‘हिंदु’स्तान अपने इतिहास से प्रतिशोध लेने पर अमादा दिख रहा है इन दिनों. झारखंड के अपने शहर रांची में ऐसा नहीं दिखता था, ‘नहीं दिखता था’ कहना शायद गलत होगा, कम दिखता था, कहना ज्यादा सही. लेकिन यहां दिल्ली में दिखता है. दिल्ली के पार्कों में घूमते. लोगों को आपस में बात करते देख. हाल में नैनिताल गया और उत्तराखंड के छोटे-छोटे कस्बों में दिखा. टैक्सी में सफर करते और चालक की बात सुनते वक्त. एक तीक्ष्ण प्रतिहिंसा से भरी उनकी बातें- ‘योगी’ देखता सुनता नहीं, सीधे ‘बरछी’ चलाता है. वह कल का प्रधानमंत्री है.
मैंने उत्तराखंड में पूछा हमे घुमाने वाले लोकल ड्राईवर से- यह उत्तराखंड की जमीन लूटने वाला तो पाकिस्तान नहीं, ये जो पहाड़ की छाती पर हाउसिंग कंपलेक्स बना रहे हैं, होटल बना रहे हैं, मुसलमान नहीं, फिर उनसे आपको क्या गुस्सा..? वे तो आपका कुछ नहीं बिगाड़ रहे? उसके पास कोई जवाब नहीं. लेकिन वह टैक्सी ड्राईवर भी पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात से खुश होता है.
यहां दिल्ली के कालिकाजी के जिस किराये के घर में रहता हूं, उसके करीब ही कई छोटे-छोटे पार्क है. सुबह में एक झुंड को बैठे देखता हूं, नौजवान नहीं, पके हुए लोग. नौकरी से अवकश प्राप्त लोग. देखने में सभ्य लोग, लेकिन बातें धर्म की. पुराण की घटनाओं की. एक संप्रदाय विशेष के प्रति घृणा से भरी बातें. असुर वृत्तियों वाले रावण की कथा, उसके नाश की कथा. भस्मासुर से अलाउद्दीन खिजली और चंगेज खा की कथा.
ऐसा नहीं था पहले. पहले मतलब आठ दस वर्ष पहले तक. ऐसा महसूस नहीं होता था. इस दिल्ली में भी. लेकिन फिजा बदल गई मोदी के इन तीन चार वर्षों की राजनीति में. लगता है जैसे पूरा हिुंदुस्तान अपने अतीत से, अपने इतिहास से आज, इस वर्तमान में प्रतिशोध लेने पर अमादा है. हजारों वर्षों की गुलामी का. बार बार विदेशी आक्रांताओं से लूटे जाने का. कत्ल किये जाने का. देश के बंटवारे का. उसे लगता है कि इन सब के लिए मुसलमान ही जिम्मेदार है. सिर्फ मुसलमान नहीं, ईसाई भी जो हिंदुओं का धर्मांतरण कराने में लगे हैं. और इसलिए कभी देश के किसी कोने में दंगे होते हैं. कही फसाद हो रहा है. सड़कों पर बेगुनाह घेर कर पीट-पीट कर मार डाले जा रहे हैं. कलेजे में जमा सदियों का मवाद सड़कों पर बह रहा है.
क्योंकि, कुछ घृणास्पद लोग इस कुंठा को हिंसा के रूप में जगाने की उसे, विकराल बनाने की सतत कोशिश कर रहे हैं. वे कोशिश कर रहे हैं कि हिंदुओं के कलेजे में जमी वह कुंठा, वह गुलामी, वह घृणा लावा बन फूटे. वे उस कुंठा और घृणा की राजनीति कर रहे हैं. बस, वे यह भूल जाते हैं कि इतिहास से वर्तमान में प्रतिशोध लेने की कोशिश से हिंदुस्तान का भविष्य बर्बाद हो रहा है. वर्तमान लहुलूहान और भविष्य स्याह होता जा रहा है.
सभ्यता के इतिहास के इस आधुनिक दौर में भी हम सिर्फ गाय और गोबर की बात करने में लगे हैं. बधशालाओं की बात कर रहे हैं, योग और सूर्य नमस्कार की बात, सिनेमा घर में राष्ट्रगीत की बात. गरीबी की बात नहीं होती. दिनों दिन बढती विषमता की बात नहीं होती. दिन-प्रति दिन गर्म होती धरती की बात नहीं होती. हमारी प्राथमिकता हो गई है बेचारी निरीह गाय. हमारी प्राथमिकता हो गये मंदिर. सबसे बड़ा लक्ष्य बाबरी मस्जिद की जगह ‘राम लला’ का मंदिर बनाना.
वे यह भूल जाते हैं कि इतिहास से प्रतिशोध नहीं लिया जा सकता. आप अपने अतीत को नहीं बदल सकते. वर्तमान के प्रयासों से भविष्य को बदल सकते हैं, संवार सकते हैं, बशर्ते आप इतिहास से प्रतिशोध की जगह सबक हासिल करने की कोशिश करें. कभी किसी ने यह सोचने की जहमत उठाई है कि दुनियां में सबसे लंबे अरसे तक यह मुल्क गुलाम क्यों रहां? दो हजार वर्ष पहले यूनान से आने वाला सिंकदर तो घरेलु कारणों से भारत की सीमा को छू कर लौट गया, लेकिन उसके बाद छोटी से छोटी सेना को लेकर भारत की सीमा में प्रवेश करने वाला हर आक्रमणकारी पूरे उत्तर भारत को बार -बार पददलित करने में कामयाब क्यों हो जाता था? यह दिल्ली शहर एक बार नहीं, दर्जनों बार कत्लगाह बना. लूट कर खंडहर बना दिया गया. मगर कैसे? भाड किस्म के लोग ‘अल्हा-उदल’ गाते रहे, ‘पुथ्वीराज रासो’ रचते रहे, राजपूताने की वीरता की डींगे हांकते रहे और यह देश बार बार लूटा जाता रहा. सदियों तक बहिरगतों का गुलाम बना रहा. इस देश में व्यापार करने आई इस्ट इंडिया कंपनी की एक छोटी सी सेना ने बंगाल के नवाब को पराजित कर कैसे बिहार, बंगाल और ओड़ीसा की दीवानी हासिल कर ली? और अंग्रेजों ने दौ सौ वर्षों की गुलामी की आधारशिला रखी? कैसे? क्योंकर यह संभव हुआ?
नहीं, कोई नहीं इस घटनाओं के मर्म तक पहुंचना चाहता. इसका विश्लेषण करना चाहता. खास कर वे लोग तो बिल्कुल ही नहीं जो इतिहास से बदला लेने की कोशिशों में जुटे हैं. जो कुंठा और घुणा को अपनी क्षुद्र राजनीति की पूंजी बना कर चल रहे हैं. वे इतिहास से सबक हासिल नहीं करना चाहते. कारणों की पड़ताल करना नहीं चाहते जिसकी वजह से यह विशाल देश सदियों तक गुलाम रहा. क्योंकि तब तो उन सच्चाइयों से भी परते उतरने लगेगी जो वर्तमान को आक्रांत किये हुए है. शोषण, विषमता और अन्याय से भरी इस व्यवस्था को टिकाये हुए है. लेकिन हम आज ऐलानिया कहते हैं, वह है हमारी वर्ण व्यवस्था जिसकी आधारशिला मनु स्मृति ने रखी.
आपने खुद तय किया था कि आपके यहां शिक्षण और और पुजारी-पुरोहित सिर्फ ब्राह्मण होगा. राज करेगा, तलवार चलायेगा क्षत्रिय, वैश्य व्यापार करेगा और शूद्र के रूप में परिगणित विशाल आबादी सिर्फ और सिर्फ सेवा करेगी. आपके लिए खेतों में पसीना बहायेगी. आपके लिए रेशमी वस्त्र तैयार करेगी. अपके लिए जूते बनायेगी. युद्ध के लिए तलवार बनायेगी. लेकिन वह शिक्षा ग्रहण नहीं करेगी. तलवार नहीं चलायेगी. और जिन्होंने आपकी इस वर्ण व्यवस्था को नहीं स्वीकारा, उसे आपने निशाचर, दैत्य, असुर, राक्षस और न जाने क्या-क्या कहा. अपके इस ‘सनातन’ धर्म की आड़ में कुछ लोग ऐश्वर्य पूर्वक जीते रहे, तर माल खाते रहे, रेशमी पोशाक पहनते रहे, महलों में विलास करते रहे और विशाल आबादी को मनुष्य से एक दर्जा नीचे, कमतर प्राणी के रूप में जीने के लिए मजबूर किया. दूसरी ओर, आपकी ऐय्याशियों ने, अत्यधिक भोग विलास ने आपको खोखला कर रखा था, इसलिए बाहरी आक्रमणाकारियों का यह देश कभी मुकाबला नहीं कर सका.
यह सिलसिला आज भी जारी है. शिक्षा के क्षेत्र में, सत्ता के क्षेत्र में, राजनीति में, न्यायपालिका और विधायिका में, ब्यूरोक्रैशी में उसी मुट्ठी भर लोगों का कब्जा है जो सदियों तक इस देश की गुलामी का कारण बने. विडंबना तो यह कि आरक्षण के बल पर यदि नीचे के तबके से कुछ लोग उस अभिजात श्रेणी में पहुंचते भी हैं तो वे उन्हीं जैसा बनना चाहते हैं जिनकी वजह से यह देश बार-बार पददलित हुआ.
आज भी हम आप डींगे जितनी हांक लें, विकास के जितने दावे कर लें, हकीकत यह है कि दुनियां के सर्वाधिक भूखे, नंगे, अनपढ, कुपोषित, एनिमिक मुल्क हिंदुस्तान है. हां, नस्ली- सांप्रदायिक हिंसा, महिला उत्पीड़न जैसे मामलों में हमने एक मुकाम जरूर हासिल किया है.
क्यांकि, हम आज भी इतिहास से सबक हासिल करना नहीं चाहते, सिर्फ प्रतिशोध लेने में लगे हुए है. और वह इसलिए कि यह कुछ घृणास्पद लोगों के लिए राजनीति की पूंजी है.