कारपोरेट जगत के धुरंधरों के साथ मोदी सरकार के रिश्ते किसी से छुपे नहीं हैं, लेकिन उनके लिए मोदी सरकार जिस तरह आदिवासियों को मिटाने पर तुली हुई है, यह एक लोकतांत्रिक देश की सत्ता के लिए शर्मनाक है. यह सर्वविदित है कि आंध्र प्रदेश के विशाखापटनम से शुरु हो कर ओड़िसा के कोरापुट, रायगढा, कालाहंडी होते हुए छत्तीसगढ तक फैले बाॅक्साइट कारीडोर पर दुनियां की बड़ी-बड़ी कंपनियों की निगाहें गड़ी हुई है. एक समर क्षेत्र है झोड़िया ट्राईव का इलाका काशीपुर और दूसरा डोंगरी कौंध आदिम जनजाति का क्षेत्र नियमगिरि. काशीपुर में 412 गांव हैं. 200 गाव में झोड़िया ट्राईब निवास करते हैं. यहां सबसे पहले माइनिंग का काम शुरु किया टाटा कंपनी ने. उसके बाद नर्वे की कंपनी इंडाल ने. लेकिन जन विरोध की वजह से ये दोनों वापस हो गई और तब उतरी कनाडा की कंपनी अलकल. लेकिन इनकी भी नहीं चली. इन सबों के वापस हो जाने के बाद बिड़ला की कंपनी उत्कल अल्युमिनियम इंटरनैशनल लिमिटेड, यूएआइसी ने क्षेत्र में प्रवेश किया. उनके मैदान में उतरते ही गोली कांड हुआ जिसमें तीन आदिवासी मारे गये. विरोध के बावजूद काशीपुर के डोरागुडा में एक प्लांट लगाने में उन्हें कामयाबी मिली. लेकिन खनन क्षेत्र से प्लांट तक कनवेयर बेल्ट बनाने में उन्हें कामयाबी नहीं मिली, न खनन का काम ही अब तक पूरी तरह शुरु हो पाया है.
दूसरा समर क्षेत्र है डोंगरिया कौंध का निवास स्थल नियमगिरि पर्वत क्षेत्र. कालाहंडी में वेदांता कंपनी ने अपना प्लांट लगा लिया है. इसके लिए तो जैसे तैसे जमीन प्रबंधन ने जुटा लिया, लेकिन बाॅक्साइट के लिए खनन का विरोध कर रहे हैं 112 गांवों में निवास करने वाले कौंध. उनके भारी विरोध की वजह से ओड़िसा का नियमगिरि पर्वतमाला और वहां निवास करने वाली डोंगरिया कौंध जाति इन दिनों चर्चा का विषय बना हुआ है. सभ्य समाज से दूर सत्ता पोषित कारपोरेट जगत और एक निरीह आदिम जनजाति के बीच एक युद्ध छिड़ा हुआ है जिस पर पूरी दुनियां के कारपोरेट जगत की निगाहें टिकी हुई है. संघर्ष के क्रम में मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा और तीन वर्ष पूर्व 18 अप्रैल को सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि राज्य सरकार इस इलाके की ग्राम सभाओं से राय लेने के बाद ही कोई फैसला करे. अब इस इलाके में हैं तो कुल 112 ग्राम सभा, लेकिन सरकार ने सुदूर के सिर्फ 12 ग्राम सभाओं में रायशुमारी का निर्णय लिया. समय चुना गया मानसून का ताकि खेतीबाड़ी में लगे लोग बैठक में न आयें और मीडिया भी ग्रामसभा स्थलों तक नहीं पहुंच पाये, लेकिन ग्राम सभाओं में ग्रामीणों ने तो भाग लिया ही, पर्यावरणविद, सामाजिक कार्यकर्ता और मीडिया के लोग भी पहुंचे और सभी ग्राम पल्ली सभाओं ने सर्वानुमति से खनन को खारिज कर दिया. उनका कहना है कि आपके भगवान मंदिर में रहते हैं, हमारे नियमगिरि राजा तो पाताल फाड़ कर निकले हैं और नियमगिरि पर्वत ही हमारा मंदिर है. नियमगिरि राजा न सिर्फ हमारे भगवान है बल्कि हमारे जीवन का आधार भी. उनकी ढलानों पर हम खेती करते हैं. उसके झरनों का पानी हम पीते हैं. हम इस पहाड़ के साथ आपको छेड़छाड़ करने नहीं देंगे.
इधर वेदांता कंपनी का सरकार पर दबाव है कि वह यहां उत्खनन कार्य जल्द से जल्द शुरु करवाये, वरना वे यहां से बोरिया बिस्तर समेट कर चले जायेंगे. इसे देखते हुए सरकार ने एक नया तरीका आजमाना शुरु किया है. वह यह कि किसी भी तरह से यहां चल रहे शांतिमय आंदोलनों को माओवादी करार दिया जाय और फिर उसे बल पूर्वक कुचल दिया जाये. इसी क्रम में पिछले दिनों समाजवादी जन परिषद से जुड़े नियमगिरि सुरक्षा समिति के कई कार्यकर्ताओं को माओवादी करार देकर गिरफ्तार कर लिया गया है जिनमें शामिल हैं कुनी सिकाका, उसके ससुर तथा नियमगिरी सुरक्षा समिति के नेता श्री दधि पुसिका, दधि के पुत्र श्री जागिली तथा उसके कुछ पड़ोसी. कुनी को तो माओवादी करार दिया गया, जबकि अन्य नेताओं-कार्यकर्ताओं को ‘आत्मसर्पणकारी माओवादी’ बताया गया है.
यह सत्ता का आजमाया हुआ तरीका है. पहले शांतिमय आंदोलन को माओवादियों द्वारा संचालित आंदोलन करार दो. फिर उस इलाके में माओवादियों को कुचलने के नाम पर आतंक बरपा करो और लोगों को मजबूर करो कि वे विरोध से बाज आयें. वे इसमें कितने कामयाब होंगे, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा, लेकिन दुनिया के झमेलों से दूर रहने वाले भोलेभाले डोंगरिया कौंधों के साथ उनके इस षडयंत्रपूर्ण रवैये को तो सिर्फ ‘शर्मनाक’ ही कहा जा सकता है.