झारखंड के गठन के बाद से अब तक सत्ता में बैठी पार्टी हो या सत्ता से बाहर के राजनीतिक दल, सब के सब बंदूक की जोर पर झारखंड का विकास चाहते हैं. बाबूलाल के जमाने में तपकारा गोलीकांड होता है, तो शिबू सोरेन के मुख्यमंत्रीत्व काल में काठीकुंड गोली कांड और रघुवर दास के मुख्यमंत्रित्व काल में बड़कागांव में गोली चलती है. आखिर यह विकास है क्या बला? जिसके लिए सत्ता इतनी बेचैन रहती है और उसी जनता पर गोली चलाने पर अमादा जिसके लिए कथित रूप से वह विकास लाना चाहती है? आईये, इस गोरख धंधे को समझे. झारखंड सरकार का वार्षिक बजट अब लगभग 75000 करोड़ का हो गया है. जिस राज्य की सरकार का वार्षिक बजट 75 हजार करोड़ का हो, वह राज्य के तथाकथित विकास के लिए बाहरी निवेश पर क्यों निर्भर रहती है? दरअसल, मामला यह कि बजट का बड़ा हिस्सा तो उन मंत्रियों, संतरियों, अफसरों, कर्मचारियों के वेतन, ग्रैच्यूटी, पेंशन, महंगाई भत्ता, यात्रा और चिकित्सा भत्ता आदि पर खर्च हो जाता हैं जो दरअसल जनता के सेवक हैं, लेकिन जिनका काम जनता पर ही रोब गांठना, उन पर डंडे भांजना और अपने आकाओं को खुश करने के लिए गोली चलाना रहता है. और बजट की बची खुची 35-40 फीसदी राशि से विकास की योजनाएं तो बनती और चलती हैं, लेकिन उसका भी बड़ा हिस्सा कमीशनखोरी में चला जाता है. इसलिए एक भारी भरकम लुंज-पुंज व्यवस्था चलती रहती है लेकिन हालात ज्यों के त्यों बने रहते हैं. दूसरी तरफ, बजट का बड़ा हिस्सा खा, पी और डकार कर भी प्रभु वर्ग का पेट नहीं भरता. इसलिए झारखंड सरकार और उसका हर मुख्यमंत्री अपने कुनबे सहित राज्य की परिसंपत्ति, खनिज संपदा, जमीन, जंगल, पानी को बेचने के प्रपंच में लग जाता है. और इसके लिए तथाकथित विकास का मोहक जाल बुनता है. वह रोजगार और तरक्की का सब्जबाग तो दिखाता ही है, लेकिन साथ ही जनता से निबटने के लिए हर उपाय भी करता है. अखबारों को विज्ञापनों से पाट देता है, राजधानी को पुलिस छावनी में बदल देता है, चप्पे-चप्पे पर पुलिस बल की तैनाती करता है और फिर कृत्रिम रौशनी में अपने कुनबे के साथ जश्न मनाता है. जादुई नीली-पीली रौशनी और फूलों से सजे सभागार में निर्ममता से लूट पाट की प्रक्रिया शुरु होती है और उसे ‘मेमोरेंडम आॅफ अंडरस्टैंडिंग’ कहा जाता है. वहां भी चालाकी यह की जाती है कि असली मुद्दे को छोटे बड़े अन्य मुद्दों के साथ मिला कर पेश किया जाता है. मसलन, बातें तो स्वास्थ, उच्च शिक्षा, आईटी, सीमेंट, खाद्य प्रसंस्करण आदि की भी हो रही है, लेकिन असल मामला है इस्पात, माईनिंग, आधारभूत संरचना और उर्जा का और कारपोरेट जगत के असली खिलाड़ी उसी के लिए यहां आये हैं, चाहे वे बिड़ला हों, टाटा हों, अदानी या रुईया. सबसे अधिक निवेश इसी क्षेत्र में होना है और सबसे ज्यादा जमीन, जंगल, पहाड़ की लूट इसी में. यही लूट का सबसे बड़ा क्षेत्र है. कोयले के खदान हों या लौह अयस्कों के, कारपोरेट जगत एक तरह से माले मुफ्त माल निकाल ले जाने का अभ्यस्त रहा है. 100-50 रुपये प्रति टन का राजस्व देकर. और इसी क्षेत्र के लिए सबसे अधिक जमीन की भी दरकार है. वह भी कौड़ियों के मोल. बदले में राजनेताओं की पुश्तंे संवर जाती हैं और इसीलिए भू कानून में संशोधन किये जाते हैं, श्रम कानूनों को खोखला किया जाता है और जनता द्वारा चुनी लोकतांत्रिक सरकारों की पुलिस व सुरक्षा बल कारपोरेट के लठैतों की तरह काम करने लगते हैं. यहां एक सवाल बहुतों के जेहन को मथता है कि आदिवासी इलाकों में ही यह टकराव तीव्र क्यों है? वजह यह कि आदिवासी समाज प्रकृति के साहचर्य में रहता है और लालची नहीं. इसलिए वहां की प्राकृतिक संपदा बची हुई है. साथ ही वह अब भी अपनी जमीन से बंधा हुआ है. वह जीवन के संसाधन पर अपने नैसर्गिक अधिकार के लिए सदियों से संघर्ष करता रहा है. जबकि देश के अधिकतर लोग अब खेती बाड़ी से मुक्त हो रहे हैं या वाणिज्यिक खेती करने लगे हैं, वहीं, आदिवासी समाज के लिए खेती एक जीवनचर्या है, जीवन जीने की एक शैली. आंध्र प्रदेश में नई राजधानी के लिए कृष्णा नदी के किनारे के विशाल भूखंड को वहां की जनता ने बिना किसी विशेष प्रतिरोध के सरकार को सौंप दिया, लेकिन आदिवासी जनता जीवन के मूलभूत संसाधनों को आसानी से खोने के लिए तैयार नहीं. सबसे बड़ा गड़बड़ झाला यह कि सरकार इस तथ्य को खुल कर नहीं बताती कि कारपोरेट घरानों को जमीन कितनी चाहिए. वह इस बात का ढ़िढोरा तो पीटती है कि तीन लाख करोड़ से भी अधिक का निवेश तो हो रहा है, लेकिन रोजगार सृजन कितना होगा, इसके बारे में उसके प्रवक्ता कभी खुल कर नहीं बोलेंगे. उनकी चाकर मीडिया हवा बांधेगी. मसलन, ‘प्रभातखबर’ का हेडलाईन में कहना है कि छह लाख लोगों से भी अधिक को रोजगार मिलेगा. फिर वही अखबार छोटे अक्षरों उसी खबर में कहता है कि 54 हजार से अधिक लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार मिलेगा. यानी, श्रेणियां प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष की रहेंगी. कोई यह स्पष्ट नहीं बतायेगा कि नियमित कितने रोजगार का सृजन होगा. उदाहरण के लिए बोकारो स्टील कारखाना में शुरुआती दौर में 52 हजार लोगों को नियमित रोजगार, यानी, स्थाई नौकरी मिली थी. जबकि बोकारो कारखाना महज चार मिलियन टन उत्पादन क्षमता का कारखाना बना था. अब जब जिंदल, मित्तल, टाटा आदि मिल कर बीस मिलियन टन क्षमता से भी अधिक का कारखाना लगाने जा रहे हैं, तो कितने लोगों को स्थाई नौकरी देने वाले हैं? इसका ठोस जवाब नहीं. क्योंकि अब स्थाई नौकरी देने का सवाल ही नहीं रहा. ऐसी नौकरी तो मुट्ठी भर बाबुओं और अभियंताओं को मिलेगा, इसके अलावा तो बस ठेका श्रमिकों से काम चलाना है. इसीलिए तो श्रम कानूनों को लगभग खत्म कर दिया गया है. पर्यावरण सुरक्षा के लिए बनाये गये तमाम प्रावधानों को ढीला कर दिया गया है और सरकार लाल कारपेट बिछा कर निवेशकों के स्वागत में बैठ गई है. इसे ही तो ‘निवेश के अनुकूल वातावरण बनाना’ कहते हैं. यानी, निवेशक पूंजी लगायेगा और बदले में उसे कौड़ियों के मोल चाहिये जमीन, मिट्टी के मोल चाहिये खनिज संपदा और मानव श्रम. इन्हीं के बलबूते हमारे देश के चंद कारपोरेट दुनियां के अमीरों के टाप लिस्ट में शामिल होंगे और झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों को मिलेगा विस्थापन का दंश, विकसित शहरों के हाशिये पर जन्म लेने वाले झोपड़ पट्टियों का नारकीय जीवन, नदियों, कूपों का गंदला पानी. और चूंकि आदिवासी जनता आजादी के बाद हुए इस विकास के मर्म को समझ चुकी है, इसलिए वह अपने अस्तित्व के निर्णायक संघर्ष के लिए हर जगह उठ खड़ी हुई है. इस तरह शुरु होती है कभी न खत्म होने वाली तथाकथित विकास की कहानी. कभी तपकारा में, कभी इचा में, कभी नेतरहाट में, कभी कोल्हान में, कभी कलिंगनगर में, कभी पोस्कों में और कभी नियमगिरि में. वह भी बंदूक की नोक पर.