बताते हैं! यह सवाल विशेषतः विभिन्न खेमों में बंटे उन ‘निर्दलीय’ संस्था-संगठनों के ‘प्रभुओं’ के लिए है, जिन्हें सत्ता-राजनीति से जुड़े प्रभु ‘जेपी’ के स्वयं-सिद्ध उत्तराधिकारी मानते हैं। क्या उनके लिए बोधगया संघर्ष का ज़िंदा ‘इतिहास’ बिहार आंदोलन की गैर-पार्टी राजनीति का सशक्त आगाज या जेपी की क्रांति-कल्पना के अनुसार ‘चल कर राह बनाने की ईमानदार कोशिश का प्रमाण बना? जहां तक वाहिनी नाम से अपनी पहचान की चमक कायम रखने में व्यस्त या लस्त-पस्त हजारों ‘जेपी के लोगों’ का सवाल है, वे अपने-अपने संघर्षों में सक्रिय हैं, वे अपने संघर्ष को संपूर्ण क्रांति की कड़ी होने का दम भी भरते हैं, लेकिन उन संघर्षों को एक सूत्र में पिरोने वाले धागे जैसे ज्ञान-कौशल से वंचित दिखते हैं। इसके कई कारण होंगे, हो सकते हैं। कुछ उनकी पहचान से जुड़े सवाल हैं, जो ‘महाभारत’ कालीन कई पात्रों की याद दिलाते हैं। जैसे, क्या वाहिनी अभिमन्युओं की जमात जैसी बने रहने को अभिशप्त है, जो गर्भ में रहते किसी भी चक्रव्यूह में घुसने का ज्ञान हासिल कर चुकता है, लेकिन उसे भेद कर सलामत निकलना नहीं जानता? वाहिनी में कई लोग गुरु द्रोण से शिक्षा प्राप्त ‘अर्जुन’ जैसे हैं, लेकिन वे अपने जैसे उन एकलव्यों से कैसे संपर्क-संवाद साधें, जो गुरु द्रोण के दीक्षा-दंड से घायल हैं?