झारखंड की राजधानी रांची स्थित ‘खेलगांव’ में 16-17 फरवरी, 2017 को ‘मोमेंटम झारखंड’ के अन्तर्गत आयोजित ‘ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट’ के मद्देनजर राज्य में एक बार फिर से ‘औद्योगिक विकास’ का तूफान आ खड़ा हुआ था। राज्य के चारों तरफ ‘औद्योगिक विकास’ पर चर्चाओं का बाजार गर्म था। कोई बोलता, ‘‘झारखंड बदल रहा है’’ तो कोई कहता, ’‘देश बदल रहा है’’। ‘विकास’ के इस शोरगुल के बीच हमलोग भी ‘विकास’ देखना चाहते थे। लेकिन रांची में नहीं जहां सरकारी खजाना में जमा आम-जनता के टैक्स का 300 करोड़ रूपये को देश-विदेश से आये 11,000 पूंजीपतियों के आगवानी और उनको विकास दिखाने के लिए पानी की तरह बहाया गया। बल्कि हमलोग सिंहभूम में विकास देखना चाहते थे जहां देश के औद्योगिक विकास की नीव पड़ी थी। यह वही इलाका है जहां ‘हो’, ‘भूमिज’ और ‘मुंडा’ आदिवासी लोग रहते हैं तथा लौह-अयस्क का आकूत भंडार है। विकास और आर्थिक तरक्की के नाम पर एशिया का सबसे बड़ा सखुआ के जंगला को उजाड़कर और पहाड़ों को खोदकर यहां प्रतिवर्ष 3000 करोड़ रूपये मूल्य का लौह-अयस्क का उत्खनन किया जाता है। लेकिन यहां रहने वाले आदिवासी लोग आज भी दो वक्त की रोटी के लिए जुझ रहे हैं। मन में कई सवाल उठता है। यह कैसा विकास है? किसके लिए विकास? और विकास की कीमत कौन चुका रहा है?

28 मार्च 2017 को इंग्लैड के ससेक्स विश्वविद्यालय के पर्यावरण इतिहासकार प्रोफेसर विनिता दामोदरण, जापान के क्योटो विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर रोहन डिसूजा और मैं ‘विकास’ की खोज में झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले स्थित सारंडा जंगल की ओर निकल पड़े। पोड़ाहाट से लेकर सारंडा तक पूरे जंगल में आग लगा हुआ था। लेकिन इस आग को बुझाने वाला कोई नहीं दिखा क्योंकि शायद यह आग वन विभाग के पदाधिकारियों ने ही लगाया था। अब वन विभाग प्राकृतिक जंगलों को नष्ट कर सागवान का जंगल लगा रहा है, जिससे आदिवासी, वन्यजीवन और जैव विविधता तबाह हो जायेंगे। कम्पा कानून 2016 के तहत वृक्षारोपन के लिए केन्द्र सरकार ने झारखंड सरकार को 399 करोड़ रूपये दिया है। वन विभाग ने प्राकृतिक जंगलों को जलाकर नष्ट करने के बाद इस पैसे से सागवान का जंगल लगाने का काम भी कहीं-कहीं शुरू किया गया है। आदिवासी, जैव विविधता और पर्यावरण से सारोकार रखने वालों के लिए यह दर्दनाक खबर है। लेकिन यही आधुनिक विकास है, जहां आदिवासी, वन्यजीवन, पर्यावरण, जैवविविधता और प्राकृतिक जंगलों के लिए कोई जगह नहीं है क्योंकि ये पिछड़ेपन के द्योतक माने जाते हैं। आजकल आॅक्सीजन पार्क में टहलना, बोतल में बंद पानी खरीदकर पीना और चौमिन खाना विकास है। क्या हमलोग कभी यह सोचते हैं कि कैसे खुबसूरत प्रकृति को हम अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए बर्बाद कर रहे हैं?

एक लंबा सफर तय करने के बाद हमलोग नोवामुंडी पहुंचे जहां झारखंड आंदोलन के एक क्रांतिकारी युवा नेता मंगल सिंह बोबांेगा, गितिलोर के मुंडा रेकोंडा हेम्ब्रम एवं मेरालगड़ा के मुंडा जयराम बारजो हमारा इंतिजार कर रहे थे। स्वागत-परिचय का रस्म पूरा करने के बाद हम लोगों ने मिलकर सारंडा जंगल, आदिवासी और सिंहभूम में औद्योगिक विकास का इतिहास छानने की कोशिश की। आदिवासी समाज के पारंपरिक नेतृत्वकर्ता - मुंडा, मानकी या पाहन स्वंय में इतिहास की पोथी हैं। उनके पास कलम, काॅपी और पोथी शायद ही होता हैं लेकिन जब वे बोलना शुरू कर देते हैं तो उस क्षेत्र का सम्पूर्ण इतिहास को सामने लाकर रख देते हैं। इन लोगों ने भी हमें यहां के इतिहास से रू-ब-रू करवाया। सारंडा का अर्थ है ‘सात सौ पहाड़ों का जंगल’ जो 860 वर्गकिलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। यह एशिया का सबसे बड़ा सखुआ का जंगल है। नोवामुंडी का अर्थ भी पहाड़ है जो सारंडा जंगल के सात सौ पहाड़ों में से एक था, लेकिन लौह-अयस्क उत्खनन के कारण अब यह एक छोटा शहर में तब्दील हो चुका है। यहीं से देश में खनन और औद्योगिक विकास की शुरूआत हुई थी।

ऐसा माना जाता है कि ‘हो’, मुंडा और ‘भूमिज’ लोग एक ही समूह से आते हैं जो सिंहभूम के प्रथम निवासी हैं। सारंडा वनक्षेत्र सिंहभूम का ही एक हिस्सा है जहां मूलतः ‘हो’ और ‘मुंडा’ आदिवासी लोग रहते हैं, जिनकी जनसंख्या लगभग 125,000 है। ये लोग इन पहाड़ों के बीच-बीच में समतल जगहों पर खेती करते है और गांव बसाकर सदियों से रह रहे हैं। लौह-अयस्क की खोज में इस इलाके का भ्रमण करते समय ‘हो’ आदिवासियों को लोहा से बना कुल्हाड़ी का उपयोग करते हुए देखकर भूगर्भ-वैज्ञानिक आश्चर्य चकित थे। उन्होंने इन आदिवासियों से पूछा कि यह लोहा उन्हें कहां से मिला? जवाब में आदिवासियों ने नोवामुंडी पहाड़ की ओर इशारा किया। और जब ये भूगर्भ-वैज्ञानिक नोवामुंडी पहाड़ पर गये तो उन्हें लौह-अयस्क का आकूत भंडार मिल गया जिसकी वे खोज में थे। लेकिन आदिवासियों का यह इशारा उनके लिए ही विनाश का कारण बन गया। टिस्को कंपनी जो अब टाटा स्टील लिमिटेड के रूप में जाना जाता है यहां लौह-अयस्क का उत्खनन शुरू किया, जिसके लिए कंपनी ने आदिवासियों को मुआवजा दिये बगैर ही उनकी जमीन और घर-बारी से बेदखल कर दिया।

उद्योगपति जमशेद नासरवान टाटा ने कई देशों के अपने व्यापारिक भ्रमण के दौरान भारत में एक अत्याधुनिक ‘आयरन एवं स्टील’ कंपनी बनाने का सपना संजोया। भारत लौटने के बाद उन्होंने वर्तमान झारखंड राज्य के पूर्वी सिंहभूम जिले स्थित कालीमाटी नामक गांव में इंटिग्रेटेड स्टील प्लांट लगाने की योजना बनायी। इसी बीच जर्मनी यात्रा के दौरान 19 मार्च 1904 को उनका निधन हो गया। लेकिन उनके सपने को पूरा करने के लिए उनके बेटे दोराबजी टाटा ने 26 अगस्त, 1907 को इंडियन कंपनी एक्ट 1882 के तहत ‘टाटा आयरन एवं स्टील कंपनी लिमिटेड’ (टिस्को) की स्थापना की। इस तरह से टिस्को ने 1907 में टाटा स्टील एवं 1911 में टाटा पावर की स्थापना की। कंपनी ने इसके लिए कालीमाटी और साकची के आप-पास के आदिवासियों का 24 गांवों को कब्जा किया, जहां भूमिज, हो एवं संताल आदिवासी निवास करते थे। आदिवासियों को अपनी जमीन, घर और बारी से बेदखल होना पड़ा लेकिन उन्हें मुआवजा के रूप में कुछ नहीं दिया गया। बल्कि उल्टे टिस्को जमींदार बनकर इन आदिवासियों से उनकी बची-खुची खेती की जमीन का लगान वसूलता था।

इसी बीच 1925 में टिस्को ने नोवामुंडी में लौह-अयस्क का उत्खनन कार्य शुरू करने की प्रक्रिया प्रारंभ किया। गितिलोर के मुंडा रेकोंडा हेम्ब्रम बताते हैं कि 1927 में टिस्को कंपनी ने लौह-अयस्क उत्खनन के लिए तीन गांवों - चिरूबेड़ा, बालीजोर एवं कोड़ता के आदिवासियों को विस्थापित करते हुए उनकी खेती की जमीन, घर और बारी को कब्जा कर लिया लेकिन उन्हें एक पैसा भी नहीं दिया। वे लोग आज भी मुआवजा के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ये विस्थापित आदिवासी लोग अपने गोत्र के मुंडाओं एवं संबंधियों के सहयोग से गितिलोर, डुकासाई, मसरीबेड़ा, मुर्गा एवं मेरालगड़ा में बस गये। इन विस्थापितों में से कोड़ता गांव के 10 परिवारों को ‘हेम्ब्रम’ गोत्र के होने के कारण गुंडीजोड़ा गांव के मुंडा रोबड़ो हेम्ब्रम ने गितिलोर में बसाया। ये लोग आज 10 परिवार से बढ़कर 60 परिवार हो गये हैं, जिनकी जनसंख्या लगभग 250 है। वर्तमान में टाटा कंपनी को नोवामुंडी में 1160.06 हेक्टेअर क्षेत्र का खनन लीज मिला है, जिसका कीमत चुकाये बगैर ही कंपनी अरबों रूपये कमा रहा है और आदिवासी लोग विस्थापन का दर्द झेल रहे हैं।

मंगल सिंह बोबोंगा बताते है कि टाटा कंपनी के द्वारा कोड़ता गांव में किये गये अधिगृहित जमीन पर ‘हो’ आदिवासियों का पूजास्थल ‘देशाउली’ है। ऐसा माना जाता है कि ‘देशाउली’ में ‘मरांग बुरू’ यानी हो आदिवासियों के भगवान रहते हैं इसलिए किसी भी व्यक्ति को ‘देशाउली’ से एक पŸाा भी लेने की इजाजत नहीं दी जाती है। लेकिन टाटा कंपनी ने ‘देशाउली’ को भी कब्जा कर लिया है, जिसके खिलाफ 2012 में आदिवासियों ने आंदोलन किया। फलस्वरूप, ‘देशाउली’ में पूजा करने हेतु आदिवासियों को घुसने के लिए टाटा कंपनी को गेट खोलना पड़ा। लेकिन टाटा कंपनी आज भी आदिवासियों को ‘देशाउली’ में पूजा करने के लिए वर्ष में सिर्फ एक ही बार घुसने की इजाजत देता है। क्या विकास का माॅडल कहलाने वाला टाटा कंपनी दूसरे धर्मावलंबियों के साथ भी ऐसा ही सुलूक करता? क्या यह आदिवासियों के धार्मिक आस्था के साथ खिलवाड़ नहीं है? क्या टाटा कंपनी आदिवासियों के भगवान के घर को भी कब्जा करने की ताकत रखता है? टाटा कंपनी को किसने यह अधिकार दिया है? क्या टाटा कंपनी को आदिवासियों से माफी नहीं मांगनी चाहिए?

नोवामुंडी में औद्योगिक विकास और आदिवासियों के विनाश का इतिहास से रू-ब-रू होने के बाद हमलोग गितिलोर गांव की ओर चल पड़े क्योंकि हम विकास में उन आदिवासियों की भागीदारी देखना चाहते थे जिन्होंने अपनी खेती की जमीन, घर-बारी और सबकुछ देश के विकास के लिए टिस्को यानी टाटा कंपनी को सौंप दिया था। दिन के लगभग एक बज रहे थे। चाईबासा-नोवामुंडी मुख्यसड़क को छोड़ते ही हमारी गाड़ी गड्ढ़ों से भरे कच्ची सड़क पर हिचगोले खाने लगी। इसी से गांव के विकास की परिकल्पा की जा सकती थी। आजादी के सात दशक और टाटा कंपनी द्वारा इस क्षेत्र में विकास के नाम पर लौह-अयस्क का उत्खनन करते हुए नौ दशक बीत चुके हैं लेकिन जिन आदिवासियों की जमीन पर लौह-अयस्क का उत्खनन हो रहा है उनके गांव को मुख्य सड़क से जोड़ने के लिए एक पक्का सड़क तक नसीब नहीं हुआ है। यह कैसा विकास है? लौह-अयस्क का उत्खनन किसके लिये? क्या विकास का अर्थ सिर्फ पूंजीपतियों को मुनाफा पहुंचाना है?

इसी बीच हम लोग गितिलोर पहुंचे। गांव में सन्नाटा पसरा हुआ था मानो किसी का देहांत हो गया हो। गांव के एक हिस्से में आम के पेड़ों के नीचे ससानदिरी के पत्थरों पर गांव के कुछ लोग बैठे हुए थे। ऐसा नजारा था जैसे ये आदिवासी लोग अपने पूर्वजों के साथ ही रहते हैं। गांव में अधिकांश घर टूटा-फूटा था। केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा आवास योजना के तहत बनाये जाने वाले इंदिरा आवास या बिरसा आवास इनके लिये नहीं है शायद? झारखंड सरकार ने गांव में एक काम तो जरूर किया है। यहां प्रत्येक परिवार के लिए एक शौचालय की व्यवस्था है लेकिन 60 परिवारों में से कोई भी शौचालय का उपयोग नहीं करता है क्योंकि यहां पानी की किल्लत है। आधे से ज्यादा चपाकल बंद पड़े हैं। यहां के आदिवासियों के पास न तो रोजगार की व्यवस्था है और न ही रहने के लिए ठीक से घर लेकिन सरकार ने शौचालय बनवाया है। ये शौचालय बंद पड़े है या गांव वाले उसका उपयोग सामान रखने के लिए करते है। दरअसल सरकारी योजना ऐसा ही होता है। बस किसी तरह खानापूर्ति।

गांव में विकास देखते समय अचानक मेरी नजर गांव के उपर से गुजरने वाली बिजली तार पर पड़ी। मैंने गांव के मुंडा से पूछा, ‘‘क्या गांव में बिजली है?’’ बिजली तार को निराशा भाव से निहारते हुए मुंडा ने जवाब दिया, ‘‘बिजली नहीं है और हमें नहीं मालूम कि इस गांव में कभी बिजली भी आयेगी या नहीं?’’ टाटा कंपनी के नोवामुंडी स्थित प्लाॅट में बिजली पहुंचाने के लिए बोकारों के डिविसी से बिजली का तार खींचा गया है जो गितिलोर गांव से होकर गुजरती है। यह कितना दुःख है कि टाटा कंपनी के लिए बोकारो से बिजली सप्लाई किया जाता है लेकिन उन आदिवासियों के घरों में अबतक बिजली नहीं पहुंचायी गयी है जिनके जमीन से लौह-अयस्क निकालकर टाटा दुनियां में अपना व्यापार चला रहा है और देश में आधुनिक विकास का माॅडल बना हुआ है। गांव के आदिवासी प्रतिदिन सिर्फ बिजली तार को देखते रहते हैं। इन आदिवासियों के साथ ऐसा दुव्र्यवहार करने के लिए क्या रतन टाटा को देश के सामने शर्म से अपना सिर नहीं झुका लेना चाहिए?

गितिलोर गांव में एक सरकारी विद्यालय है, जहां बच्चों को दोपहर में प्रतिदिन खिचड़ी मिलता है लेकिन यहां मौलिक शिक्षा गायब है इसलिए माॅं-बाप अपने बच्चों को विद्यालय भेजने के प्रति बहुत उत्साहित नहीं दिखे। विद्यालय चल रहा था लेकिन बहुत सारे बच्चे अपने मां-बाप के साथ महुआ चुन रहे थे या हवा के झोकंे से गिरा हुआ छोटे-छोटे आम को चुन-चुनकर खा रहे थे। गांव में पांच लड़के इंटर पास हैं लेकिन एक भी लड़की ने आजतक यहां मैट््िरक पास नहीं किया है। इंटर पास युवा टाटा कंपनी से नौकरी मांगते हैं तो कंपनी के पदाधिकारी इन्हें आई.टी.आई. का प्रशिक्षण प्राप्त कर आने की सलाह देते हैं। युवा सवाल उठाते हैं कि हमारे पास आई.टी.आई. का ट्रेनिंग करने के लिए पैसा कहां है? यदि हमारे पास पैसा होता तो हम आगे नहीं पढ़ते? टाटा कंपनी के नोवामुंडी परियोजना में बाहर के लगभग 1600 लोग नौकरी कर रहे हैं लेकिन कंपनी इन आदिवासियों को काम नहीं देती है, जिनकी जमीन पर लौह-अयस्क का उत्खनन कार्य चल रहा है। झारखंड सरकार कहती है कि देशी-विदेशी कंपनियों के द्वारा राज्य में पूंजीनिवेश करने से लाखों लोगों को रोजगार मिलेगा। लेकिन हकीकत देखिये कि पूंजीनिवेश किसके जमीन पर हो रहा है और नौकरी किसको मिला है? क्या यह आदिवासियों के साथ अन्याय नहीं है? जब स्थिति ऐसी है तो लोग कंपनियों को अपनी जमीन क्यों देंगे?

गितिलोर गांव के आस-पास एक भी स्वस्थ्य केन्द्र नहीं है इसलिए बीमार पड़ने पर गांव के आदिवासी लोग जड़ी-बूटी से अपना इलाज करते हैं और गंभीर अवस्था में नोवामुंडी स्थित टाटा कंपनी द्वारा स्थापित अस्पाताल में जाते हैं। लेकिन टाटा कंपनी के व्यवहार से गांव के सुखराम हेम्ब्रम बहुत गुस्से में हैं। वे कहते हैं, ‘‘टाटा कंपनी हमारे जमीन पर खनन कार्य कर रहा है लेकिन जब हम गांव के बीमार लोगों को लेकर कंपनी के हाॅस्पिटल में जाते हैं तो दवा खरीदने के लिए भी पैसा देना पड़ता है। क्या हमें दवा मुफ्त में नहीं मिलना चाहिए?’’ इन लोगों के साथ विकास की बात आप कैसे करेंगे जो पिछले नौ दशकों से अपनी खेती की जमीन, घर-बारी के साथ सबकुछ खोकर टाटा कंपनी को फूलते-फलते देख रहे हैं? क्या सरकार को इनकी सुधी नहीं लेनी चाहिए? विकास पर भाषण किसके लिये?

गांव के एक छोर पर कटहल पेड़ के नीचे बैठे बूजुर्ग इस बात से चिंतित दिखे कि मौसम बदलने से गांव में खेती और वनोपज दोनों पर जबर्दास्त प्रभाव पड़ा है। पिछले कुछ वर्षों से एक तरफ जहां खेती ठीक से नहीं हो रही है तो वहीं वनोपज में भी भारी कमी आयी है। गांव की अर्थव्यवस्था खेती, वनोपज और पशुपालन पर ही किसी तरह टिका हुआ है। गांव के लोग मुश्किल से दो शांम खाना खाते हैं। खाने में मूलतः भात और जंगल से मिलने वाला साग। मंहगाई के कारण गांव में दाल और मांस तो पर्व-त्योहार और शादी को छोड़कर कभी किसी को नसीब ही नहीं होता है। मेरालगड़ा के मुंडा जयराम बारजो कहते हैं, ‘‘गांव के लोगों को दाल नसीब नहीं होता है क्योंकि उनके पास दाल खरीदने के लिए पैसा नहीं है। लोग किसी तरह जिन्दा हैं वही काफी है।’’ महिलाएं और बच्चे खून की कमी और कुपोषण से जुझ रहे हैं। गांव मेें कुपोषित बच्चों की भरमार है। गांव में नजर डालते ही चारों तरफ अर्द्धनग्न कुपोषित बच्चे दिखाई पड़ते हैं। इनके भविष्य के बारे में सोचकर डर लगने लगता है। क्या ये देश के बच्चे और भविष्य हैं भी जिनका वर्तमान ही अंधेरा है?

गांव के दूसरे छोर पर कुसुम पेड़ के नीचे कुछ आदिवासी महिलाएं अपने कुपोषित बच्चों के साथ भात में पानी डालकर, नमक और प्याज के साथ खा रही थीं। ये महिलाएं महुआ के फूलों के गिरने का बेसब्री से इंतिजार कर रही थी, जो सूर्य की तपती धूप से एक-एक कर पेड़ से टपक रही थीं। ग्रीष्मकाल में महुआ इन आदिवासियों के आजीविका का एक बहुत बड़ा स्रोत है। वे प्रतिदिन महुआ के फूलों को चुनते हैं और उसे धूप में सुखाने के बाद स्थानीय बाजार में बेचते हैं। इसके अलावा महुआ से कई तरह का व्यंजन बनाकर खाते हैं। लेकिन झारखंड सरकार ने फरमान जारी किया है कि एक परिवार सिर्फ 15 किलो महुआ रख सकता है, जिससे लोग चिंतित हैं। यह कैसा फरमान है? आप व्यापारियों को बेहिस्साब समान इक्ट्ठा करने देंगे, अमीर लोग करोड़ों रूपये रख सकते हैं और पूंजीपतियों को आकूत सम्पति रखने की इजाजत है। लेकिन आदिवासी लोग 15 किलो से ज्यादा महुआ नहीं रख सकते हैं। यह कहां का न्याय है? सरकार आदिवासियों को क्यों सताना चाहती है?

गांव के मुंडा रेकांेडा हेम्ब्रम बताते हैं कि टाटा कंपनी के द्वारा अधिगृहित जमीन का मुआवजा के लिए चिरूबेड़ा, बालीजोर एवं कोड़ता के विस्थापित आदिवासियों ने 1996 में एस.डी.ओ. कोर्ट, चाईबासा में एक मुकदमा दायर किया, जिसकी सुनवाई दो दशक तक चली, जिसके लिए इन विस्थापितों ने बेहिस्साब पैसा खर्च किया। लेकिन 28 जनवरी, 2017 को न्यायालय ने यह कहते हुए मामले को खारिज कर दिया कि यह बहुत पुराना मामला है। लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि न्यायालय को इस मामले को सिर्फ पुराना मामला बताकर खारिज करने के लिए बीस साल का समय क्यों लगा? क्या इन आदिवासियों के साथ टाटा कंपनी के द्वारा किये गये ऐतिहासिक अन्याय में न्यायालय ने स्वयं को भी भागीदार नहीं बना लिया? ये आदिवासी लोग कहां न्याय मांगने जायेंगे?

देश के विकास के लिए गितिलोर में बसे कोड़ता गांव के विस्थापित आदिवासियों के साथ किया गया अन्याय और उनका विनाश देखने के बाद हमलोग टाटानगर जमशेपुर गये, जहां देश के औद्योगिक विकास का इमारत खड़ा है लेकिन आदिवासी गायब हैं। जमशेदपुर और नोवामुंडा के विकास की कहानी बताती है कि औद्योगिक विकास में आदिवासियों का अस्तित्व मिटना निश्चित है। टाटा कंपनी के 100 साल के सफर में कंपनी देश में विकास का माॅडल बन गया, आदिवासियांे का गांव कालीमाटी टाटानगर जमशेदपुर में तब्दील हो गया तथा जमशेदपुर में आदिवासियों की जनसंख्या 95 प्रतिशत से घटकर 5 प्रतिशत पर पहुंच गया। इसी तरह नोवामुंडी एक पहाड़ से तब्दील होकर छोटा शहर बन गया और इस इलाके से आदिवासी गायब हो गये। जमशेदपुर और नोवामंडी में आदिवासियों को उनकी जमीन, घर और बारी से विकास के नाम पर बेदखल करने के बाद बिहार, बंगाल, ओड़िसा एवं अन्य राज्यों से नौकरी करने आये गैर-आदिवासी यहां स्थापित हो चुके हैं। यहां की व्यापारिक गतिविधि, राजनीति और अर्थव्यवस्था अब इनके नियंत्रण में है। यही है औद्योगिक विकास ही हकीकत, जिसको आदिवासियों को समझना होगा।

भारत के आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू ने रूस से आधुनिक विकास माॅडल लाकर देश में औद्योगिक विकास को गति प्रदान की। उनका मानना था कि औद्योगिकरण से गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी दूर होगी और देश का सरकारी खजारी भी दुरूस्त होगा। लेकिन नेहरू का सपना आदिवासी समाज के बर्बादी का मूल कारण बना। औद्योगिक विकास ने खेती, वनोपज और पशुपालन पर आधारित आदिवासी समाज के अर्थव्यवस्था की रीढ़ को तोड़ दिया क्योंकि उद्योग लगाने, डैम बनाने और खनन कार्यों के लिए आदिवासियों को उनकी खेती की जमीन, जंगलों, पहाड़ों, जलस्रोतों और खनिज से भरे इलाकों से बेदखकर कर दिया गया। इन विकास परियोजनाओं का लाभ सिर्फ पूंजीपतियांे, जमींदारों, परियोजना पदाधिकारियों, इंजीनियरों, ठेकेदारों, राजनेताओं तथा बाहरी गैर-आदिवासियों को मिला।

आज देश में औद्योगिक विकास आदिवासियों के लिए दानव बन चुका है। सिर्फ आदिवासी समाज ही विकास की कीमत चुका रहा है। इसके बावजूद झारखंड सरकार ने पिछले दिनों काॅरपोरेट घरानों के साथ 210 नये एम.ओ.यू. पर हस्ताक्षर किया है। इसलिए आने वाले समय में ये कंपनियां जहां-जहां स्थापित होंगे आदिवासी वहां-वहां विस्थापित होंगे। ऐसी स्थिति में यदि आदिवासी समाज को अपना अस्तित्व बचाकर रखना है तो उसे अपनी जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत और खनिज सम्पदा को बचाने के लिए संघर्ष करना होगा क्योंकि औद्योगिक विकास आदिवासियों के विनाश का सबसे बड़ा कारण है।