यह फोटो गत वर्ष 5 जून को नियमगिरि सुरक्षा समिति की ओर से आयोजित पृथ्वी दिवस के खुले अधिवेशन का है. मंच पर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ पर्यावरण अधिवक्ता के सामने बैठी है कुकी सिसका, अपने कई डोंगरिया कौंध युवतियों के साथ. मंच पर मेधा पाटेकर और प्रफुल्ल सामंत राय भी बैठे हैं. तस्वीर ली है समाजवादी जन परिषद के अफलातून ने. ये सभी राजनीतिक कर्मी, शांतिमय तरीके से आंदोलन चलाने वाले समाजकर्मी हैं. अब उसी कुकी सिसका और उसके कुछ परिजनों को माओवादी करार देकर सत्ता ने गिरफ्तार कर लिया है और एक तरह से अपने खौफनाक इरादों का संकेत दे दिया हैं. वह जल, जमीन, जंगल के लूट के खिलाफ चलने वाले जन आंदोलनों, लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर रह कर चलने वाले खुले जन संघर्षों को माओवादी गतिविधियां बता कर उनके नेताओं को जेल में बंद करेगी और आंदोलन को खौफ के गिरफ्त में लेगी. और उनके इस मंसूबों को पूरा करने में, आदिवासी जनता पर दमन-चक्र चलाने में ‘टूल’ की तरह इस्तेमाल हो रहे हैं ‘माओवादी’.

आप पूछेंगे कैसे?

जवाब सीधा सादा है. पिछले तीन चार दशकों से आदिवासीबहुल इलाकों में माओवादी गतिविधियां चल रही है. वैसे, माओवादी आंदोलन के लगभग पांच दशक पूरे हो चले हैं. इस दौरान हजारों लोग मारे जा चुके हैं. पिछले एक दशक में ही करीबन 700 से अधिक लोग. आधे यदि सुरक्षा बल के लोग, तो आधे सामान्य लोग. कुछ सुरक्षा बलों द्वारा, कुछ माओवादियों द्वारा मुखबिर बता कर. लेकिन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक हालात में कोई सुधार नहीं हुआ है. औद्योगीकरण की प्रक्रिया रुकी नहीं, न देश के आदिवासी इलाकों में खनिज संपदा और जमीन की लूट की प्रक्रिया धीमी पड़ी है.

उल्टे, जल, जंगल, जमीन की लूट के खिलाफ चलने वाले जन आंदोलनों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं.

प्रक्रिया आसान है.

माओवादी पुलिस का मुखगिर बता कर या सत्ता का दलाल बता कर किसी ग्रामीण की हत्या करते हंै. सुरक्षा बल माओवादियों को पकड़ने के नाम पर क्षेत्र विशेष में घुसती है. माओवादी तो सामान्यतः मिलते नहीं, शक के आधार पर ग्रामीणों को ही पकड़ती है. उन्हें टार्चर करती हैं. कई तरह के जुल्म करती हैं. सत्ता के खिलाफ गुस्सा पनपने लगता है. फिर इसी मनोदशा का का फायदा उठा कर किसी दिन घात लगा कर माओवादी सुरक्षा जवानों की हत्या कर देते हैं.

मीडिया की भूमिका

मीडिया माओवादी या माओवादी के नाम पर निरीह आदिवासियों के मारे जाने को ‘ढेर’ होना बताती है. सुरक्षा बल के जवानों के मारे जाने को ‘शहीद’ होना बताती है. राष्ट्रीय टीवी चैनलों पर जवानों के परिजनों को, उनकी पत्नी, माओ, बच्चे-बच्चियों को रोते बिलखते दिखाया जाता है. उच्च वर्ग का तो निहित स्वार्थ है ‘लूट’, मध्यम वर्ग, शहरों कस्बों में रहने वाले सामान्य लोगों में भी माओवादियों के खिलाफ गुस्सा पनपने लगता है. संसद के भीतर भी माओवादी हिंसा के खिलाफ गुस्से और क्रोध का इजहार किया जाता है.

फिर सरकार माओवादियों को मिटाने का संकल्प दोहराती है.

प्रभावित इलाकों में सुरक्षा बलों की कुमुक बढ जाती है. हथियार बढते हैं, सक्रियता बढती है, माओवाद के नाम पर जन साधारण को कुचलने, मौलिक अधिकारों के हनन का अधिकार सत्ता को प्राप्त हो जाता है.

इस बार सुकमा में हुए कांड के बाद गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने प्रभावित राज्यों से माओवादियों से निबटने के लिए कहा है. कारगर संयुक्त रणनीति बनाने के नाम पर जिन राज्यों में माओवादी गतिविधियां अपेक्षाकृत कम हैं, वहां भी अब सेना के जवानों की आमद -रफ्त बढेगी. पुलिसिया आतंक बढेगा. फर्जी मुकदमें और गिरफ्तारियां बढेगी.

इससे जनता की खुली लड़ाई कमजोर होगी और सत्ता को दमन चक्र चलाने का मौका मिलेगा. जल, जंगल, जमीन को बचाने के अहिंसक आंदोलन भी कमजोर होंगे.

मानवाधिकार संगठन की मुहिम स्थिति सामान्य होने पर थोड़ी बहुत चलेगी. लेकिन उनकी विश्वसनीयता दिनों दिन कम होती जा रही है. वजह साफ है. मानवाधिकार संगठन सुरक्षा बल के जुल्मों सितम को तो मुद्दा बनाते है,ं लेकिन जवानों की निर्मम हत्या को कभी मुद्दा नहीं बनाते. सड़क पर गोरक्षों द्वारा अराजक ढंग से किसी को मार दिये जाने पर सवाल नहीं उठाते.

और यह सिलसिला पिछले चार दशकों से चल रहा है.

क्या माओवादी बहुत शक्तिशाली हैं?

नहीं. एक अनुमान के अनुसार उनके पास दो से पांच हजार अधिकतम लड़ाकू लोग हैं. भारतीय सेना की कुल संख्या ग्यारह लाख से अधिक है. युद्ध के हथियारों का तो केाई मुकाबला ही नहीं. अब तक दुनियां में सबसे ताकतवर उग्रवादी संगठन लिटठे को माना जाता है. श्रीलंका के राजनीतिक नेतृत्व ने जिस दिन उन्हें मिटाने का संकल्प ले लिया, मिटा दिया.

ल्ेकिन माओवादी चार दशकों से सक्रिय हैं. छिटपुट कार्रवाईयां कर रहे हैं. देश का राजनीतिक नेतृत्व माओवाद को मिटाना नहीं चाहता. उन्हें कुचलने के नाम पर जन आंदोलनों को कुचलने की रणनीति पर काम करता रहा है. इस लिहाज से माओवादी और माओवादी हिंसा उनके बहुत काम की है.

कुछ भ्रम

हमारे कुछ साथी बहुत ही मासूमियत से कहते हैं कि सरकार आदिवासियों की जमीन लूट को बंद करे, माओवाद समाप्त हो जायेगा?

क्या ऐसा है? यानी, आप सत्ता की साजिश के शिकार हो चुके हैं. मान रहे हैं कि आदिवासी नक्सली हंै. क्या यह सही है? हम नहीं मानते. आदिवासी नक्सली नहीं है. वह हालात का बस शिकार है. जैसे सुरक्षा बल उनके साथ जबरदस्ती करती है, माओवादी भी उनके साथ जबरदस्ती करते हैं. यह सही है कि बेरोजगारी का जो आलम हैं, उसमें जब कुछ लोगों को हाथ में बंदूक, वेतन के रूप में कुछ धनराशि और शोषण-उत्पीड़न के खात्मे का स्वप्न मिलता है तो वे उनकी साजिश में शामिल हो जाते हैं. लेकिन उनकी संख्या गिनती की होती है. एकबार हथियार बंद गिरोह में बदल कर वे भी ग्रामीणों पर रौब झाड़ते हैं और आपस में भी क्षेत्र की इजारेदारी के लिए लड़ते हैं.

दरअसल, माओवादियों ने राजसत्ता के खिलाफ एक संघर्ष छेड़ रखा है. माओवादियों ने गुरिल्ला युद्ध की रणनीति के तहत पहाड़ीस्थल और वन क्षेत्र को शरणस्थली बनाया है. इत्तफाक से वही आदिवासियों का ठिकाना भी है. उन्हें आदिवासी मुद्दों से रत्ती भर सरोकार नहीं. जल, जंगल, जमीन को बचाने की लड़ाई तो आदिवासी सदियों से लड़ रहा है. आज भी यह लड़ाई पोस्को में, नेतरहाट में, तपकारा और इचा में, खूंटी, पोटका, बड़कागांव और आसनबनी में चल रहा है. नगड़ी की लड़ाई हम सबने देखी. इन आंदोलनों में माओवादी कहीं नहीं.

उल्टे जिस आंदोलन में उनका प्रवेश हुआ, वहां आंदोलन ठप हो गया. क्योंकि सबसे पहले वे जन आंदोलन के नेता को ही मारते हैं. बगोदर में महेंद्र सिंह को मारा. पछवाड़ा में सिस्टर वाल्सा को. काठीकुंड में उनके प्रवेश के बाद पुलिसिया दमन चक्र चला और आंदोलन ठप हो गया.

तो करना क्या होगा?

जिस इलाके में वे आये, वहां सक्रिय आंदोलनकारी जमात उनसे हाथ जोड़ कर कहें- भाई, हम अपनी लड़ाई खुद लड़ लेंगे. हमे आपकी मदद की जरूरत नहीं. जैसा कि बोधगया के भूमि संघर्ष के दौरान छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के साथियों ने नक्सलियों से कहा था.

इसके अलावा शांतिमय-अहिंसक जन आंदोलनों पर भरोसा करना होगा और इन आंदोलनों के नेताओं को इस बात की गारंटी करनी होगी कि वे आंदोलन को हिंसक नहीं होने देंगे. तभी हम सरकार पर यह नैतिक दबाव बना सकेंगे कि नागरिक क्षेत्र में सेना का प्रयोग न करे.

साथ ही, सत्ता के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई तेज करनी होगी. यदि हम जन विरोधी सरकार को बैलेट बाॅक्स से पराजित नहीं कर सकते तो हथियारों के बलबूते हटा देंगे, यह दिवास्वप्न है.