हमारा समाज जो महिला पुरुष दोनों से मिलकर बना है, जहाँ किसी एक के अस्तित्व के बिना समाज की
कल्पना भी नहीं की जा सकती हैं, ऐसे में महिलाओ को आज भी अपने अस्तित्व के लिये बड़ी जद्दोजहद़
करनी पड़ती है.
“महिला दिवस” लगता है जैसे हम महिलाये कोई असमान्य प्राणी है, असहाय , लाचार जिसके लिये एक
विशेष दिन नियुक्त कर दिया गया हो. वैसे हो भी क्यों ना? स्त्री पुरुष दो अलग अलग शब्दों में इतना
भेदभाव ही किया जाता है. क्यों दोनों को बस एक व्यक्ति की नजर से देखा नहीं जाता?
एक स्त्री जो जननी है, उसको हेय दृष्टि से देखा जाता है. उच्च सम्मान की तो बात ही ना करें, बराबरी का
दर्जा भी नहीं देते. और उसकी मुख्य वजह है सिर्फ तुच्छ मानसिकता .सुधार की अपेक्षा औरों से नहीं स्वयं
अपने अपने घरों से करनी पड़ेगी.
कन्याभ्रूण हत्या को रोक, कन्याजन्म को बढ़ाना, उनके जन्म पर भी पुत्र के होने जैसी खुशियां मनायें.
शिक्षा, खाना पीना सब में समानता.
घरकी जिम्मेदारी जहाँ एक ओर पूरी तरह से बेटियों की समझी जाती है. बचपन से उसे गृह कार्य सिखाने
पर जोर दिया जाता हैं. वैसे हमें इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती पर क्या लड़कों को ये सारे काम करने
नहीं आने चाहिये?
परिस्थितियां जरूर बदली हैं लेकिन पुरुषवादी समाज की सोच नहीं. आधुनिक सोच के नाम पर एक
पति, जॉब करती पत्नी तो चाहता है पर इसमें भी उसने पत्नी के ऊपर एक जिम्मेदारी ही बड़ा दी, सहयोग
देने में अभी भी हिचकिचाते हैं. ऑफ़िस व घर दोनों महिला के जिम्मे आ जाते हैं.
सिर्फ आत्मनिर्भर बनना ही उपलब्धि नहीं, जरूरी है कि समाज में हर स्त्री पुरुष को बस एक सामान्य
व्यक्ति के नजरिये से देखा जाये. आधुनिकता के नाम पर जॉब करना, रात में घूमना, मनचाहे वस्त्र पहनना
ही स्त्री के लिये आजादी ऩहीं, सबसे ज्यादा जरुरी है उसका सम्मान. स्त्रियां तो वैसे भी कोमल हृदय,
असानी से क्षमा करने वाली, सहनशील गुणों से युक्त होती हैं, पुरूष उनकी बराबरी कभी कर हीं नहीं
सकते हैं, पर परिवार को बनाने वाली आधारशिला को अगर उचित प्यार व सम्मान दिया जाये तभी
समाज का समुचित विकास सम्भव है.