विगत पांच मई, 2017 को अदालतों के दो प्रतीक्षित फैसले देखने-पढने को मिले. सुबह के समाचारपत्रों में 2002 के गुजरात दंगों के दौरान हुए बिलकिस बानो सामूहिक बलात्कार-सह हत्या कांड केस का फैसला. और दोपहर में ’12 के बहुचर्चित ‘निर्भया’ (हालांकि उसका मूल नाम ज्योति है/था) गैंगरेप-हत्या कांड में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया.
निर्भया कांड तो इतना भयानक और इतना चर्चित रहा है कि इसका हर डिटेल हम सब जानते हैं. इस काण्ड ने तब की केंद्र सरकार को हिला कर रख दिया था. इसलिए इस मामले में देश सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इन्तजार कर रहा था; और फैसले के बाद उस पर चर्चा हो रही है, तो यह स्वाभाविक ही है. बिलकिस बानो का मामला भी जघन्य था. हादसे के कोई 15 साल बाद अभी हाईकोर्ट का फैसला आया है. देश में अभी भी कितनी ‘निर्भया’ और ‘बिलकिस’ जैसे मामले कितने वर्षों से दुरूह अदालती प्रक्रिया में फंसी होंगी?
मुम्बई उच्च न्यायालय ने कल अपने फैसले में 12 नामजदों की दोषसिद्धि व उम्रकैद की सजा बरक़रार रखी. इसके साथ ही, उस मामले की जांच में कोताही बरतने, सबूतों से छेड़छाड़ करने और पक्षपात के आरोपी पांच पुलिसकर्मियों और दो सरकारी डॉक्टरों को बरी करने के निचली अदालत के आदेश को निरस्त कर दिया. और जेल में बितायी गयी अवधि को सजा के तौर पर मानते हुए अलग से 20-20 हजार रुपये का जुरमाना लगाया. दोषियों में एक की मृत्यु हो चुकी है तो 18 दोषियों की सजा बरक़रार है. गोधरा की घटना के बाद गुजरात में भड़के दंगो के दौरान अहमदाबाद के राधिकापुर में 3 मार्च 2002 को बिलकिस बानो के परिवार पर भीड़ ने हमला कर दिया. बिलकिस तब 5 माह की गर्भवती थी, उसके साथ धर्मांध वीरों ने सामूहिक बलात्कार किया. उसके गोद के बच्चे को जमीन पर पटक कर मार डाला. उसकी मां और बहन के साथ बलात्कार किया. साथ ही 14 लोगों की हत्या कर दी, जिनमें बिलकिस के परिवार के सात सदस्य भी शामिल थे. जो भी हो, अनेक रास्तों से गुजर कर आख़िरकार करीब 15 साल बाद यह फैसला आया है.
उसी दिन में दिल्ली के निर्भया कांड का भी फैसला आ गया है. सर्वोच्च अदालत ने निचली अदालत द्वारा चारों दोषियों की दी गयी सजा, जिसे हाईकोर्ट ने भी सही माना था, बरक़रार रखी. सर्वविदित है कि 16 दिसंबर, 2012 को देश की राजधानी दिल्ली में ज्योति नाम की एक परा मेडिकल छात्रा चलती बस में चार युवा दरिंदों के सामूहिक बलात्कार की शिकार बनी. उन वहशियों ने जघन्यता और क्रूरता की सारी सीमा पार कर दी. उस घटनाक्रम को हम सब इतनी बार पढ़-जान चुके हैं कि उसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है. ज्योति के जिस मित्र ने उन नर-पशुओं का विरोध करने का साहस किया, उसे भी उन लोगों ने लगभग मार ही दिया था. फिर दोनों को बुरी तरह घायल अवस्था में सड़क पर फेंक दिया. बाद में बेहतर इलाज के लिए ज्योति को सिंगापुर भेजा गया, पर उसे बचाने की सारी कोशिशें बेकार हो गईं. देश भर में आक्रोश की लहर फ़ैल गयी थी.
दोनों ही फैसलों से थोड़ा सुकून तो मिला है, लेकिन मन में यह सवाल उठता है कि क्या ऐसे फैसलों से इन जैसे बलात्कारियों के लिए आगे की राह कुछ भी रोकी जा सकी है, रोकी जा सकेगी? और क्या इनसे स्त्रियों के लिए हमारा देश और समाज कुछ ज्यादा सुरक्षित बन गया है या बन जायेगा?
पहले दंगाइयों की शिकार गर्भवती बिलकिस की बात करें. क्या धर्म के नाम पर हत्या या बलात्कार के प्रति हमारे समाज में कोई घृणा है? एक तरफ इतनी नैतिकता की बात, दूसरी तरफ बलात्कार. दूसरे धर्म के लोगों के प्रति सामान्यतया दूरी भले हो, पर नफ़रत उतनी नहीं होती. मगर दंगों के समय उन्मादी भीड़ वैसे लोगों की होती है जो मौके का फायदा उठाना चाहते हैं. अपनी कुत्सित वासनाओं और संपत्ति के लालच में वे दंगों की अगुवाई करने लगते हैं. पर समाज उन्हीं को अपना मसीहा मानने लगता है. इसीलिए तो आम दिनों में जो गुंडे-तलछट हैं, दंगों के दौरान वही रहनुमा बन जाते हैं. अब समाज के इन तलछट लोगों से बलात्कार और लूटपाट, हत्या के सिवा क्या उम्मीद की जा सकती है? मगर हमारा दुर्भाग्य है कि हम धर्म के नाम पर इनको प्रश्रय देते हैं. और इसीलिए निर्भया कांड के अपराधियों के प्रति जो घृणा फूटी पड़ रही है, बिलकिस के अपराधियों के प्रति उसका सर्वथा आभाव नजर आता रहा है!
और ज्योति के मामले को लें तो क्या समाज के उस अभूतपूर्व आलोड़न से यह माना जा सकता है कि समाज बलात्कारियों से नफरत करने लगा है? उस काण्ड और उतने व्यापक आंदोलन के बाद भी देश भर से लगातार सामूहिक बलात्कार और औरतों के साथ दरिंदगी की घटनाएँ सामने आती रही हैं, मगर ‘देश की सामूहिक चेतना’, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के माननीय जजों ने कहा, का कहीं कोई उभार नहीं दिखा. अभी रांची में बूटी मोड़ के पास एक छात्रा की इसी तरह दरिंदगी के बाद हत्या कर दी गयी. युवाओं ने कुछ दिन शोर मचाया, पर वह घटना रांची और झारखंड के नागरिक समाज के लिए बड़ी बेचैनी का कारण नहीं बनी. अभी तक अपराधी पकड़े भी नहीं जा सके हैं. एक खास परिस्थिति में ज्योति के मामले में वाकई अभूतपूर्व सामाजिक उद्वेलन उठा था, जिसे सिर्फ शहरी या वर्ग आधारित कह कर छोटा नहीं किया जा सकता. पर ये वक्ती तूफान समाज को एक हद तक उद्वेलित कर थम भी जाते हैं. इसका स्थायी हल ढूंढना पड़ेगा.
अब हम जानते हैं कि ‘निर्भया’ का नाम ज्योति था. खुद उसके माता-पिता चाहते हैं कि उनकी बहादुर बेटी का नाम सभी जानें, पर बलात्कार पीड़ित होना इतना बड़ा अभिशाप बना हुआ है कि अदालत भी निर्देश देती है कि उसका नाम सार्वजानिक न किया जाये! क्या यह अपने आप में समाज की मानसिकता को दर्शाने के लिए काफी नहीं है? जबकि समाज के लिए अभिशाप तो ये बलात्कारी हैं.
जब तक समाज बलात्कारियों से नफरत नहीं करेगा, यह सब चलता ही रहेगा. किसी भी स्त्री का अपमान, चाहे वह हिंदू हो या मुसलिम, दलित हो या आदिवासी, अमीर परिवार की हो या गरीब की, उसे स्त्री मात्र के अपमान के रूप में देखा जाना चाहिए. बलात्कार को उस स्त्री, उस धर्म की स्त्री, या उस जाति की स्त्री को सजा देकर सबक सिखाने का बहाना बना कर बर्दास्त नहीं किया जा सकता. यह सिर्फ कुत्सित लालसाओं का कुत्सित अपराध है. इसे किसी तरह की आड़ नहीं देनी होगी. और बलात्कारी को हमेशा ना सिर्फ अपराधी बल्कि समाज का दुश्मन और पीड़क माना जाये, जैसे हम हत्यारों के प्रति सोचते हैं. और हर हालत में उनको जधन्यतम मानकर कठोरतम सजा ही मिलनी चाहिए. फांसी की सजा के औचित्य पर भी विचार करने की जरूरत है, मगर अगर देश में यह सजा चल रही है, तो ऐसे रेयर मामलो में बलात्कारियों को भी फांसी ही मिलनी चाहिए.
अंत में : निर्भया और बिलकिस, दोनों ही मामले सामूहिक बलात्कार और हत्या के हैं; और संयोग से दोनों में फैसला लगभग साथ आया है. निर्भया मामले में सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायमूर्तियों ने अपने फैसले में कहा है कि इस जघन्य कांड ने देश की ‘सामूहिक चेतना’ को झकझोर दिया था. यह आकलन बिलकुल सही है. पर दुखद आश्चर्य कि बिलकिस बानो बलात्कार काण्ड को लेकर देश की सामूहिक चेतना में वैसा कोई उद्वेलन हुआ हो, इसका जरा भी आभास नहीं हुआ! आखिर क्यों?