आजकल पुरुषवाद की एक नयी लहर चली है. लोगों को यह लगने लगा है कि लड़कियां इतनी स्वतंत्र और सक्षम बन चुकीं कि नारीवाद महज दिखावा रह गया है. बल्कि अब तो पुरुष ही पीड़ित हैं, इसीलिए उन्हें संगठन बनाने की ज़रूरत है. खासकर रियो ओलिंपिक में सिंधु और साक्षी के पदक जीतने, दीपा के जिम्नास्टिक इवेंट में चौथे नंबर पर रहने और ललिता बाबर के ट्रैक इवेंट में फाइनल में पहुँचने के बाद इस तरह के मज़ाक आम हो गए कि अब देश में पुरुष सशक्तिकरण की ज़रुरत है. ज़ाहिर है यह एक मज़ाक है. 50 करोड़ में से 4 लड़कियों का ओलिंपिक में कमाल करना अलग बात है और उसका उस जमीनी सच्चाई से कोई लेना देना नहीं जिससे देश की लड़कियां रूबरू हैं. और जहां तक पत्नी पीड़ित पतियों की बात है, पुरुष पीड़ित हैं पत्नियों के नावजागृत आत्मसम्मान से, कि वो अब हर बात सुन नहीं लेतीं जवाब भी देती हैं, कि अब वो अपेक्षा करती हैं कि उनके काम में भी हाथ बटाया जाये, कि अब वो बताती चलती हैं कि उनके भी अधिकार हैं. लेकिन यह भी कितनी?
शहरों में रहने वाले और पढ़ा लिखा और समझदार होने का भ्रम पाले हुए लोग भी यही मानते हैं कि बेटी के जन्म पर खुश होने, उन्हें बराबरी से पालने, पढ़ाने और कैरियर बनाने का मौका देने भर से समाज में गैरबराबरी ख़त्म हो गयी. मगर हर ऐसे घर में लड़कों की उदंडता बर्दाश्त करते हुए भी लड़कियों से संस्कारशील होने की अपेक्षा नहीं पाली जाती है? बेटों को खुली छूट देने वाले लोग बेटियों को स्कूल ट्यूशन और कोचिंग तक पहुंचाते लाते हैं या नहीं, क्या इसके पीछे मंशा केवल पढाई का नुकसान न होने की होती है? लड़के की बाहर नौकरी लगती है तो वो अपने दोस्तों के साथ मिलकर रह लेता है, जब बात बेटी की हो तो अकसर उसकी मदद करने और अकेलापन दूर करने के लिए साथ जाया और रहा जाता है. क्योंकि आज भी यही मान्यता है कि लड़की अकेली नहीं रह सकती. प्रेम विवाह का प्रतिशत चाहे जितना भी बढ़ गया हो, आज भी लड़के की तुलना में लड़की के इस फैसले पर ज़्यादा हायतौबा क्यों मचती है?
और सबसे बड़ी है शादीशुदा औरत की ग़ुलामी. कुछ दिन पहले Ariel के share the load वाले विज्ञापन की बड़ी तारीफ़ हुई, मगर किसी ने सोचा कि आज, 21वीं सदी में, जब लड़कियां हर क्षेत्र में सफलता के झंडे गाड़ रही हैं, इस विज्ञापन की क्या प्रासंगिकता है. और इसके बाद भी कितने घरों में load शेयर किये गए? चाहे philips air frier का हो चाहे everyday instant tea mix का, हर जगह यही नज़र आता है कि बराबर से दिखने वाले युवा जोड़ों में भी रसोई लड़की की ही है, अधिकार क्षेत्र नहीं, कर्तव्य क्षेत्र. बाकी विज्ञापनों की तो बात ही छोड़िये जिनमे सारे घर के काम औरत कर ही रही है, चमेली कपड़ा घिसती है तो कामकाजी औरतें भी घर में खाना क्या बनाना है इस चिंता में व्यस्त हैं. माधुरी दीक्षित हो कि करिश्मा कपूर, विज्ञापनों में सभी की नियति रसोई ही है. मगर मुझे अपने आस पास यही नज़र आता है कि privilege छोड़िये, औरत अगर नौकरीपेशा है तो उसपर काम का बोझ ज़्यादा है. 4 बजे उठ कर भी वही खाना बनाएगी. रसोई की गुलामी को लोहिया ने 60 साल पहले औरत की सबसे बड़ी गुलामी बताया था. आज भी अगर हालत वही है तो खुद सोच देखिये कि नारीवाद दिखावा है या ज़रूरत. आज़ादी का अर्थ तभी स्पष्ट होगा जब हम गुलामी का अर्थ समझेंगे, उसके विभिन्न आयाम समझेंगे, इस गुलामी ने, जो हमें दिखती नहीं, बहुत गहराई तक हमें जकड़ा हुआ है, और इतने लंबे समय से कि इसका कोई अलग से एहसास भी नहीं होता है.