यह एक सालाना उत्सव बन गया है. प्रेम का और प्रेम के विरोध का भी. 14 फरवरी, यानी वेलेंटाइन डे के करीब आते ही एक तो बाजार युवाओं को उकसाने लगता है, अखबारों, पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर प्रेम की महत्ता, प्रेम के किस्सों की चर्चा शुरू हो जाती है; दूसरी ओर इसे ‘विदेशी’ और ‘बाजारू’ बता कर भारत में प्रेम पर्व, मदनोत्सव-होली आदि की पुरानी परंपरा का बखान करते हुए राधा-कृष्ण, मीरा की दीवानगी और हीर-राँझा आदि की बात होने लगती है. यही नहीं, युवाओं को इस आयोजन से विरत करने के लिए 14 फरवरी से भगत सिंह की फंसी का रिश्ता जोड़ने और उसी दिन माता-पिता के पूजन का आयोजन भी होने लगता है. इसके आलावा कुछ संस्कृति-रक्षक डंडे लेकर युवा जोड़ों को खदेड़ने निकल पड़ते हैं, सरेआम उनके साथ बदसलूकी की जाती है. बहाना यह कि ये सार्वजनिक स्थल पर आपत्तिजनक वर्ताव कर रहे थे! करते होंगे कुछ जोड़े ऐसा भी, पर यह तो रोज का सीन है- आप कभी भी शहर के किसी पार्क में जाकर देख लें. और जब तर्क यह है कि ‘प्रेम का कोई एक दिन कैसे हो सकता है’, तो सिर्फ़ एक दिन ऐसे प्रेमी जोड़ों को खदेड़ने का ही क्या तुक है? उसी दिन माता-पिता की पूजा करने का क्या मतलब है, सिवाय इसके कि वेलेंटाइन डे को किसी तरह एक घटिया और भारतीय संस्कृति विरोधी आयोजन सिद्ध किया जाये. अब देखें कि अपने देश में युवाओं को परस्पर प्रेम के इजहार के कितने अवसर रहे हैं और आज हैं. सच तो यह है कि यहां अपनी पसंद और मर्जी से जीवनसाथी चुनने की ही आजादी नहीं है. अन्य जाति या धर्म की छोडिये, अपनी जाति में ही नहीं. यहां विवाह दो वयस्क युवाओं के रिश्ते की सामाजिक स्वीकृति नहीं, दो परिवारों या कुटुम्बों के बीच संबंध का अवसर है. इसमें कुछ गलत भी नहीं है. मगर परंपरा और संस्कार का दबाव या उस कारण अनुकूलन ऐसा है कि वे इंतजार करते हैं कि अभिवावक उनके लिए जोड़ा तलाश कर देंगे. वे भरोसा भी करते हैं. अपवादस्वरूप ही कुछ युवा इससे बाहर निकल पाते हैं. और जो निकलते हैं, उनकी राह में हजार बाधाएं खडी की जाती हैं. खास कर तब, जब इस तरह के संबंध बिरादरी से बाहर बन गये हों. ऐसे मामले में लड़की के परिजनों की कथित प्रतिष्ठा तो इस कदर आहत होती है कि उनमें से कुछ अपनी बेटी और बहन की जान तक लेने से नहीं हिचकते. उसके प्रेमी की हत्या तो आम बात है. कमाल कि इस ‘प्रतिष्ठा हनन’ के कारण शायद ही कोई परिवार अपने लड़के की जान लेता है. उनका एक बड़ा ‘कष्ट’ दहेज़ का नुकसान होता है. यह ‘प्रेम’ के निषेध के साथ ही इस मामले में लैंगिक भेदभाव का भी उदहारण और प्रमाण है. और लोग कहते हैं कि भारत में प्रेम को पवित्र माना जाता है, कि इसे उत्सव के रूप में मनाया जाता है! ध्यान रहे कि माँ-बाप जब अपनी पसंद अपनी संतानों पर थोपते हैं, इसके लिए बल प्रयोग करते हैं, तो यह वयस्क युवाओं के मानवाधिकार और संविधान के खिलाफ कर्म भी होता है. लेकिन इस ‘प्रेममय’ देश और समाज में इस पर लगभग सहमति है कि यह महान परंपरा किसी कीमत पर कायम रहनी चाहिए! पुलिस, प्रशासन और अदालत तक युवाओं के इस दुस्साहस को नापसंद करते हैं और उन्हें भरसक हतोत्साहित करने का प्रयास किया जाता है. और लोग कहते हैं- हमारे यहां प्रेम पर कोई पाबंदी नहीं है! यहां प्रेम के ‘आध्यात्मिक’ स्वरूप की बात नहीं हो रही. भक्त और भगवान; माँ-पिता और संतान, भाई-बहन; या देश और समाज से प्रेम की बात नहीं हो रही. इस तरह के प्रेम के बिना तो किसी समाज और परिवार की कल्पना भी नहीं की जा सकती. यहां बात विशुद्ध रूप से दो वयस्क विपरीत लिंगियों के बीच के बीच के प्राकृतिक आकर्षण और प्रेम की हो रही है, जिसमें ‘काम’ (सेक्स) है, जो दैहिक है. मांसल है. और इसमें गलत या अनैतिक क्या है? क्या इस दैहिक/ मांसल संबंध के बिना सृष्टि या संतति की निरंतरता की कल्पना की जा सकती है? हमारे यहाँ तो ‘कामदेव’ और ‘रति’ की कल्पना की गयी है. ‘श्रृंगार’ को एक प्रमुख ‘रस’ और कला माना गया है. शिव के ‘लिंग’ रूप की पूजा होती है. शिव की पत्नी ‘सती’ के शव कटे हुए अंग जहाँ गिरे, वहां ‘शक्तिपीठ’ बन गये; और उन अंगों में जननांग भी हैं. कथा है कि शिव अपनी तपस्या तोड़ कर देवी पार्वती से विवाह और ‘संसर्ग’ करें, इसके लिए देवतागण नाना उपाय करते हैं. शिव इस क्रम में कामदेव को शिव भष्म कर देते हैं, लेकिन फिर आशीर्वाद भी देते हैं कि वह ‘अनंग’ होकर हर मानव के शरीर और मन में रहेगा. और हम ‘काम’ को ही ‘पाप’ और गंदा मानने लगे! हालांकि व्यवहार में हम औसत भारतीय चोरी छुपे वह सब करते हैं और खूब करते हैं, प्रकट में जिस पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं. खजुराहो और कोणार्क में बाप अपने बेटे-बेटी से नजर बचा कर; और बेटे-बेटी माँ-बाप की नजर बचा कर वह सब देखते हैं. और मर्दों ने तो अपनी यौनेक्षा पूर्ति या ऐयाशी के लिए ‘देह की मंडी’ ही सजा रखी है, जहां प्रेम नहीं, सिर्फ वासना का खेल और सौदा होता है. फिर भी हम ‘संस्कारी’ हैं! विवाह से इतर और विवाह से पहले ऐसे रिश्ते बनाने पर पुरुष की प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आती. सारा निषेध और सारा लांक्षण स्त्रियों के लिए. बेशक सार्वजनिक स्थलों पर अश्लील या कामुक हरकत गलत है. यह तो क़ानूनन भी गलत है. पुलिस प्रशासन का दायित्व है कि ऐसा करनेवालों पर कार्रवाई करे. हालाँकि अश्लीलता और आपत्तिजनक व्यवहार की परिभाषा में मतभेद की गुंजाइश भी रहती है और रहेगी. यह समाज और समय सापेक्ष ही होती है. फिर भी इस पर बलपूर्वक रोक का अधिकार संस्कृति के स्वयंभू रक्षकों को तो नहीं ही दिया जा सकता. हमारी संस्कृति इतनी नाजुक भी नहीं है कि एक दिन कुछ लोगों के ऐसे व्यवहार से वह नष्ट या भ्रष्ट हो जाएगी. और ऊपर भी कहा कि ऐसी हरकतें आये दिन देखने को मिलती हैं, जो अन्य कारणों के अलावा अतिशय पाबंदियों का भी नतीजा है. बहरहाल, प्रेम की बात होते ही झट कृष्ण का, राधा और कृष्ण के प्रेम का और कृष्ण के प्रति मीरा के महान प्रेम का उदहारण दिया जाता है. मगर जरा कल्पना कर लीजिये, आज कोई युवक श्रीकृष्ण जैसा व्यवहार करने लगे, तो उसकी क्या गति होगी, होती है. या कोई विवाहित युवती राधा की तरह किसी और से रिश्ता बनाती है, तो क्या होता है, यह कोई रहस्य नहीं है. जिन्हें राधा-कृष्ण के प्रेम में सिर्फ आध्यात्म नजर आता है, वे जरा जयदेव को पढ़ लें. राधा और कृष्ण की उम्र तब क्या थी, यह जिक्र भी बेमानी है. मूल बात यह है कि आम जन और भक्तों के मन में भी उनके संबंधों के प्रति क्या धारणा है? और मीरा के बारे में तथ्य या धारणा यह है कि उनका विवाह उनकी मर्जी के विरुद्ध एक उम्रदराज व्यक्ति से कर दी गयी थी. और एक धारणा यह भी है कि श्रीकृष्ण के प्रति उनकी भक्ति या उनका प्रेम भी समाज की उस व्यवस्था के प्रति एक प्रकार का विद्रोह भी था. और अंततः मीरा को भी विष का प्याला पीना पड़ा था. सच यह है कि स्त्री-पुरुष का रोमांटिक या दैहिक प्रेम हमें पसंद तो है, मगर सिर्फ किस्से-कहानियों में, उपन्यासों और फिल्मों में. वास्तविक जीवन में इस प्रेम के लिए कोई स्थान नहीं है. हालाँकि हमारा कोई पारिवारिक समारोह अब फ़िल्मी आइटम गानों के द्विअर्थी भी नहीं, अब तो खुल्लमखुल्ला कामुक- उत्तेजक बोलों और मुद्राओं पर बड़े-छोटों के कमर मटकाए बिना पूरा नहीं होता. मगर चरित्र और नैतिकता पर उपदेश देने में हम कभी पीछे नहीं रहते. कुछ दिन बाद होली है, जिसे हम प्रेम का पर्व और ‘मदनोत्सव’ भी कहते-मानते हैं. क्या सचमुच? काश कि होली के पक्ष में किये जानेवाले सकारात्मक दावे पूरी तरह सच होते. काश कि जातियों, वर्गों और लैंगिक दृष्टि गैरबराबरी में बंटा हमारा समाज कम से एक दिन समानता में जी पाता. एक तो यह लगभग मर्दवादी त्यौहार है. सिनेमा और टीवी सीरियलों की रंगीन होली को भूल जाइये. जरा होली के दिन के अपने आसपास के माहौल को याद कीजिये. कितनी लडकियां या महिलाएं सड़कों पर नजर आती हैं? अपने मोहल्ले में वे भले ही झुण्ड में घूम लें, पर मजाल है कि शहर की मुख्य सड़कों पर या बाजार में निकल जाएँ. और कुछ ने यह दुस्साहस कर भी दिया, तो उन्हें क्या और किस हद तक भुगतना पड़ सकता है, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है. और उस दुर्गति और अपमान के लिए भी उन्हें ही जवाबदेह ठहराया जायेगा- किसने कहा था कि होली के दिन सड़क पर निकलो! जरा होली के मौके पर गाये जाने और बजने वाले गीतों को याद कर लें. सारी कथित मर्यादा की धज्जी उडाते और स्त्री-पुरुष के बीच के नैसर्गिक संबंधों को फूहड़ ढंग से उजागर करते होली के अनेक गीतों में क्या मर्दों के अंदर छिपी कामुक और मूलतः स्त्री विरोधी मानसिकता का प्रदर्शन नहीं होता? ‘..भर फागुन बुढाऊ देवर लगिहैं…’ यह कथन लगता तो किसी स्त्री का है, लेकिन दरअसल यह मर्दों का ऐलान है, जो अपने लिए तो सारी छूट चाहता है, पर उसमें स्त्री की इच्छा के प्रति कोई सम्मान नहीं है. महिला या अविवाहित युवती के लिए तो बस अपने देवर या जीजा के साथ कुछ ठिठोली या थोडा-बहुत स्पर्श-सुख लेने भर की छूट है; मगर मर्द किसी उम्र का हो, खुद को हर युवती या किशोरी का देवर बन कर कुछ भी कर गुजरने का अधिकार रखता है! कुछ लोग इसे ‘वेलेंटाइन डे’ का भारतीय रूप या विकल्प भी कह देते हैं. मगर स्त्री-पुरुष के बीच का यह सर्वव्यापी, सहज और दुर्निवार आकर्षण यदि प्रकृति का नियोजन है, तो यह एकतरफा कैसे हो सकता है? मगर लिंग-योनि की पूजा करनेवाला यह देश, ‘कामसूत्र’ के रचयिता का यह देश, पवित्र मंदिरों की दीवारों पर -प्राचीन गुफाओं में उत्कीर्ण मिथुन मूर्तियों का यह देश, ‘काम’ को जीवन का आवश्यक कर्म माननेवाला यह देश, कालांतर में स्त्री विरोधी होता गया. काम या सेक्स मानो वर्जित शब्द हो गये. स्त्री-पुरुष संबंधों पर धर्म, नैतिकता और परंपरा के नाम पर तरह तरह का अवरोध लगा दिये गये. नतीजतन हम एक पाखंड में जीने लगे, एक पाखंडी समाज बन गये. ऐसे में होली कैसे बचती. यह कोई होली का दोष नहीं है. यह समाज के स्त्री विरोधी चरित्र का लक्षण और प्रमाण है. फिर भी इसे प्रेम का उत्सव कहा जाता है, तो क्या कहा जाये! ऐसा भी नहीं है कि वेलेंटाइन डे को उत्सव की तरह मनानेवाले सभी युवा सचमुच प्रेम से सराबोर होते हैं; या नर-नारी समता के मूल्य को अपना चुके होते हैं. वह तो विपरीत लिंगियों का सहज स्वाभाव और व्यवहार है, जो हमेशा मौके की तलाश में रहते हैं. दरअसल वर्जनाओं में जकड़ा हमारा देश और समाज एक बीमार और कुंठित समाज हो गया है. वेलेंटाइन डे के अवसर पर यही कुंठा उबाल पर होती है. गनीमत है कि अब लड़कियां भी पढने और नौकरी के लिए घर से निकलने लगी हैं, घर से दूर रहने लगी हैं. नतीजा- ऐसी पाबंदियां टूटने लगी हैं, जाति-धर्म का घेरा टूटने लगा है. धीरे-धीरे बहुतेरे परिवार ऐसे रिश्तों को स्वीकार भी करने लगे है. एक तरफ विरोध हो रहा है, दूसरी ओर अधिक से अधिक युवा विरोध की अनदेखी कर अपनी इच्छा से दोस्ती कर रहे हैं. अंतरजातीय और अंतर्धार्मिक विवाह भी हो रहे हैं. इस बदलाव को रोकना न तो संभव है, न ही उचित. वेलेंटाइन डे का चलन न भी होता तो भी यही होता. किसी धर्म, परंपरा और संस्कृति की दुहाई देकर इसका विरोध बेमानी है. यहाँ जो कुछ कहा गया, उसके पीछे मंशा बेहूदगी और कामुकता के सार्वजनिक प्रदर्शन का समर्थन नहीं है, मानव (खास कर युवाओं) के एक सहज स्वभाव और व्यवहार को निंदनीय और अपराध मानने के पीछे के कुतर्कों को स्पष्ट करना है. मानव निर्मित संकीर्ण सामाजिक घेरों को तोड़ने की जरूरत पर बल देना है, जो एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए भी आवश्यक है.