स्त्री-पुरुष समता का अर्थ है, एक दूसरे की क्षमताओं और सीमाओं को समझते हुए बराबरी का व्यवहार. यह जरूरी नहीं कि स्त्रियां पुरुषों के सारे काम बराबरी से करने लगें. मातृत्व के दायित्वों के कारण स्त्री पुरुष से भिन्न जरूर है, मगर कमतर नहीं. दोनों के बीच मूल अंतर तो दोनों के प्रजनन अंगों की भिन्नता मात्र है. हर जीव जगत अपनी प्रजाति की निरंतरता बनाता है यही विकास है. प्रारंभ में अमीबा है जो अपने शरीर को विखंडित कर नया जीवन पाता है. विकास के क्रम में पहले एक ही शरीर में नर मादा अंगों की उपस्थिति रहती थी. विकासक्रम में अधिक विकसित प्रजाति में नर मादा अलग अलग बने. अभी तक के विकास की उच्चतम संरचना मानव है. यहां नर मादा अलग हैं. मगर दोनों मनष्य हैं. बाद में दोनों की जिम्मेदारियां भिन्न हो गयीं, जो बहुत अस्वाभाविक नहीं है. दोनों साथ साथ विकास क्रम में यहां तक पहुंचे हैं. बराबरी की हैसियत से. न कोई पहले बना, न ऊंचा बना. मानव वेश जगत से बुद्धि और विवेक के कारण विशिष्ट है. न कि प्रजनन अंगों के कारण. प्रकृति की निरंतरता के लिए अलग अलग नर मादा बने जिनमे बाकी सारी विशिष्टताएं साथ साथ विकसित हुईं. और निरंतर वर्तमान से भविष्य की ओर दोनो साथ साथ आगे बढ़ रहें हैं. मगर जीवन के संघर्ष के साथ सत्ता की पिपासा और सत्ता का मद भी पैदा हुआ जिसमे अपने गर्भधारण की जिममेदारियों के कारण औरत पीठे ढकेल दी गई. तब से आज तक सदियों से औरत हर क्षेत्र में गैरबराबरी और अन्याय झेलती रही है. धीरे धीरे समाज में यह धारणा बनती और स्थापित होती गयी कि वह हर स्तर पर पुरुष से निम्न है, कमतर है. और आज स्थिति यह है कि उसकी कोई जाति नहीं, उसका कोई धर्म नहीं, पहचान नहीं, यहां तक कि कोई नाम तक नहीं. वह फलाने की बेटी है, फलाने कि बहू है. उसकी कोई संपत्ति नहीं. और यह भेदभाव पूरी दुनिया में व्याप्त है. मगर समता का सपना तो अपनी जगह बना हुआ है. हर इंसान सपने देखता है. खुद को आगे बढ़ाने का, छा जाने का, ज्ञान और सम्मान पाने का. अपनी इच्छाओं को पूरा करने की क्षमता अर्जित करने का. स्त्री भी सपने देखती है. क्योंकि वह भी इंसान है. मगर पुरुष ने स्त्री को कमतर मान लिया है. स्त्री को भी बाध्य किया है कि वह इसे ही सच माने. और आज की दुनिया सामने है. जहां स्त्री एक अलग जाति बन गई जो न विचार करती है, न फैसले लेती है, और न ही सपने देखती है. वह बस पुरुषों के सुख के लिए पैदा की गई है. वह गरीबों से गरीब है, सवर्ण परिवार में भी शूद्र है, शिक्षित परिवार में भी और शिक्षित होकर भी मूर्ख है, असहाय है. पुरुषों की इच्छा से रानी या दासी है. मगर औरतों को अपनी स्थिति बदलनी ही है. उसे हर हालत में समझना है कि वह भी इंसान है. उसे भी हक है नाम का ,पहचान का, संपत्ति रखने का, सपने देखने का और उसे पूरा करने का. दहेज और बलात्कार के खिलाफ उसे आगे आना होगा. विवाह की अनिवार्यता को नकारना होगा. खुद को मिट्टी की हांडी या अपवित्र होने की धारणा को नकारना होगा. बराबरी के लिए स्त्री को पहले खुद को सम्मान देना होगा. वह अपनी कद्र करेगी. अपने जीवन, अपनी इच्छाओं को महत्व देगी. फैसले लेगी और अपने फैसलों को इज्जत देगी. सक्षम बनेगी. समता आधारित समाज की ओर बढ़ने के लिए स्त्रियों को गुलामी का आसान रास्ता छोड़ना होगा. और जीवन संघर्ष में उतरना होगा. श्रम, योग्यता और शिक्षा के साथ समाज मे अपनी उपादेयता साबित करनी होगी. बेटियां असहाय और पराश्रित होने के बोझ से मुक्त होकर दोस्ती, खुलेपन और प्रतियोगिता से विकास पायेंगी, बेटे उच्चता ग्रंथी से मुक्त होंगे. सभी एक दूसरे के सहयोगी होंगे, मगर स्त्रियों को अपनी जिम्मेदारी खुद उठाने योग्य बनना होगा. अपना, अपने माता पिता का और बच्चों का भी. तभी तो इन सब पर उनका हक भी होगा. परिवार का आधार प्रेम और सहयोग होना चाहिए. निष्ठा और त्याग के नाम पर औरतों के इंसानी वजूद का विसर्जन स्थल नहीं. जीवन अनमोल और सुंदर है. उसे उजाड़ नहीं बनाना है. परिवार , बच्चे और स्त्री पुरुष के बीच का प्रेम, इन से दुनिया वंचित न हो मगर इनकी कीमत औरतों की गरिमा और मानवीयता की हत्या भी न हो. स्त्री पुरुष समता के लक्ष्य के लिए सबों को कुछ खोना होगा. मगर जो प्राप्त होगा वह असाधारण होगा, अनुपम होगा.