आदिवासियों और दलितों के लिए विधानसभा और संसदीय सीटों में आरक्षण का प्रावधान किया गया है. माना यह गया कि यदि उनके लिए आबादी के अनुपात में सीटों का आरक्षण नहीं किया गया तो बहसंख्यक आबादी समुदाय उन्हें किसी एक सीट पर भी जीतने का अवसर नहीं देगा और संसद व विधान सभाओं में उनका प्रतिनिधित्व नहीं हो पायेगा. इसलिए प्रत्येक राज्य में उनकी आबादी के अनुपात को देखते हुए सीटों का आरक्षण किया गया. झारखंड विधानसभा की 81 सीटों में 28 सीटें अधिसूचित जनजाति, एसटी के लिए आरक्षित है. और वास्तव में आज जो विधानसभाओं में आदिवासी या दलित दिखाई देते हैं तो इन्हीं आरक्षित सीटों की वजह से. सामान्य सीट से किसी आदिवासी या दलित का जीतना अपवाद ही है. एक तो पार्टी टिकट नहीं देगी और देगी भी तो जीतना कठिन होगा.
लेकिन पिछले कुछ चुनावों से दिखाई यह दे रहा है कि एसटी सीटों से जीतता तो आदिवासी ही है, लेकिन यदि वह भाजपा के टिकट से जीता तो भगवा रंग से रंग जाता है. भगवा से न भी रंगे, वह उन नीतियों का समर्थक होता है जो भाजपा की नीति है. उदारण के लिए अभी आदिवासी समाज रघुवर सरकार के सीएनटी-एसपीटी कानून में संशोधन के प्रस्ताव से बेहद आंदोलित है, बावजूद इसके भाजपा के एसटी विधायकों में यह साहस नहीं कि वे खुल कर इस प्रस्ताव का विरोध करें. यदि एसटी विधायकों ने एकजुट हो कर इस प्रस्ताव का विरोध किया होता तो यह प्रस्ताव पारित ही नहीं हुआ होता.
विडंबना यह कि एसटी सीटों पर भाजपा के आदिवासी विधायकों की संख्या बढती ही जा रही है. अभी की विधानसभा में एसटी विधायकों की संख्या पर गौर करें तो 28 में से 11 विधायक भाजपा के हैं और 13 विधायक झामुमो के. यानी, झामुमो, जो आदिवासियों की सबसे बड़ी पार्टी है के 13 विधायक और आदिवासी विरोधी नीति पर चलने वाली भाजपा के सिर्फ दो कम 11 विधायक. भाजपा ने झामुमो के गढ संथालपरगना में भाजपा ने कई सीटें झामुमो से छीन ली हैं. और आदिवासी राजनीति जिस तरह सत्तामुखी होती जा रही है, उसमें भाजपा के एसटी विधायकों की संख्या और बढे तो आश्चर्य नहीं.
वजह क्या है? वजह यह की एसटी सीटों पर भाजपा का जीतना आसान होता जा रहा है. आरक्षित सीटों में एक स्वाभाविक विभाजन आदिवासी- सदान/ गैर आदिवासी का रहता है. अब जिन सीटों पर आदिवासी वोटर डोमीनेट करते हैं, वहां भी यदि भाजपा किसी आदिवासी प्रत्याशी को खड़ा करती है तो वह अपने प्रभाव से आदिवासी वोटरों को विभाजित कर देता है. इसके अलावा भाजपा का प्रत्याशी होने के कारण उसे गैर आदिवासी-सदान वोट भी मिल जाते हैं और उसकी जीत सुनिश्चित हो जाती है, दूसरी तरफ गैर भाजपा आदिवासी प्रत्याशी चुनाव हार जाता है. इसी वजह से 28 सीटों में से आधे पर भाजपा अपने समर्थक पार्टी के साथ कब्जा कर ले रही है. उनकी टिकट पर जीते आदिवासी, आदिवासी जैसे दिखते तो हैं, लेकिन वे राष्ट्रीय स्तर पर उन्हीं औद्योगिक नीतियों का समर्थक बन जाते हैं जिनसे आदिवासी जनता को विस्थापन का दंश सहना पड़ रहा है.
लिट्टीपाड़ा की चुनौती इस पूरे खेल को हम लिट्टीपाड़ा उप चुनाव में देखने जा रहे हैं. भाजपा करती यह भी है कि क्षेत्रीय पार्टी के ही पुराने राजनीतिज्ञ को तोड़ती है और उनके पुराने साथियों से लड़ाती है. लिट्टीपाड़ा सीट झामुमो के अनिल मुरमू के निधन से खाली हुई. भाजपा ने यहां से हेमलाल मुरमू को खड़ा किया है, झामुमो प्रत्याशी साईमन मरांडी के मुकाबले. यहां गौर तलब है कि ये दोनों नेता लंबे अरसे तक झामुमो के कर्मठ कार्यकर्ता और महाजनी शोषण के खिलाफ संघर्ष में शिबू सोरेन के साथी रहे हैं. सत्ता के तलबगारों की संख्या बढती जा रही है. झगड़ा वैसा ही है जैसे खेत खलिहान के लिए परिवार में होता है और लड़ाई में नीति-सिद्धांतों की तिलांजली दे दी जाती है. मजेदार बात यह कि दिवंगत अनिल मुरमू की दोनों पत्नियां भी प्रत्याशी बनने के लिए इस कदर सड़क पर उतर पड़ी मानों लिट्टीपाड़ा उनके पति की जागीर थी. टिकट नहीं मिला तो एक भाजपा में चली गई. अब स्थिति यह है कि साईमन मरांडी और हेमलाल मुरमू लड़ेंगे जो एक जमाने के साथी रहे हैं. भाजपा यूपी की जीत यहां दुहराना चाहती है. रघुवर दास ने एड़ी, चोटी एक कर दी है. प्रलोभनों की बारिश. इस स्थिति में तो लिट्टीपाड़ा की जनता को ही यह तय करना होगा कि सीएनटी-एसपीटी एक्ट में छेड़छाड़ करने वालों के साथ होगी या उसका विरोध करने वालों के साथ. बस उसे यह याद रखना होगा कि आदिवासी विधायक बने, यह काफी नहीं, ऐसा आदिवासी विधायक बने जिसमें आदिवासियत भी बची हो. क्या आदिवासी वोटर वोट डालते वक्त इस बात को याद रखेगी?