आज हम वर्षों की लड़ाई की बुनियाद डाल रहे है. यह लड़ाई लंबी होगी और कठिन भी. हम जिस पार्टी की नींव डाल रहे हैं, वह अन्य पार्टियों से भिन्न एक क्रांतिकारी पार्टी है. इसमें आने जाने वालों की कभी कमी नहीं रहेगी, परंतु इसकी धारा रुकेगी नहीं. इसमें पहली पीढी के लोग मारे जायेंगे. दूसरी पीढी के लोग जेल जायेंगे और तीसरी पीढी के लोग राज करेंगे…
यह वक्तव्य शक्तिनाथ महतो की है जो उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा के गठन के अवसर पर धनबाद के गोल्फ मैदान में करीबन 40 वर्ष पूर्व एक महती सभा में दी थी. इस सभा को शिबू सोरेन, बिनोद बिहारी महतो और कामरेड एके राय ने भी संबोधित किया था. शक्तिनाथ महतो की दो भविष्यवाणियां- पहली पीढी के लोग मारे जायेंगे और दूसरी पीढी के लोग जेल जायेंगे- तो इस रूप में सही साबित हुई कि झामुमो के गठन के बाद महाजनी शोषण व माफियागिरी के खिलाफ चले संघर्ष में खुद शक्तिनाथ महतो सहित सैकड़ों लोग शहीद हुए और झारखंड आंदोलन में बड़ी संख्या में लोग जेल गये, लेकिन तीसरी भविष्यवाणी? झारखंडियों की तीसरी पीढी राज करेगी, यह क्यों कर संभव नहीं हुआ? सत्ता झारखंड अलग राज्य के लिए लड़ने वालों को न मिल कर अलग राज्य का हमेशा विरोध करने वाली भाजपा को कैसे मिल गया? वह कैसे काबिज हो गई और दिनों दिन मजबूत होती जारी है झारखंड की राजनीतिक सत्ता पर?
दो टूक शब्दों में कहें, तो कारण यह कि झामुमो क्रांतिकारी पार्टी नहीं रही. संसदीय राजनीति में शामिल होते ही उसका चरित्र बदलने लगा और दूसरी बात यह कि शिबू सोरेन, बिनोद बिहारी महतो और कामरेड एके राय ने मिल कर जिस झारखंडी ताकत का निर्माण किया था, वह बिखर गया. झारखंड की दो प्रमुख सामाजिक शक्तियां रही हैं - आदिवासी और सदान. लेकिन इनमें एकता नहीं रही. सत्ता की राजनीति ने इन दोनों के बीच वह दरार डाली जिससे भाजपा का झारखंड में प्रवेश हुआ और वह तेजी से फैलती चली गई और सदानों के भगवाकरण के साथ अब वह सत्ता पर पूरी तरह काबिज है. एक सीधा सा गणित है, आदिवासी और सदान मिल कर झारखंड की आबादी का बड़ा हिस्सा बनाते हैं. उनके बीच एका रहती- जो जयपाल सिंह ने बनाई थी या जो शिबू सोरेन और बिनोद बिहारी महतो ने मिल कर बनाई थी, तो आज झारखंड की यह गति नहीं होती.
कौन है सदान ?
मेरे मित्र सिद्धेश्वर सरदार, बड़ा सिगदी, पोटका, का कहना है कि सदान शब्द सादम से बना है. सादम का अर्थ घोड़ा होता है. आदिवासी समाज घोड़ा नहीं जानता था. जब घोड़ा आया तो घोड़े की सवारी सिखाने वाले सदान कहे जाने लगे और फिर वे तमाम लोग जो सदियों पहले आदिवासी समाज और अर्थ व्यवस्था को मजबूत करने में सहभागी बने वे सदान कहे जाने लगे. यानी, कुर्मी, कुम्हार, लुहार, बढई, आदि तमाम जातियां जिनमें किसी भी तरह की तकनीकि दक्षता थी वे सदान हुए. साथ साथ रहते वे आदिवासी सभ्यता संस्कृति का ही हिस्सा बन गये. उन्हीं की तरह रहन सहन. उन्हीं की तरह खान पान. जीवन और संघर्ष में एक दूसरे का साथ. उन्हें अलग करना मुश्किल था. कभी उनके बीच टकराव का भी इतिहास नहीं रहा. सभी श्रमजीवी, मेहनत मशक्कत कर जीवन जीने वाले. आदिवासी समाज सहअस्तित्व में विश्वास करता है. टकराव तब होता है, जब कोई उसके अस्तित्व को ही चुनौती देने लगता है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है यह है कि आदिवासी इलाके में रहने वाले दलितों की भी स्थिति देश के अन्य इलाकों में रहने वाले दलितों से बेहतर है. उनके पास जमीन है, अपनी जमीन पर अपना घर है, वे भी खेती बाड़ी करते हैं.
लेकिन ऐसा क्या हुआ कि आज झारखंड क्षेत्र के सदान - सदियों से साथ रहने वाली गैर आदिवासी आबादी, भाजपा की तरफ मुखातिक है. भगवा रंग में रंगती जा रही है?
वैसे, इसकी शुरुआत तो अंग्रेजों के जमाने में शुरु हो गई थी. दरअसल तकनीकि रूप से जरा सी भी दक्ष जातियांे के पास संपत्ति जमा होने लगती है और उसे इस बात का भी तीव्र एहसास की वह आदिवासी नहीं, उनसे भिन्न है. आजादी के पहले से ही कुर्मी समुदाय आदिवासी कहे जाने का विरोध करने लगा और अंततोगत्वा गैर आदिवासी घोषित कर दिया गया. और जो आदिवासी नहीं थे उन सबका रुझान उस संस्कृति की तरफ होने लगा जिसे हम मोटे रूप में महाजनी सभ्यता-संस्कृति कहते है. किसी को जनेउ पहनने का धुन, वे व्रत-त्योहार करने लगे जो गैर आदिवासी करते थे, उनके देवी देवता के चित्र उनके घर में सजने लगे, तो अनेकों ने अपने उपनाम बदल लिये. बावजूद इसके झारखंडी संस्कृति का ताना बाना इस कदर कमजोर नहीं था और इसलिए आदिवासी, सदान, और झारखंड में सदियों से साथ रह रहे अल्पसंख्यकों ने मिल कर जयपाल सिंह के नेतृत्व में कांग्रेसियों को वह टक्कर दी कि कांग्रेस इस क्षेत्र में दिखती नहीं थी और भाजपा या जनसंघ का तो एक दीप भी 77 के पहले नहीं जला.
लेकिन कांग्रेस की साजिश से जब झारखंड पार्टी का विलय कांग्रेस में हो गया तो जातीय ध्रुवीकरण की प्रक्रिया और तीव्र हो गई. इसे सत्तर के दशक में थामने की कोशिश बिनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन ने मिल कर की. हालांकि उस वक्त भी रामटहल चैधरी, रीतलाल वर्मा जैसे कुछ कुर्मी-कोयरी नेता भाजपा के साथ थे, लेकिन कुर्मियों के तमाम दिग्गज और व्यापक जनाधार वाले नेता नव गठित झामुमो के साथ. विनोद बाबू तो पार्टी के निर्माता ही थे, दनके अलावा निर्मल महतो, शक्तिनाथ महतो, शैलेंद्र महतो, शिवा महतो, टेकलाल महतो जैसे तमाम बड़े कुर्मी-कोयरी नेता. योगेश्वर महतो बाटुल कुम्हारों के नेता थे और अब शायद भाजपा में हैं, भी झामुमो के साथ थे. और इसलिए झामुमो न सिर्फ महाजनी शोषण से लोहा ले सकी, बल्कि कोयलांचल में माफिया राज से टकरा सकी. सैकड़ों लोग सत्तर और अस्सी के दशक में मारे गये और मारे जाने वालों में सिर्फ आदिवासी नहीं थे, सदान भी थे. कोयलांचल का चप्पा चप्पा, उत्तरी छोटानागपुर से लेकर पुरुलिया बाकुड़ा तक इन शहीदों की मूर्तियों पर, उनके आस पास अब भी मेले लगते हैं.
झारखंड आंदोलन में भी वे साथ रहे, लेकिन झारखंड का गठन होते ही आदिवासी और सदानों का सत्ता संघर्ष कुछ इस कदर तीव्र हुआ कि अब दोनों एक दूसरे के राजनीतिक विरोधी हैं.
हम यह नहीं कहेंगे कि इसके लिए सिर्फ सदान दोषी हैं, झामुमो का नेतृत्व भी पूरी पार्टी को एकजुट नहीं रख सका. और इस दोफाड़ में भाजपा को खूब खाने-खेलने का मौका मिल गया. जमशेदपुर, रांची, हजारीबाग जैसे शहरों में दंगे करा कर और ईसाई मिशनरियों के खिलाफ नफरथ फैला कर जिस भाजपा ने झारखंड की राजनीति में अपने लिए जगह बनाई थी, अब उसके पास ठोस राजनीतिक आधार है. बहिरागत तो उनके साथ हैं ही, सदियों से उनके साथ रहने वाले सदानों का भी बड़ा तबका भाजपा के साथ. इस लड़ाई से सुदेश महतो, चंद्रप्रकाश चैधरी जैसे नेताओं का तो फायदा हुआ, लेकिन झारखंडी जनता दिनों दिन मुसीबतों से घिरती जा रही है. सीपीटी और सीएनटी एक्ट में संशोधन से, झारखंड के अंधाधुंध औद्योगीकरण से क्या सिर्फ आदिवासी प्रभावित होंगे? जी नहीं, उससे सदान भी उतने ही प्रभावित होने जा रहे हैं. भाजपा का मुकाबला करना है तो आदिवासी और सदानों के बीच के फासले को कम करना ही होगा.
लेकिन यह करेगा कौन ?