अब तक मैं भी जनजाति (tribes) के लिए ‘आदिवासी’ शब्द को सही-उपयुक्त मानता रहा हूँ. लेकिन पिछले कुछ समय से अपनी और बहुतों की इस धारणा-विश्वास पर पुनर्विचार की जरूरत महसूस करने लगा हूँ.

मैं पूरी शिद्दत से मानता हूँ कि ‘आदिवासी’ समुदाय (खास कर भारतीय) एक उन्नत सभ्यता/संस्कृति के वारिस हैं और आज भी वे कथित सभ्य समुदायों की तुलना में बेहतर जीवन मूल्यों के साथ जी रहे हैं. चाहें तो हम (अन्य) उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं. (मगर हम उनसे कुछ सीखने के बजाय उन्हें सभ्यता और आधुनिकता के नाम पर चोरी, जमाखोरी, स्वार्थपरता, विलासिता और असामाजिकता ही सिखा रहे हैं.) हालाँकि यह बात मैं मूलतः झारखंड के आदिवासी समुदायों और लोगों को निकट से देखने के आधार पर कह रहा हूँ. देश के अन्य राज्यों के या विदेशों के ‘आदिवासी’ समुदायों के बारे में पूरे दावे के साथ ऐसा नहीं कह सकता. अफ्रीका के विभिन्न कबीले जिस तरह एक दूसरे से निरंतर युद्धरत रहते हैं; एक दूसरे के खिलाफ जिस तरह क्रूर और हिंसक बर्ताव करते हैं, उसमें मुझे तो कोई ‘आदिवासियत’ और वह जीवन मूल्य और आदर्श नहीं दीखता, जो हम झारखंड के आदिवासियों में देखने के अभ्यस्त हैं. भारत के ही पूर्वोत्तर के विभिन्न ‘आदिवासी’ समुदायों के बीच जिस तरह हिंसक लडाई की खबर मिलती रहती है, उसमें भी उस कथित ‘आदिवासियत’ का सर्वथा अभाव नजर आता है. वैसे ‘बर्बरता’ भी शायद मानव की आदिम प्रवृत्ति है, जो कमोबेश तमाम मानव समुदायों के व्यवहार में नजर आता है.

बहरहाल, अब मूल बात पर आता हूँ.

सबसे पहले तो यह कि पुनर्विचार की जरूरत क्यों महसूस हुई. मैं नृतत्व विज्ञान का जानकार नहीं हूँ. फिर भी मुझे लगता रहा है कि भारत के सभी ‘आदिवासी’ समुदायों को एक ही नस्ल और समान सभ्यता-संस्कृति का हिस्सा मानना सही नहीं है. गैर आदिवासियों से स्पष्ट भिन्नता और परस्पर अनेक समानताओं के बावजूद. मध्य भारत में और उत्तर-पूर्व सहित उत्तर के पहाड़ी इलाकों में बसे ‘आदिवासी’ समुदायों की शारीरिक बनावट और उनके रंग में भी फर्क स्पष्ट नजर आता है. अंदमान द्वीप समूह के ‘आदिवासियों’ की जीवन शैली, खान-पान, रहन-सहन के तरीकों में भी देश के अन्य हिस्सों के आदिवासियों से बुनियादी अंतर है. कुछ माह पहले एक खबर सामने आयी थी कि अंदमान के जारवा कबीलों के लोग नवजात शिशु के चमड़े के रंग में थोडा भी गोरापन देखते ही उसे तत्काल मार डालते हैं. संभवतः उसे ‘जारज’ यानी किसी अन्य समुदाय के पुरुष की संतान मान कर! क्या झारखण्ड में या अन्य जगहों पर ऐसा होता है या हो सकता है?

अफ्रीका के कबीलों में काफी समानता है. और उनमें तथा भारत के भी कुछ आदिवासी समुदायों में भी कुछ समानता मिलती है. यह भी माना जाता है कि यहाँ के अनेक आदिवासी समुदायों का मूल निवास कभी अफ्रीका रहा होगा; और ये वहीँ से आये होंगे. ऐसे में विश्व भर के जनजातीय या आदिवासी समुदायों को एक ही ‘नस्ल’ का मानने के पीछे क्या तर्क है, मैं नहीं जानता- मगर पिछले कुछ समय से विश्व भर के जनजातीय समुदायों को ‘आदिवासी’ कहने-मानने की प्रवृत्ति से भी मुझे इस धारणा पर पुनर्विचार की प्रेरणा मिली. ऐसा भी लगता है कि ‘आदिवासी’ कहने से इस धरती का ही आदि-निवासी मानने की धरणा जुडी हुई है. यह भी कि इस धरती का मानव समुदाय मात्र दो तरह के समुदायों में बंटा है- आदिवासी और गैर आदिवासी. बेशक इन दो तरह के समुदायों के बीच आपस में परस्पर समानता के और दूसरे समुदाय से भिन्नता के तत्व हैं. मगर क्या गोरे (यूरोपीय), भूरे (एशियाई) और पीले (चीन, जापान, थाईलैंड आदि) मानव समूह एक ही नस्ल के हैं?

बेशक विश्व भर के जनजातियों या ‘आदिवासियों’ में एक महत्वपूर्ण समानता यह भी है कि हर जगह उन्हें अपने जल, जंगल और जमीन के लिए लड़ना पड़ा है, और यह लड़ाई आज भी जारी है. फिर भी इससे यह सिद्ध नहीं होता कि ये सभी एक ही नस्ल के प्राणी हैं. और यदि यह मान ही लिया जाये कि ‘आदिवासी’ ही धरती के मूल निवासी हैं, तो एक सहज सवाल मन में आता है कि शेष गैर आदिवासी क्या किसी और ग्रह से आकर धरती पर बस गये? संभव है कि झारखंड या भारत के मूल- आदि निवासी आदिवासी (जनजातीय समुदाय) ही रहे हों. दुनिया के अन्य कई हिस्सों में रह रहे ऐसे समुदाय भी उन इलाकों के मूल निवासी हो सकते हैं. लेकिन जब कुछ लोग यह दावा करने लगते हैं कि ‘आदिवासी’ विश्व के आदि-निवासी हैं, तो बात अटपटी हो जाती है. संभवतः संघ-भाजपा सहित अन्य अनेक लोगों को इसी कारण यह शब्द स्वीकार करने में कष्ट है कि इससे इनके झारखण्ड और भारत के भी मूल निवासी होने का दावा बनता है.

मेरा मानना है कि विश्व भर के जनजातीय समुदाय, जो कबीलों के रूप में रहते हैं, ऐतिहासिक कारणों से आज भी ‘आदिम’ तौर-तरीकों/जीवनशैली और अनेक सकारात्मक मूल्यों के साथ जी रहे हैं. समय के साथ उनमें बहुत बदलाव नहीं हुआ. इसी लिहाज से उनके बीच कुछ समानता भी नजर आती है. मगर ‘आदिवासी’ शब्द का जो अर्थ लगाया जा रहा है, उस पर पुनर्विचार होना चाहिए. उन्हें ‘आदि’-वासी कहने-मानने का यह आधार या कारण तो समझ में आता है कि वे ‘आदिम’ तरीकों और मूल्यों से जुड़े हुए हैं. मगर आज तो आदिवासी समुदाय को इस तरह आदर्श और उनके इस देश और धरती के ‘आदि’ निवासी होने को इतना निर्विवाद और स्वयंसिद्ध मान लिया जा रहा है कि बहस की गुंजाइश ही नहीं बची है. आप इस धारणा से असहमति व्यक्त करें, आदिवासी समुदाय की किसी मान्यता या परंपरा में त्रुटि दिखने का प्रयास करें, तो आप आदिवासी विरोधी घोषित हो जा सकते हैं. सही है कि अन्य समुदायों में हुए तमाम बदलावों को बहुत सकारात्मक नहीं कहा जा सकता, पर ऐसा भी नहीं है कि उनमे सब कुछ बुरा ही है या इन समुदायों का जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कोई योगदान ही नहीं है; और ‘आदिवासी’ समुदायों की मान्यताओं-परंपराओं में सब कुछ आदर्श ही है या उनमें बदलाव की जरूरत ही नहीं है.

यह भी एक तरह की संकीर्णता है, जिससे बचने की जरूरत है.