ऐसा अमूमन वही लोग कहते हैं, जो हमेशा से आरक्षण, यानी सामाजिक न्याय के विरोधी रहे हैं। जो सदियों से जारी सामाजिक गैरबराबरी को महसूस नहीं करते या जान कर भी अनजान होने का दिखावा करते हैं। जिन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिलता और लगता है कि यह उनके हितों के खिलाफ है। पर सच यही है कि ऐसे लोगों ने कभी भी इस प्रावधान को मन से स्वीकार नहीं किया. हमेशा कोई नया तर्क लाकर इसका विरोध करते रहे हैं. कई बार तो फूहड़ और आक्रामक ढंग से भी. कुछ ऐसे भी हैं, जो महज अपनी ‘जमात’ के हित के कारन आरक्षण के पक्ष में होते हुए भी एक अपराध-बोध से ग्रस्त रहते हैं. इसलिए कि उनके पास इसके लिए कोई ठोस तर्क नहीं होता.

जब से कथित सोशल मीडिया का जोर-प्रचालन बढ़ा है, फेसबुक और वेट्स अप पर तो आरक्षण के खिलाफ एक अभियान-सा छिड़ गया है. किसी अदालत के फैसले को उसके सन्दर्भ से काट कर यह बात फैला दी जाती है कि फलां कोर्ट या सरकार ने आरक्षण पर रोक लगा दी. अब खबर है कि यूपी की योगी सरकार ने निजी शिक्षा संस्थानों में दाखिले में आरक्षण पर रोक लगा दी है. हो सकता है, यह सरकारी शिक्षा संस्थानों और नौकरियों से भी आरक्षण समाप्त करने की दिशा में उठाये जानेवाले कदम की शुरुआत हो.

जो भी हो, जो ऐसा कहते हैं कि आरक्षण से कोई लाभ नहीं हुआ है, वे जरा अपने आस पास देखें। आज सरकारी महकमों में दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदायों के जितने लोग नजर आते हैं, जो बीडीओ-सीओ, दारोगा, इंजीनियर-डॉक्टर और तृतीय व चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी दिखते हैं और जिन्हें देख कर शायद वे कुढ़ते भी हैं, इसे ‘प्रतिभा का हनन’ मानते हैं, उनमें से अधिकतर आरक्षण के कारण ही इस स्थिति तक पहुंचे हैं। आज शहरों में आपके बगल में ऐसे लोगों के जो मकान दिखने लगे हैं और जो आपकी तरह ही बाइक या कार तक रखने लगे हैं, उसमें भी आरक्षण का योगदान है। कमाल यह कि आरक्षण के बल पर उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिले में तो इन्हें प्रतिभा का हनन नजर आता है, पर पैसे के बल पर अमीरों के बच्चों के दाखिले से इन्हें कोई परेशानी नहीं होती! इसके अलावा सरकारी या गैर सरकारी, हर जगह परिवारवाद और जातिवाद के चलते होती रही बहाली में भी इन्हें कभी प्रतिभा का हनन नजर नहीं आया। इसलिए कि तब लाभुक ये या इनके बच्चे हुआ करते थे/होते हैं। सवर्ण जातियों की लड़कियां भी जातीय आधार पर आरक्षण का विरोध करती हैं. प्रतिभा हनन का तर्क भी देती हैं, मगर खुद महिला के नाम पर जारी आरक्षण का लाभ लेने में कोई संकोच नहीं होता, न ही इसमें कहीं प्रतिभा हनन नजर आता है! यानी सामाजिक कारणों से लड़कियां पिछड़ गयी हैं, उनको आकर्षण देना सही है. जो समुदाय वैसे ही कारणों से पिछड़ गये, उनको यह सुविधा देना गलत है! जाहिर है, चंद अपवाद लोगों (जो सिद्धांततः आरक्षण को गलत मानते हैं) को छोड़ कर आरक्षण विरोध के पीछे सवर्ण मानसिकता ही काम करती है.

यह सही है कि आरक्षण शब्द में एक नकारात्मकता है, जो समानता के सिद्धांत के विरुद्ध है. इसके लिए सही शब्द ‘विशेष अवसर’ है. डॉ लोहिया हमेशा इसी का प्रयोग करते थे. और जब तक असमानता बरक़रार है, तब तक इस संवैधानिक प्रावधान को जारी रखना हमारा दायित्व है. यह कोई गिफ्ट या खैरात नहीं है. बेशक आरक्षण का अपेक्षित लाभ नहीं मिल सका है। लेकिन इसका भी एक कारण तंत्र में घुसे आरक्षण विरोधी हैं, जिन्होंने इस प्रावधान को ईमानदारी से लागू नहीं होने दिया।

आजकल आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग जोर पकड़ रही है। यहां भी प्रतिभा हनन कोई समस्या नहीं है! एक बात समझने की है कि आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। यह जन्मगत सामाजिक गैरबराबरी को दूर या कम करने का एक तरीका है। इसका भी कोई रामबाण नुस्खा नहीं है। जब धरती पर स्वर्ग उतारने का वादा करनेवाले सत्ता में जाने पर कहने लगते हैं कि हमारे पास कोई जादू की छड़ी तो नहीं है, तब आरक्षण से जादू की उम्मीद क्यों? इसके लिए विशेष अवसर के इस प्रावधान के साथ साथ अन्य उपाय भी करने होंगे. पूरी ईमानदारी और गंभीरता से. आप पहले यह तो क़ुबूल कीजिये कि हमारा समाज जन्मगत ऊंच नीच में बंटा हुआ है, जिसका लाभ थोड़े से लोगों को मिलता रहा है। हां, इसके मौजूदा प्रावधानों पर विचार करने की, उसमें बदलाव की जरूरत है; और इससे जुड़ी वोट की राजनीति ने इसे लगभग असंभव बना दिया है। हद तो यह है कि जो दल और नेता कल तक आरक्षण विरोधी थे और शायद मन से अब भी हैं, भी खुले मंच से इसका समर्थन करते हैं. हर हाल में इसे जारी रखने का आश्वासन देते हैं. मगर ‘मन की बात’ जब तब छलक ही जाती है. लेकिन आप जब इसे बेकार कह देते हैं, और यह भी कि इससे कोई लाभ नहीं हुआ, तो आपकी मंशा संदिग्ध हो जाती है।