विगत दिनों उरांव आदिवासियों का सबसे बड़ा त्योहार ‘सरहुल’ के मौके पर झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने झारखंड के सरना धर्मावलंबियों को ‘सरना मंदिर’ का तोहफा दिया। ऐसा कहा गया कि यह दुनियां का एकमात्र ‘सरना मंदिर’ है। ऐसे ऐतिहासिक कार्यों के बारे में सुनने में बहुत अच्छा लगता है। लेकिन मन में एक साथ कई प्रश्न उठते हैं कि क्या धर्मेश, सिंगबोंगा और मरांगबुरू अब सीमंेट, ईंट और लोहे की बनी संरचना में निवास करना पसंद करेंगे? क्या वे जंगलों और पहाड़ों में स्थित पवित्र ‘सरना स्थल‘, ‘जाहेरथान’ एवं ‘देशाउली’ को त्याग देंगे? मेरालगड़ा के मुंडा जयराम बारजोइन प्रश्नों का जवाब देते हुए कहते हैं, ‘‘धर्मेश, सिंगबोंगा और मरांगबुरू कभी भी सीमंेटर्, इंट और लोहे से बने ‘सरना मंदिर’ में नहीं रहेंगे, उनका घर तो पवित्र ‘सरना स्थल‘, ‘जाहेरथान’ और ‘देशाउली’ है। वे प्रकृति की गोद में रहते हैं।‘‘ यहां मौलिक सवाल यह भी है कि क्या प्रकृति के बगैर ‘सरना’ धर्म का अस्तित्व है? क्या झारखंड सरकार के द्वारा ‘सरना मंदिर’ की स्थापना करना ‘सरना धर्म’ के संरक्षण एवं संवर्धन से ज्यादा राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति करना नहीं है? क्या ‘सरना धर्म’ के नाम पर राजनीति करने वाले लोग ‘सरना’ की मौलिक अवधारणा के बारे में जानते भी हैं?
ऐसा माना जाता है कि आदिवासी मूलतः प्रकृति पूजक हैं। वे प्रकृति की शक्ति पर विश्वास करते हैं, इसलिए उसकी पूजा करते हैं। आज भी बहुसंख्य आदिवासी आध्यात्मिक रूप से प्रकृति को ही सर्वोपरि मानते हैं। आदिवासी अपने समुदाय और भाषा के आधार पर अपने सृष्टिकर्ता को अलग-अलग नाम से पुकारते हैं, जैसे संताल लोग उन्हें ‘मरांगबुरू’ कहते हैं, हो एवं मुंडा आदिवासियों के लिए वे ‘सिंगबोंगा’ हैं, उरांव लोग उन्हें ‘धर्मेश’ कहते हैं तथा खड़िया लोग ‘परोमोसोर’। मौलिक तौर पर ये भगवान जंगल के अंदर कुछ खास जगहों पर वास करते हैं। उनका निवास स्थल मौलिक रूप से सखुआ पेड़ों से घिरा होता है, जिसको अंग्रेजी में ‘ेंबतमक हतवअम’ यानी पवित्र पेड़ों का एक समूह कहा जाता है। इसे संताल आदिवासी ‘जहेरथान’ बोलते हैं, हो आदिवासी लोग ‘देशाउली’ कहते हैं तथा मुंडा, उरांव एवं खड़िया आदिवासी उसे ‘सरना’ के नाम से पुकारते हैं।
संताल मिथक के अनुसार जहेरथान की खोज शिकार करते समय की गई। संताल लोग जब शिकार पर गये हुए थे उसी समय जब उन्हें आराम करने का समय मिला तो एक पेड़ के नीचे बैठकर वे इस बात पर चर्चा करने लगे कि आखिर उनका भगवान कौन है? सूर्य, हवा या बादल? अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि वे आकाश में एक तीर छोड़ेंगे और वह भगवान के घर पर ही जाकर गिरेगा। उन्होंने तीर छोड़ा और वह तीर एक सखुआ पेड़ के नीचे गिरा। इस तरह से वे सखुआ पेड़ की पूजा करने लगे। उन्होंने इस स्थान को ‘जाहेरथान’ का नाम दिया। देश में लगभग 700 अलग-अलग आदिवासी समूह हैं, जिनका अलग-अलग मिथक है लेकिन मौलिक तौर पर वे प्रकृति को ही अपना सबकुछ मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं।
लेकिन देश के आदिवासी बहुल इलाकों में विगत सात दशकों से बड़े पैमाने पर हो रहे औद्योगिकरण, शहरीकरण एवं संस्कृतिकरण ने आदिवासियों की ‘आस्था’ पर विपरीत असर डाला है। फलस्वरूप, रांची, जमशेदपुर, बोकारो जैसे शहरों के ‘सरना स्थलों’ से सखुआ के पेड़ गायब हो चुके हैं। अब इन पवित्र ‘सरना स्थलों’ का प्रकृति से कोई सरोकार नहीं दिखता है। ये अब धीरे-धीरे सीमेंट, ईंट और लोहे से बने संरचना में तब्दील हो रहे हैं और ‘सरना मंदिर’ इसी का एक उदाहरण है। क्या इसे विकास कहा जाना चाहिए या विकास का कुप्रभाव? क्या यह आदिवासियों को प्रकृति से अलग-थलग करने का अंतिम प्रयास नहीं है? इसमें सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरना धर्मावलंबी इसे किस नजरिया से देख रहे हैं, क्योंकि यह ‘सरना’ के मूलरूप को बदलने का मामला है?
यद्यपि भाजपा के नेतृत्व वाली झारखंड सरकार ने ‘सरना मंदिर’ निर्माण के लिए जमीन दिया है और पैसा भी। लेकिन सरना धर्मावलंबियों के द्वारा सरना कोड लागू करने की मांग पर सरकार कोई बात नहीं कर रही है। यहां यह भी समझना बहुत जरूरी है कि जहां एक तरफ झारखंड सरकार सरना धर्मावलंबियों के लिए ‘सरना मंदिर’ का निर्माण कर रही है, वहीं दूसरी तरफ राज्यभर के हजारों ‘सरना‘, ‘जाहेरथान’ एवं ‘देशाउली’ की जमीन को ‘लैंड बैंक’ में डालकर उसे सरकारी जमीन के तौर पर दिखाया जा रहा है ताकि उसे पूंजीपतियों को दिया जा सकें। इसके अलावा भाजपा और आर.एस.एस. के नेता कहते रहते हैं कि ‘सरना’ और ‘सनातन’ यानी ‘हिन्दु’ धर्म एक ही है और आदिवासी लोग भी हिन्दु हैं। इसलिए यहां सवाल उठाना जायज है कि क्या सचमुच मंे झारखंड सरकार ‘सरना धर्म’ का संरक्षण एवं संवर्धन करना चाहती है या ‘सरना मंदिर’ के बहाने सरकार का निशाना कहीं और है?
झारखंड के इतिहास को देखने से पता चलता है कि राज्य में विगत तीन-चार दशकों से विस्थापन और काॅरपोरेट जमीन लूट के खिलाफ चल रहे जनांदोलनों के कारण यहां पूंजीपतियों को जमीन मिलना कठिन हो गया है। इस स्थिति से निपटने के लिए झारखंड सरकार ने 2015 मंे बड़े पैमाने पर ‘लैंड बैंक’ यानी ‘जमीन का बैंक’ बनाने का काम शुरू किया, जिसके तहत राज्यभर के अंचलाधिकारियों को राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग के पास गैर-मजरूआ जमीन का आंकड़ा जमा करने को कहा गया। सरकारी आॅंकड़ा के अनुसार अभी ‘लैंड बैंक’ में 20,94,297 एकड़ जमीन उपलब्ध है। झारखंड सरकार ने कैसे चालाकी से राज्यभर के ‘सरना स्थल’, ‘जाहेरथान’ एवं ‘देशाउली’ की जमीन को ‘लैंड बैंक’ में डाला है इसको समझने के लिए खूंटी जिला इसका सबसे अच्छा उदाहरण है।
झारखंड के गठन के बाद खूंटी को रांची जिले से अलग किया गया है, जिसमें कुल छः प्रखंड हैं। यह जिला पांचवी अनुसूची क्षेत्र के तहत आता है, जिसमें मुंडा आदिवासियों की बहुलता है। यह बिरसा मुंडा की धरती भी है। लेकिन यहां पिछले दो-तीन दशकों से कई कंपनियां अपनी परियोजनाएं स्थापित करने के लिए अपनी एड़ी-चोटी एक किये हुए हैं, लेकिन जनप्रतिरोध की वजह से उन्हें जमीन नहीं मिल रहा है। इसी को मद्देनजर रखते हुए झारखंड सरकार ने ‘लैंड बैंक’ बनाया है, जिसमें परती जमीन बताकर जिले के 541 सरना स्थलों के कुल 488.82 एकड़ जमीन को भी ‘लैंड बैंक’ में डाल दिया गया है। इसमें अड़की प्रखंड के 9 सरना स्थलों का 12.33 एकड़ जमीन, खूंटी प्रखंड के 134 सरना स्थलों का 64.26 एकड़ जमीन, मुरहू प्रखंड के 47 सरना स्थलों का 7.96 एकड़ जमीन, तोरपा प्रखंड के 14 सरना स्थलों का 30.36 एकड़ जमीन, रनिया प्रखंड के 40 सरना स्थलों का 79.06 एकड़ जमीन, कर्रा प्रखंड के 297 सरना स्थलों का 294.85 एकड़ जमीन शामिल है। इससे यह साबित होता है कि भाजपा सरकार सरना धर्मावलंबियों का जितना भी हितैषी बनने का दिखावा करे लेकिन हकीकत में उनके धर्मस्थलों को पूंजीपतियों को सौपने में उसे किसी तरह का संकोच नहीं है क्योंकि भाजपा नेताओं को सरना धर्म से कुछ लेना देना ही नहीं है।
यहां हमें राज्य में ‘सरना धर्म’ के नाम पर विगत कई वर्षों से हो रही राजनीति को भी समझना चाहिए क्योंकि राज्य में ‘सरना धर्म’ के नाम पर कई सामाजिक संगठनों का गठन किया गया है लेकिन ये संगठन सामाजिक और धार्मिक कम, राजनीतिक ज्यादा दिखते हैं। यद्यपि ये संगठन ‘सरना धमर्’ के नाम पर राजनीति तो करते हैं, लेकिन झारखंड सरकार के द्वारा राज्य के सैकड़ों ‘सरना स्थलों’, ‘जाहेरथान’ एवं ‘देशाउली’ की हजारों एकड़ जमीन को भूमि बैंक में डालने के खिलाफ आवाज नहीं उठा रहे हैं। इसके अलावा वे न ‘सरना’ स्थलों पर सखुआ का पेड़ लगा रहे हैं और न ही ‘सरना’ स्थलों का संरक्षण कर पा रहे हैं। रांची स्थित पहाड़ी मंदिर और तमाड़ का देवड़ी मंदिर इसके दो बड़े उदाहरण हैं, जिसपर दूसरे लोगों ने कब्जा जमा रखा है और सरना समितियां कुछ नहीं कर पा रही हैं।
इतना ही नहीं कई जंगलों और पहाड़ों में स्थित ‘सरना स्थल’, ‘जाहेरथान’ एवं ‘देशाउली’ को झारखंड सरकार ने खनन कंपनियों को खनिज उत्खनन के लिए लीज में दे दिया है। उदाहरण के तौर पर सारंडा जंगल के अंदर झारबेड़ा गांव के पास पहाड़ में स्थिति ‘देशाउली’ को सरकार ने लंदन स्थित दुनियां का सबसे बड़ा स्टील कंपनी ‘अर्सेलर मिŸाल’ को लौह-अयस्क उत्खनन के लिए लीज में दे दिया है। झारबेड़ा के आदिवासी सवाल उठा रहे हैं कि क्या मिŸाल कंपनी उनके भगवान से भी ज्यादा शक्तिशाली है, जिसने उनके भगवान के निवास स्थल को सरकार से खरीद लिया है? लेकिन झारखंड सरकार के ऐसे असंवैधानिक कार्यों का सरना समितियां विरोध नहीं करती हैं, यह हमारी समझ से परे है। क्या वे अपने अस्तित्व के बारे में सजग नहीं हैं या सरकार के एहसान तले दबे हुए हैं?
असल में झारखंड सरकार ने ‘सरना मंदिर’ का निर्माण कर बड़ी चालाकी से भावनात्मक खेल खेला है क्योंकि विगत 16-17 फरवरी 2017 को रांची के खेलगांव में आयोजित ‘ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट’ के दौरान सरकार एवं पूंजीपतियों के बीच राज्य के विभिन्न इलाकों में तथाकथित विकास परियोजनाओं को स्थापित करने के लिए 210 समझौतों पर हस्ताक्षर हुए हंै, जिसके लिए लाखों एकड़ जमीन, जंगल, पानी, पहाड़ और खनिज की जरूरत होगी। इसमें राज्य भर के हजारों ‘सरना स्थल‘, ‘जाहेरथान’ एवं ‘देशाउली’ विलुप्त कर दिये जायेंगे। सरकार को पता है कि ओडिसा के नियमगिरि की तरह ही झारखंड के आदिवासी भी इसका घोर विरोध कर सकते हैं। इसलिए उन्हें ऐसा दिखाया जाना चाहिए कि सरकार उनके धार्मिक स्थलों का संरक्षण एवं संवर्धन करने के लिए तत्पर है। लेकिन हकीकत में झारखंड सरकार आदिवासियों के बीच हड्डी का एक छोटा सा टुकड़ा फेंक कर उनसे सारे प्राकृतिक संसाधन छीन लेना चाहती है।
‘ओडिसा माईनिंग काॅरपोरेशन बनाम वन व पर्यावरण मंत्रालय एवं अन्य (सी) सं. 180 आॅफ 2011’’ में सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासियों के अधिकार को सर्वोपरि मानते हुए फैसला सुनाया है कि संविधान के अनुच्छेद 25 एवं 26 आदिवासियों के धार्मिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हैं, जो उन्हें न सिर्फ अपने धर्म को मानने एवं उसका प्रचार-प्रसार करने का अधिकार देते हंै अपितु उनके धार्मिक विधि या रीति-रिवाज, जो उनके धर्म का हिस्सा हंै, उसपर पूर्ण अधिकार प्रदान करते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार झारखंड सरकार आदिवासियों के किसी भी धार्मिक स्थल को पूंजीपतियां को नहीं दे सकती है। इसलिए सरकार की यह कोशिश है कि आदिवासियों का ‘सरना स्थल’, ‘जाहेरथान’ एवं ‘देशाउली’ को शहरों में एक सरंचना के रूप में स्थापित कर दिया जाये ताकि सरना धर्म मानने वाले आदिवासी लोग जंगल और पहाड़ों पर धार्मिक स्थल के रूप में स्थापित ‘सरना स्थल’, ‘जाहेरथान’ एवं ‘देशाउली’ पर अपना दावा छोड़ दें, जिससे उन्हें पूंजीपतियों को देने में आसानी हो जायेगी। ओडिसा के नियमगिरि पहाड़ को वेदांता कंपनी सिर्फ इसलिए कब्जा नहीं कर पायी, क्योंकि वहां के डांेगरी-कोंध आदिवासियों ने कहा कि वहां उनका भगवान रहता है, जिसकी वे पूजा करते हैं इसलिए नियमगिरि पहाड़ को वे वेदांता कंपनी को किसी भी कीमत पर नहीं देंगे।
यह सभी जानते हैं कि भाजपा की राजनीति का आधार ही धर्म है। ‘सरना मंदिर’ स्थापित कर सरकार एक तीर से दो शिकार करना चाहती है। एक तो स्वंय को सरना आदिवासियों की हितैषी के रूप में पेश करते हुए सीएनटी/एसपीटी कानूनों में किये गये संशोधनों के खिलाफ आदिवासी जनाक्रोश को धर्म के आधार पर दो हिस्सों में बांटकर इसे ठंढ़ा करना, पूंजीपतियों के लिए जमीन सुनिश्चित करना तथा आदिवासियों को स्थायी रूप से प्राकृतिक संसाधनों से अलग करना, ताकि जंगलों और पहाड़ों को खनिज उत्खनन के लिए पूंजीपतियों को बेचा जा सके. वैसे, आज भी बहुसंख्य आदिवासियों का प्रकृति के साथ आध्यात्मिक रूप से जुड़ाव है, इसलिए वे जंगलों और पहाड़ों में स्थित ‘सरना स्थल‘, ‘जाहेरथान’ एवं ‘देशाउली’ को पूंजीपतियां को सौपने के खिलाफ संघर्षरत हैं।
झारखंड सरकार के द्वारा चालाकी से ‘सरना स्थल’, ‘जाहेरथान’ एवं ‘देशाउली’ की जमीन को ‘लैंड बैंक’ में डालना न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन है, बल्कि यह पेसा कानून 1996 का भी उल्लंघन है जो ‘ग्रामसभा’ को गांव के प्राकृतिक संसाधनों, धार्मिक एवं संस्कृतिक अधिकार को संरक्षित रखने का अधिकार देता है। अभी मूल प्रश्न यही है कि सरना धर्म का असली संरक्षक कौन है?