कार्ल मार्क्स समेत उन्नीसवीं सदी के सभी महान चिंतक सोचते थे कि पृथ्वी पर असीमित प्रगति संभव है। मार्क्स ने यहां तक सोचा था कि एक ऐसा समय आयेगा कि जब लोगों को काम करने की जरूरत नहीं होगी और वे छुटिट्यों का आनंद लेते हुए मछली मारेंगे। यह इसलिए कि पृथ्वी को एक अक्षय पात्र की तरह देखा गया। अक्षय पात्र की तरह पृथ्वी, जहां से आप कुछ भी और कितना भी लेते चले जा सकते हैं। उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दियां पृथ्वी पर इसी तरह क्रियाशील हुईं। आप कितना ही पेट्रोल, कितनी ही मात्रा में गैस और न जाने क्या-क्या लेते जा सकते हैं। लेकन हम जानते हैं कि पृथ्वी अक्षय पात्र नहीं है, उसकी सीमाएं हैं। गांधी को छोड़कर, पंडित जवाहलाल नेहरू समेत उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दियों के सभी विचारक ‘प्रगति’ की अवधारणा के सम्मोह में थे जो, उनके अनुसार, मनुष्यता को शोषण आदि से मुक्त कर देगी। लेकिन अब हम जानते हैं कि इससे एक दूसरे तरह की प्रभुता कायम हो जाती है और जिससे पृथ्वी विनाश कि ओर जा सकती है। इसलिए मैं सोचता हूं कि इक्कीसवीं सदी ‘विकास’ की अवधारणा पर गहरा प्रश्नचिह्न लगाएगी।

उन्नीसवीं सदी में एक समय था जब कार्ल मार्क्स ने कहा था कि सारी आलोचना धर्म की आलोचना से शुरू होती है। उनका आशय यह था कि धर्म सर्वज्ञ होने का दावा करता है, इस बात का दावा कि उसके पास सभी प्रश्नों का हल है। नये विचार-विमर्श की कोई गुंजाइश ही नहीं थी, क्योंकि एक ऐसा दावेदार पहले से ही मौजूद था जो सोचता था कि उसके पास सारे जवाब सहज उपलब्ध हैं। इसलिए चिंतन तभी संभव था जब आप धर्म की आलोचना करें। आज जब हम बीसवीं शताब्दी के अंत कि ओर जा रहे हैं, कोई भी नया सृजनात्मक चिंतन तभी संभव है जब आप ‘विकास’ के विचार को प्रश्नांकित करने का जोखिम उठाएं। जो विकास के प्रश्न को प्रश्नांकित नहीं कर सकते, वे कुछ भी नया नहीं सोच सकते। इस तरह यहां भी शताब्दी का अंत एक नये चिंतन की शुरुआत होगी, जहां विकास को सुख और मुक्ति के एकमात्र स्रोत की तरह देखे जाने में विश्वास करने वाले को प्रश्नांकित किया जायेगा।

सोवियत यूनियन में विफल मार्क्सवाद को एक विचार की तरह भी प्रश्नांकित किया जाना चाहिए, क्योंकि यह स्वयं को इस मान्यता पर आधारित करता है कि पृथ्वी एक अक्षय पात्र है और असीम विकास संभव है। यह पूंजीवाद की भी आलोचना है क्योंकि ये दोनों इस दृष्टि से दरअसल बहुत अलग नहीं हैं। दोनों ने ही विकास के रास्ते मुक्त समाज बनाने की कल्पना की थी। पूंजीवाद का आधार भी उन्नीसवीं सदी के विचार में है जो उस रूप में बाहर से भारत आया था, जिस रूप में पूंजीवाद को हम समझते हैं। इसे भी प्रश्नांकित करना होगा।

जब हम यह कहते हैं कि जीवन परिवर्तनशील है तो इसके क्या मायने होते हैं? वह परिवर्तित होता रहता है क्योंकि, हम सभी मरते हैं और बिना मृत्यु के कोई क्रांति नहीं होती। कुछ भी नया नहीं है ; बच्चों के लिए इसलिए जगह बनती है कि बूढ़े मरते हैं। बच्चे एक नयी उम्मीद हैं और यह प्रकृति का विधान है कि वृक्ष अपनी पत्तियां छोड़ते हैं और पुष्पित होते हैं, पल्लवित होते हैं। अंत और आरंभ का यह एक महान निरंतर चक्र है।

आज भी निरक्षर ग्रामीण कई चीजों को बिंबों के सहारे देखते हैं और वे उसी ढंग से उन्हें याद रखते हैं। यह सिर्फ कोई आध्यात्मिक गतिविधि नहीं, मानवीय इंद्रियों की गतिविधि भी है। मानवीय इंद्रियां कल्पना करने में, बिंब रचने में सक्षम हैं। शायद हमारी शिक्षा में नई तरह की कल्पनाशीलता पर जोर होगा। हमें शायद तर्क करने का वह ढंग छोड़ना पड़े जिसका अब तक हमारी चिंतन-प्रणाली पर गहरा असर था - चिंतन की द्वंद्वात्मक भाषा में जहां एक सिद्धांत होता है फिर उसका एक प्रति-सिद्धांत होता है, दोनों में मुठभेड़ होती है, फिर संश्लेषण होता है और यह ‘संश्लिष्ट’ फिर टूट जाता है।

अगर हम यहां सृजनात्मक ढंग से जीवन बिताना चाहते हैं और इस शताब्दी को समाप्त करना और सचमुच कुछ नया शुरू करना चाहते हैं तो हम इस शताब्दी की शुरुआत की ओर वापस मुड़ें और यह देखें कि तब क्या घट रहा था।