झारखंड के भूमि सुरक्षा कानूनों - छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 एवं संताल परगना काश्तकारी (अनुपूरक अनुबंध) अधिनियम 1949 में झारखंड सरकार के द्वारा किये जा रहे संशोधन के खिलाफ सड़क से लेकर सदन तक भारी विरोध के बावजूद सरकार ने आदिवासी-मूलवासी जनभावना को दरकिनार करते हुए 23 नवंबर, 2016 को झारखंड विधानसभा में बहस कराये बगैर ही 100 सालों से ज्यादा पुराने कानूनों को छेड़छाड़ करते हुए मात्र तीन मिनटों में सीएनटी/एसपीटी संशोधन कानूनों को पारित कर दिया।
राजसत्ता में बैठे लोगों को समझना चाहिए कि सीएनटी/एसपीटी कानून आदिवासियों के लिए सिर्फ एक कागज का टुकड़ा नहीं है बल्कि यह शहीदों के खून से लिखा हुआ कानूनी दस्तावेज है। इतिहास गवाह है कि 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भू-राजस्व वसूलने का अधिकार प्राप्त किया तथा 1771 में कंपनी ने झारखंड इलाके का पूर्ण शासकीय अधिकार प्राप्त कर लिया। कंपनी सरकार के द्वारा जमीन का लगान वसूली के खिलाफ बाबा तिलका मांझी के नेतृत्व में 1774 में आदिवासियों का संघर्ष शुरू हुआ, जो बाद में संताल हुल, कोल विद्रोह तथा बिरसा उलगुलान का रूप लिया। इन संघर्षों में हजारों आदिवासी शहीद हुए। फलस्वरूप, ब्रिटिश हुकूमत को आदिवासियों की जमीन, स्वायतत्ता, संस्कृति एवं परंपरा को बचाने के लिए कई कानून बनाने पर मजबूर होना पड़ा। सीएनटी/एसपीटी कानून इन्हीं संघर्षों का परिणाम है। क्या इस विरासत को खत्म करने का किसी को हक है?
संशोधन का मूल उद्देश्य सीएनटी/एसपीटी कानूनोंमें संशोधन करने का मूल उद्देश्य राज्य के कृषि भूमि को गैर-कृषि घोषित कर राज्य के विकास एवं आर्थिक तरक्की के नाम पर आदिवासी-मूलवासियों की कृषि जमीन को काॅरपोरेट घराना, व्यापारी एवं पूंजीपतियों को सौंपना तथा गैर-कृषि घोषित जमीन से एक प्रतिशत लगान वसूलना है। देश की बढ़ती जनसंख्या और घटती कृषि भूमि को ध्यान में रखते हुए लोगों के खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार ने ‘भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनस्थापना कानून 2013’ के द्वारा कृषि जमीन को विकास कार्यों के लिए अधिगृहित करने पर प्रतिबंध लगाया है। भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापना कानून 2013 के धारा- 10 में किये गये प्रावधान के अनुसार कोई भी विकास कार्य के लिए सिंचित कृषि भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता है और यदि उक्त जमीन का अधिग्रहण करना अनिवार्य होने की स्थिति में रैयत को जमीन का मुआवजा और पुनर्वास के साथ अधिगृहित कृषि भूमि के बराबर दूसरी जगह पर खेती की जमीन उपलब्ध करानी होगी।
झारखंड सरकार ने जानबूझकर भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनस्थापना कानून 2013 को राज्य में अबतक लागू नहीं किया है तथा इस कानून से बचने के लिए कृषि भूमि की प्रकृति को ही गैर-कृषि में बदल देना चाहती है ताकि कोई भी विकास परियोजना के लिए रैयतों के कृषि जमीन का अधिग्रहण किया जा सकेगा और यदि रैयतों के कृषि जमीन का जबर्दस्ती अधिग्रहण करते समय वे न्यायालय का शरण लेते हैं तो सरकार कृषि जमीन को गैर-कृषि बताकर कानूनी दावपेंच से बच निकलेगी। यहां मौलिक प्रश्न यह है कि राज्य में सिर्फ 18 प्रतिशत सिंचित जमीन है ऐसी स्थिति में यदि कृषि जमीन पर उद्योग लगाया जायेगा तो क्या सरकार लोगों को अनाज के बदले लोहा और स्टील खिलायेगी?
मौलिक संशोधन झारखंड सरकार ने सीएनटी एक्ट की धारा-21, 49 एवं 71 तथा एसपीटी एक्ट की धारा-13 में संशोधन किया है। सीएनटी एक्ट की धारा-21 में संशोधन कर कृषि भूमि को गैर-कृषि घोषित करने तथा जमीन का बाजार मूल्य के आधार पर 1 प्रतिशत गैर-कृषि लगान वसूलने का प्रावधान जोड़ा गया है। इसी तरह धारा-49 में कोई भी जनहित कार्य के लिए किसी भी तरह की जमीन का अधिग्रहण करने का प्रावधान जोड़ा गया है। मौजूदा कानून के अनुसार सिर्फ खनन या उधोग के लिए जमीन अधिग्रहण करने का प्रावधान है। इसके अलावा धारा-71 में गैर-कानूनी तरीके से कब्जा किये गये आदिवासी जमीन को मुआवजा देकर नियमित करने का प्रावधान एवं विशेष न्यायालय (एसएआर) को समाप्त किया गया है। एसपीटी एक्ट की धारा-13 में संशोधन कर उप-धारा (क) ‘‘गैर-कृषि उपयोग को विनियमित करने की शक्ति’’ जोड़ा गया है। इसके तहत तीन प्रमुख बदलाव किये गये हैं - 1) राज्य सरकार किसी भी समय रैयत के कृषि भूमि को अधिसूचना के द्वारा गैर-कृषि घोषित कर उसका अधिग्रहण कर सकती है, 2) राज्य सरकार गैर-कृषि जमीन का बाजार मूल्य के आधार पर एक प्रतिशत गैर-कृषि लगान वसूलेगी, जो प्रति पांच वर्षों के लिए होगा एवं 3) कृषि भूमि पर गैर-कानूनी तरीके से निर्मित अपार्टमेंट, होटल, विद्यालय भवन, अस्पताल, शाॅपिंग माॅल, मैरिज हाॅल या अन्य तरह के व्यापारिक प्रतिष्ठानों को तीन महीने के अंदर एक प्रतिशत गैर-कृषि लगान देकर नियमित किया जायेगा यानी गैर-कानूनी कार्य कानूनी हो जायेगा।
संशोधन का प्रभाव
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मूलभावना और मालिकाना हक खत्म : सीएनटी एक्ट एवं एसपीटी एक्ट को आदिवासियों का सुरक्षा कवच कहा जाता है क्योंकि इन कानूनों की मूल भावना है कि रैयत का जमीन रैयत के पास रहे और उक्त जमीन पर सिर्फ रैयत का ही मालिकाना हक हो। लेकिन इन कानूनों में संशोधन कर कृषि जमीन को गैर-कृषि करने से इन कानूनों की मूल भावना और रैयत का मालिकाना हक खत्म हो जायेगा, क्योंकि जमीन की प्रकृति बदलते ही वह सीएनटी/एसपीटी कानूनों के दायरे से बाहर हो जायेगा। इस तरह के मामले में ‘कमल खेस बनाम स्टेट आॅफ झारखंड एवं अन्य’, जून 2011, सीडब्ल्यूजेसी सं. 43 आॅफ 1999 में झारखंड उच्च न्यायालय ने फैसला दिया है कि जमीन की प्रकृति बदलने से उस पर सीएनटी एक्ट लागू नहीं होगा।
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मुआवजा से बर्बादी: यह कहा जा रहा है कि अधिगृहित जमीन का कीमत रैयतों को बाजार मूल्य से चार गुणा ज्यादा मिलेगा और दो महिने के अंदर ही मुआवजा देने का काम निपटा लिया जायेगा। लेकिन क्या आदिवासी लोग मुआवजा लेकर बच पायेंगे? हेवी इंजीनियरिंग काॅरपोरेशन, बोकारो स्टील लिमिटेड, तेनुघाट बिजली परियोजना, मयूराक्षी जलाशय परियोजना, दामोदर घाटी परियोजना, इत्यादि का उदाहरण बताता है कि इन परियोजनाओं में जमीन अधिग्रहण करने के बाद किये गये वादे के अनुसार विस्थापितों को न तो नौकरी मिली और न ही मुआवजा, और जिन परिवारों को मुआवजा और नौकरी मिली उनकी चैथी पीढ़ि के लोग आज रिक्शा चला रहे हैं, मजदूरी करने को मजबूर है या दूसरों के घरों में जूठा बरतन धोकर अपना गुजारा कर रहे हैं। आदिवासी लोग मुआवजा से नहीं बचेंगे क्योंकि उनके खून में बेईमानी नहीं है। सरकार को यह भी समझना चाहिए कि हर कोई व्यापारी नहीं हो सकता है जो पैसा से पैसा बना सके।
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अनुपयोगी भूमि वापसी के नाम पर जमीन लूटः कहा जा रहा है कि यदि किसी परियोजना के लिए अधिगृहित जमीन का उपयोग पांच वर्षों के अंदर नहीं किया गया तो उक्त जमीन को रैयतों को लौटा दिया जायेगा और भुगतान किया हुआ मुआवजा की राशि भी वापस नहीं ली जायेगी। एच.ई.सी., टाटा कंपनी एवं बोकारो स्टील लिमिटेड के लिए अधिगृहित जमीन पिछले 60 वर्षों से बेकार पड़ा हुआ है लेकिन रैयतों को वापस नहीं किया गया है। क्या जो कंपनी जमीन लेगी वह उससे कब्जा करने के बाद रैयतों को वापस करेगी? यह जमीन लूटने का एक हथकंडा है।
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विकास के नाम पर विस्थापन: सीएनटी/एसपीटी कानूनों में संशोधन करने के बाद रांची में ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट का आयोजन किया गया, जिसमें 210 एमओयू पर हस्ताक्षर हुआ है। इन एमओयू को जमीन पर उतरने के लिए लाखों एकड़ जमीन की जरूरत है। फलस्वरूप, राज्य में फिर से बड़े पैमाने पर आदिवासी-मूलवासियों का विस्थापन होगा। झारखंड में विकास के नाम पर अब तक लगभग 65 लाख लोग विस्थापित हो चुके हैं। ये विस्थापित लोग आज दर-दर की ठोकरे खा रहे हैं।
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आजीविका पर प्रभाव: सीएनटी/एसपीटी कानूनों में संशोधन के बाद बड़े पैमाने पर कृषि जमीन का अधिग्रहण किया जायेगा, जिससे आदिवासियों के आजीविका पर खतरा पैदा हो जायेगा क्योंकि झारखंड में मात्र 18 प्रतिशत सिंचित कृषि भूमि है तथा 91 प्रतिशत आदिवासी लोग ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते हैं जिनकी आजीविका कृषि, वनोपज एवं पशुपालन पर निर्भर करता है। यदि कृषि जमीन पर खेती कार्य के बदले उद्योग लगाया जायेगा तो लोग क्या खायेंगे? क्या दूसरे देशों से अनाज मंगाया जायेगा?
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आदिवासी अस्तित्व पर संकट: जमीन आदिवासियों के लिए सम्पति नहीं है बल्कि उनकी विरासत, पहचान, संस्कृति, रीति-रीवाज, परंपरा और अस्तित्व जमीन पर निर्भर है। आदिवासी लोग खेतों में एक साथ काम करते हैं, एक साथ जंगल जाते हैं, अखड़ा में एक साथ नाचते-गाते हैं, गांवों में पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था कायम है, वे अपनी परंपरा और रीति-रीवाज में जीते हैं। लेकिन यदि आदिवासी लोग जमीन से बेदखल हुए तो उनका अस्तित्व ही खत्म हो जायेगा। क्या हम आदिवासी अस्तित्व को खत्म होने देंगे?
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विरासत की समप्ति:जमीन आदिवासियों का विरासत है। झारखंड में जितने खेत बने हुए हैं वे सब पूर्वजों की देन है। पूर्वजों की आत्मा गांवों में बसती है। क्या हम इन खेतों को बेचकर अपने पूर्वजों की आत्माओं को ठेस पहुंचा सकते हैं? आदिवासी इलाके का प्रत्येक गांव में शहीदों का कब्र है। क्या हम अपने शहीदों का सौदा कर सकते हैं? क्या हमें अपने विरासत को लूटने देना चाहिए?
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धार्मिक आस्था पर चोट:झारखंड में विकास के नाम पर हजारों सरना स्थल, जाहेर थान और देशाउली को खत्म कर दिया गया है तथा विकास के नाम पर फिर से आदिवासियों के धार्मिक स्थलों को खत्म करने का प्रयास किया जा रहा है। सारंडा जंगल में मित्तल कंपनी को लौह-अयस्क उत्खनन करने के लिए झारबेड़ा गांव के देशउली में खनन लीज दिया गया है। क्या मित्तल कंपनी आदिवासियों के भगवान से भी ज्यादा शक्तिशाली है? सुप्रीम कोर्ट ने ‘‘ओड़िसा माईनिंग काॅरपोरेशन बनाम वन व पर्यावरण मंत्रालय एवं अन्य (सी) सं. 180 आॅफ 2011’’ में कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 25 एवं 26 आदिवासियों के धार्मिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित करते हैं। इसलिए उनके धर्मास्थलों का संरक्षण जरूरी है।झारखंड सरकार रांची में एक सरना मंदिर बना रही है लेकिन झारखंड के हजारों सरना स्थलों को खनन कंपनियों को सौप रही है। क्या यह विरोधाभाष नहीं है? क्या सरकार आदिवासियों के आस्था पर गंभीर चोट नहीं पहुंचा रही है?
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जनसंख्या पर प्रतिकूल असर:झारखंड देश में एक आदिवासी राज्य के रूप में स्थापित है। लेकिन औद्योगिकरण की वजह से आदिवासियों की जनसंख्या लगातार घट रही है। जमशेदपुर इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। 1907 में सिंहभूम जिले के कालीकाटी और साकची के आसपास 24 आदिवासी गांवों को मिलाकर टाटा कंपनी की स्थापना की गई, जहां आदिवासियों की जनसंख्या 95 प्रतिशत थी। बिहार, बंगाल, ओड़िसा एवं अन्य राज्यों से बड़े पैमाने पर गैर-आदिवासी लोग टाटा कंपनी में नौकरी करने के लिए आये और वहीं बस गये। फलस्वरूप, टाटा कंपनी के 100 साल के सफर में कंपनी देश के विकास का माॅडल बन गया, आदिवासी गांव कालीमाटी और साकची टाटा नगर जमशेदपुर में तब्दील हो गये तथा आदिवासियों की जनसंख्या 95 प्रतिशत से घटकर 5 प्रतिशत पर पहुंच गया। झारखंड सरकार ने काॅरपोरेट घरानों के साथ 210 नये एम.ओ.यू. पर हस्ताक्षर किया है। इसलिए आने वाले समय में ये कंपनियां जहां-जहां स्थापित होंगे आदिवासी वहां-वहां विस्थापित होंगे और उनकी जनसंख्या घटेगी क्योंकि इन कंपनियों में काम करने के लिए लोग बाहर से आयेंगे और उनकी जनसंख्या बढ़ेगी।
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राजनीतिक शक्ति का ह्रास:लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व हमारा राजनीतिक अधिकार है और कमजोर तबके के लोगों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। इसी के तहत झारखंड में आदिवासियों के लिए 28 सीट विधानसभा में एवं 4 सीट लोकसभा में आरक्षित किया गया है। लेकिन आदिवासियों की जनसंख्या में भारी बदलाव होने के कारण आने वाले समय में विधानसभा एवं लोकसभा के लिए आरक्षित सीट कम होता जायेगा, जिससे आदिवासियों की राजनीतिक ताकत भी खत्म होगी और वे झारखंड के राजनीति में निर्णायक भूमिका में नहीं रहेंगे। आज आदिवासियों के पास राजनीतिक ताकत होने के कारण कोई भी राजनीतिक पार्टी आदिवासी समाज के मुद्दों को नाकारने की स्थिति में नहीं है। इसलिए उन्हें धर्म के नामपर बांटकर उनकी राजनीतिक शक्ति को बिखरने की कोशिश की जाती है लेकिन जिस दिन उनकी यह राजनीति शक्ति चली गयी उस दिन आदिवासी समाज को कोई नहीं पूछेगा।
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बाहरी लोगों को नौकरीः यह कहा जा रहा है कि राज्य में हो रहे पूंजीनिवेश से 6 लाख लोगों को नौकरी मिलेगा। लेकिन झारखंड सरकार ने स्थानीय नीति बनायी है, जिसमें दूसरे राज्यों से झारखंड मंे आये सभी लोगों को राज्य का निवासी घोषित किया गया है। इसलिए राज्य में लगे उद्योगों एवं सरकारी नौकरी में उन्हें ही फायदा मिलेगा। जनसंख्या कम होने सरकारी नौकरी में भी आरक्षित सीट कम हो जायेगा। इतना ही नहीं झारखंड सरकार सभी विभागों में स्थायी नौकरियों को खत्म करते हुए आउटसोर्सिंग कर रही है। झारखंड के विश्वविद्यालयों, सचिवालय और प्रखंडों में नौकरी करने वाले कौन लोग है? कितने आदिवासी और मूलवासियों को नौकरी मिला है? रिम्स रांची में अनुबंध पर नियुक्त नर्सों को हटाकर आउटसोर्स किया जाना क्या संकेत देता है? इसलिए राज्य में लगने वाले उद्योगों में बाहरी लोगों को ही अधिकांश नौकरी मिलेगा।
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अभिव्यक्ति के आजादी पर हमलाः अभिव्यक्ति की आजादी हमारा मौलिक अधिकार है लेकिन जो लोग सीएनटी/एसपीटी कानूनों के संशोधन के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं उन्हें विकास विरोधी, आदिवासी विरोधी या सरकार विरोधी बताकर उनके कार्यक्रमों को रोकने के लिए धारा-144 लगाया जाता है। भविष्य में जमीन अधिग्रहण करने के लिए बड़े पैमाने पर पुलिस बल एवं कानून का सहारा लेकर ऐसे लोगों को राष्ट्रद्रोही कहते हुए उनके आवाज को दबाने की कोशिश भी की जायेगी।
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ग्रामसभा के अधिकार पर चोटः सुप्रीम कोर्ट ने ‘‘ओड़िसा माईनिंग काॅरपोरेशन बनाम वन व पर्यावरण मंत्रालय एवं अन्य (सी) सं. 180 आॅफ 2011’’ में फैसला दिया है कि आदिवासियों के निजी एवं सामुदायिक अधिकार, धार्मिक एवं संस्कृतिक अधिकार एवं गांव के संसाधनों को लेकर निर्णय लेने के लिए सक्षम है। लेकिन क्या विकास के नाम पर ग्रामसभा के अधिकार को छीना जा सकता है?
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प्राकृतिक संसाधनों की लूट:झारखंड में देश का 40 प्रतिशत खनिज सम्पदा हैं यहां 1925 से विकास के नामपर खनन कार्य किया जा रहा है, जिससे प्रतिवर्ष 15,000 करोड़ मूल्य का खनिज सम्पदा का उत्खनन किया जा रहा है। लेकिन राज्य में 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन-बसर करने को मजबूर हैं। ऐसा स्थिति इसलिए है क्योंकि सत्ता में बैठे लोगा यहां के आदिवासी और मूलवासियों के जीवन में बलाव लाना नहीं चाहते हैं बल्कि विकास का सब्जबाग दिखाकर खनिज सम्पदा को लूटना इनका मूल मकसद है।
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पर्यावरण पर प्रभाव:झारखंड का अर्थ झाड़-जंगल का इलाका लेकिन यहां बड़े पैमाने पर औद्योगिक विकास होने के कारण राज्य में जंगल मात्र 29 प्रतिशत बचा हुआ है जो पर्यावरण संतुलन के लिए जरूरी 33 प्रतिशत से कम है। झारखंड गठन के समय यहां का अधिकतम तापमान 32 डिग्री संल्सियस था जो बढ़कर 2016 में 48.6 पर पहुंच चुका है। राज्य की छोटी-बड़ी 141 नदियों प्रकृतिक बहाव खो चुकी हैं। मौसम बदलने के कारण ठीक से खेती नहीं हो रहा है। बावजूद इसके झारखंड सरकार ने 210 एमओयू किया है। राज्य में इतने उद्योग लगाने के लिए जंगलों को उजाड़ा जायेगा, नदियों में उद्योगों का कचड़ा डाला जायेगा और वायु प्रदूषण बढ़ेगा। इसका असर पर्यावरण पर होगा। चीन के 74 शहरों में से 71 शहरों में आॅक्सीजन खरीदना पड़ रहा है। कनाडा की एक कंपनी ने भारत में भी आॅक्सीजन बेचने का प्रस्ताव रखा है, जिसके लिए एक बार सांस लेने का कीमत 12.50 रूपये होगा। आने वाले समय में पानी की तरह ही बोतलों में बंद आॅक्सीजन भी खरीदना होगा। क्या पूंजीपतियों को हम झारखंड को बर्बाद करने दे सकते है?
झारखंड संघर्ष की धरती है इसलिए यहां के सत्ताधीशों को जमीन की अवधारणा को समझना होगा। जमीन आदिवासियों के लिए सम्पति नहीं है बल्कि यह उनकी विरासत, पहचान, संस्कृति, परंपरा और अस्तित्व से जुड़ा हुआ है। सीएनटी एक्ट एवं एसपीटी एक्ट को आदिवासियों का रक्षा कवच कहा जाता है क्योंकि इन कानूनों का मूल भावना है रैयत की जमीन रैयत के पास रहे या यूं कहें कि आदिवासी की जमीन आदिवासी के पास ही रहना चाहिए। इसलिए यह सोचने का समय है। सरकार के द्वारा आदिवासियत पर जो ठेस पहुंचाया जा रहा है इसे गहराई से प्रत्येक आदिवासी और मूलवासी को दिल से एहसास करना और सही कदम उठाने का वक्त है। यदि नहीं तो हम अपने पूर्वजों का अनादर कर रहे हैं और आनेवाली भावी पीढ़ि को जवाब नहीं दे सकेंगे। क्या हमलोग अपने सुन्दर झारखंड को लूटने देंगे?