डायन, यानी अलौकिक शक्तियों (जादू-टोना) से लैस एक ऐसी औरत, जो दूसरों का बुरा ही करती है. ऐसी डायन के अस्तित्व पर यकीन तो पूरी दुनिया में सदियों से रहा है. पर धीरे धीरे समाज इस अंधविश्वास से मुक्त होता जा रहा है. जैसे भूत से भी. लेकिन झारखंड और बिहार जैसे राज्यों पर से डायन का भूत उतरने का नाम ही नहीं ले रहा है! अब यह भी स्पष्ट हो चुका है कि ‘डायन’ महज अंधविश्वास या भय का नतीजा नहीं है, इस मान्यता का इस्तेमाल चालाक और धूर्त लोग किसी अकेली निरीह औरत को परेशान करने और उसके नाम की संपत्ति हड़पने के लिए भी करते हैं. अन्यथा क्या कारण है कि ज्यादातर मामलों में डायन उसी औरत को करार दिया जाता है, जो विधवा हो, निःसंतान हो, निरीह और उम्रदराज हो?
डायन प्रथा के बारे में समाज को जागरूक करने के प्रयास लगातार चलते रहे हैं. मगर लगता है, या तो इन प्रयासों में गंभीरता या निरंतरता का अभाव है या फिर समस्या की गंभीरता के अनुरूप पर्याप्त नहीं है. बहरहाल, डायन समस्या बदस्तूर जारी है. गत 29 मार्च के भास्कर (रांची) में छपी खबर के अनुसार 25 मार्च को अडकी प्रखंड के शशांग गांव में 25 वर्षीय अविवाहित युवती देवकी सांगा की पड़ोसियों ने गला काट कर हत्या कर दी. पुलिस के मुताबिक एक साल पहले हत्या के आरोपी जबरा मुंडा के भाई की किसी बीमारी से मौत हो गयी थी. जबरा को संदेह था कि देवकी ने ही जादू-टोना किया था, जिससे उसकी मौत हुई. तभी से वह उसकी हत्या करने की ताक में था. उधर 29 मार्च को ही दैनिक जागरण में प्रकाशित समाचार के अनुसार बिहार के पूर्णिया जिले के मोहनपुर थाना क्षेत्र के कांप गांव में 70 साल की रामवती देवी को डायन होने के संदेह में कुछ लोगों ने जिंदा जला दिया. मृतका की बहू के मुताबिक पड़ोस के एक बच्चे की सांप के डंसने से मौत हो गयी थी. उसके परिजनों ने इसके लिए रामवती को जिम्मेदार ठहरा दिया! उसी दिन के अखबार के मुताबिक मोतिहारी के किसी गाँव में कुछ लोगों ने डायन होने का आरोप लगा कर एक महिला के साथ मारपीट की और उसे मैला पिलाने का प्रयास किया! यह है 21वीं सदी का भारत!.
उल्लेखनीय है कि बिहार सरकार द्वारा 1998 में डायन प्रथा निरोधात्मक कानून लागू किया गया. झारखंड बनने के बाद 2001 से ही यहाँ भी डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम लागू है. मगर हर दो चार दिन में कही न कहीं कोई औरत डायन कह कर प्रताड़ित की जाती है, मार दी जाती है. समाज के कथित संस्कृति रक्षक इसके पक्ष में लाठी लेकर खड़े हो जाते है. ना जाने कितनी जीतन देवी, दुबहन देवी (सभी 70-75 वर्ष की) को नंगा कर घुमाया गया. लगातार पीटा गया और मार दिया गया. शैतानियत के क्रूर पंजों ने आज तक कितनी ही औरतों (कभी-कभी पुरुषों को भी) को अपना शिकार बनाया है. सामुदायिक कार्यवाई के इस क्रूर चेहरे को पहचानने की जरुरत है. आखिर जहाँ बुजुर्गों का आदर करने, उनके देखभाल की परंपरा है, वहां नानी- दादी जैसी महिलाओं को यह कैसा बर्ताव झेलना पड़ रहा है? इसके पीछे किन ताकतों का हाथ है? किनके निहित स्वार्थ हैं?
थाना पुलिस कई बार ऐसे ज्यादातर मामलों में धार्मिक-सांस्कृतिक मामला कह कर और मान कर भी हस्तक्षेप करने से बचती है या टालती है. कुछ दिन पहले रातू क्षेत्र में ऐसी ही हत्या के एक मामले में जब पुलिस पहुँची तो गाँव के लोग आक्रामक हो गये. कई बार इसे रीति-रिवाजों और परंपरा पर आक्रमण कह कर जातीय रंग देने की कोशिश होती है. यह तो सच है ही कि समाज का बड़ा हिस्सा यह मानता है कि ऐसे लोग और बुरी ताकते हैं और उनके साथ क्रूरता जरूरी है. पर चालाक और स्वार्थी तत्वों द्वारा लोगों के इस अंधविश्वास का फायदा उठाया जाता है. डायन घोषित कर हत्या या प्रताड़ना के लगभग शतप्रतिशत मामलों में चिन्हित स्त्री को संपत्ति से वंचित करने या उसे सामाजिक रूप से बदनाम करने का षड़यंत्र ही रहता है, ताकि औरत अपनी संपत्ति छोड़ भाग जाये. यदि डरी या भागी नहीं, तो उसकी हत्या तक कर दी जाती है. कभी कभी बदला लेने या शरीर भोगने का मामला भी होता है. कई बार ओझा अपनी जडी- बूटियों के असफल होने पर भी किसी औरत को डायन घोषित कर किसी निरीह को आग में झोक देता है. और ओझागिरी के नाम पर उसकी ऐश मौज चलती रहती है. प्रायः देखने में आता है कि यह किसी स्वाबलंबी, जागरूक और तेज तर्रार महिला को उसकी औकात बताने का भी एक हथियार बन गया है.
झारखंड के आदिवासी/जनजातीय समुदायों में स्त्रियों/बहू-बेटी को पारिवारिक जमीन में कोई अधिकार नहीं है. हालाँकि सामाजिक परंपरा के तहत, जिसका अब भी सही तरीके से पालन भी हो रहा है, उनको भरण-पोषण का पूरा हक़ है. लेकिन धीरे धीरे ऐसी निराश्रित महिलाओं से ‘मुक्ति’ पाने के लिए भी उन्हें डायन करार देने की घटनाएँ सामने आने लगी है.
आज बुलेट ट्रेन चलाने की बात हो रही है. डिजिटल इंडिया बन रहा है. इकोनामी कैशलेस हो रही है. लेकिन समाज में ये सारे अन्धविश्वास चल रहे हैं. हमारी मानसिकता सदियों पुरानी, खास कर स्त्रियों को लेकर, बनी हुई है. और विडम्बना यह कि देश और समाज के रहनुमाओं को इसे लेकर कोई चिंता भी है, यह नहीं दिख रहा.