अभी तलाक, कायदे से कहें तो मुसलिम समाज में मान्य और जारी ‘तीन तलाक’ पर देशव्यापी चर्चा चल रही है. इसी बहाने तलाकशुदा महिलाओं के दुख-दर्द की भी. मगर इस प्रकरण में दुखद या अफसोसजनक बात यह दिख रही है कि देश की आधी आबादी से जुड़ी इस समस्या पर चर्चा का स्वरूप राजनीतिक हो गया है. इसमें संकीर्ण धार्मिक आयाम भी जुड़ गये कगते हैं. इस या उस दल और धारा से जुडे लोग इस बहस में दूसरे पक्ष को बदनीयत बताने का प्रयास कर रहे हैं. कुछ को लगता है कि तलाक महज एक समुदाय की महिलाओं की समस्या है. लेकिन. भले ही फिलहाल मुद्दा ‘तीन तलाक’ का है, पर इस पर व्यापक दृष्टि से विचार करने की जरूरत है.

कोई संदेह नहीं कि ‘तीन तलाक’ की प्रथा स्त्री विरोधी है. यह मर्दों को एकतरफा अपनी बीवी को एक झटके में बेघर बेसहारा करने का अधिकार देती है. तभी तो आज मुसलिम महिलाएं भी इसके खिलाफ मुखर हो रही हैं. लेकिन एक बार में ‘तलाक तलाक तलाक’ कह कर हो या कुछ अंतराल पर; कोई बहाना लगा कर या बिना विधिवत तलाक दिये ही पत्नी को घर से निकल देना हो, किसी भी भारतीय महिला के लिए तलाक शब्द आमतौर पर कहर बन कर ही टूटता है. कारण उनका आत्मनिर्भर न होना हो या मानसिक रूप से सबल न होना, पर सच यही है कि आज भी हमारे समाज में कोई महिला सहज रूप से तलाक नहीं चाहती. हम आये दिन अपने आसपास देखते हैं, अखबारों में पढ़ते रहे हैं कि दहेज़ के कारण जिसकी हत्या कर दी गयी, वह बार बार अपने मायकेवालों को ससुराल में हो रही प्रताड़ना, कम दहेज़ लाने के लिए तानों और मारपीट की बताती रही. पर या तो माता-पिता ने उसकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया; या फिर उसे ‘सब ठीक हो जायेगा’ कह कर किसी तरह ‘एडजस्ट’ करने की सीख देते रहे. वह खुद भी तमाम अपमान और हिंसा झेलते हुए भी पति का घर छोड़ने का साहस नहीं कर पायी और अंततः असमय काल का ग्रास बन गयी. ऐसा इसलिए भी होता है कि हिंदू समाज में पति से अलग हुई औरत हेय नजरों से तो देखी ही जाती है, पुनर्विवाह लगभग असंभव है और मायके में भी वह उपेक्षा का ही शिकार होती है, बोझ मानी जाती है. इसलिए वह जानती और मानती भी है कि पति से अलग जीवन मृत्यु से भी बुरा है. ऐसे में तलाक स्त्री के लिए अंतिम रास्ता ही होता है.

उसकी तुलना में पुरुष को देखें. कभी दहेज़ के चंद पैसों के लिए, कभी पुत्र को जन्म न दे पाने पर, कभी कोई और स्त्री पसंद आ जाने पर, तो कभी अकारण ही वह अपनी पत्नी को छोड़ सकता है. अपने बच्चों की मां को घर से निकाल सकता है. यहां तक कि उसकी हत्या कर सकता है- जिन्दा जला कर या गला घोंट कर या किसी भी तरह. और उस हत्या को हादसा या आत्महत्या बता सकता है. मतलब यह कि पत्नी को छोड़ देना या उससे ‘मुक्ति’ पा लेना उसके लिए जरा भी कठिन नहीं है. तलाक तो छोटी चीज है. एक औरत से मन भर जाने से भी वह इस हथियारनुमा अधिकार का इस्तेमाल कर सकता है.

इस सबके बावजूद तलाक लेने यानी नरक हो चुके विवाह संबंध से अलग हो जाने का अधिकार औरत को भी चाहिए. भले आज वह साहस नहीं कर पा रही है, पर जब भी हिम्मत कर सके, तो वह बिना मर्जी, बिना प्यार के और भय (कहाँ जाऊंगी, किसके सहारे जीऊँगी) पर टिके संबंध को ख़त्म कर सके, यह अधिकार और मौका तो उसे उपलब्ध रहना ही चाहिए. दरअसल विवाह जैसी संस्था को बचने के लिए भी तलाक का अधिकार जरूरी है. पुरुष को भी और औरत को भी. पर तलाक के बाद स्त्री के जीवन में आनेवाली कठिनाइयों के निदान का कोई मुकम्मल तरीका भी ढूंढना होगा. आर्थिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर.

एक स्त्री विवाह के बाद अपना सारा समय अपने पति और परिवार को देती है. अपना स्वर्णिम समय, अपनी बेहतरीन ऊर्जा व यौवन का काल. अब अगर पति उसे अलग कर देता है, घर से बाहर निकल देता है, तो क्या वैवाहिक जीवन के दौरान पति द्वारा अर्जित संपत्ति का आधा हिस्सा उसे नहीं मिलना चाहिए? बल्कि वह तो ज्यादा की हकदार है. इसलिए कि जब वह उपार्जन कर सकती थी, अपने हुनर को विकसित कर और योग्य बन सकती थी, वह समय तो उसने परिवार को संवारने में, पति और बच्चों की देखभाल में लगा दिया. तलाक के बाद तो अवसर और सीमित हो गये, बहुतों के लिए ख़त्म ही हो जाते हैं.

आज समाज की जो मानसिकता है, उसमें तो एक तलाकशुदा स्त्री की कोई हैस्यत ही नहीं होती. वह हर किसी की नजरों से गिर जाती है. जबकि ज्यदाताएर मामलों में साफ साफ दीखता है कि उसके साथ अन्याय हुआ है. फिर भी अपराधी औरत ही मानी जाती है.

अच्छी बात है कि धीरे धीरे पुनर्विवाह की सम्भावना बढ़ने लगी है. मगर कल तक दहेज़ का जो रोग हिंदू समाज, उसमे भी सवर्णों तक सीमित था, अब यह हर जगह फैलता जा रहा है. ऐसे में कल्पना की जा सकती है कि जब एक बार बेटी के विवाह के लिए दहेज़ का इंतजाम करना इतना कठिन होता है, तो दोबारा एक तलाकशुदा या परित्यक्त स्त्री का विवाह आसान होगा. हां, पुरुष के लिए दोबारा विवाह तुलना में बहुत आसान है. बल्कि दोबारा दहेज पाने का अवसर भी है. और लड़कियों के अभिभावक भी ऐसे पुरुष को दामाद बनाने के लिए आम तौर पर तत्पर ही रहते है, यदि वह कमाऊ है, ‘अच्छे’ घर का है.

तलाक के मामले में औरत को न्याय मिल सके, यह भी समाज की; और उस पुरुष की भी जिम्मेवारी है. जब विवाह एक पारिवारिक और सामाजिक आयोजन है, पूरे समाज के सामने सबकी सहमति से विवाह होता है, तो तलाक का फैसला भी समाज के या कोर्ट के सामने हो, ताकि स्त्री के अधिकार का हनन न हो सके. कानून में इस तरह का बदलाव समय की मांग है, जिससे किसी विवेकशील व्यक्ति की असहमति नहीं हो सकती.