कश्मीर में सेना की जीप पर एक नागरिक को बांध कर आपरेशन चलाने वाले सेना के अधिकारी को न सिर्फ आर्मी ने पुरस्कृत किया बल्कि इस काम को उचित ठहराते हुए अरुण जेटली ने बयान दिया कि ‘सेमी वार जोन’/युद्ध जैसे इलाकों में सैन्य अधिकारियों को यह अधिकार होना चाहिए कि स्थिति से निपटने के लिए अपने स्तर पर निर्णय ले सकें. सामान्यतः सेना मंत्रिमंडल के दिशा निर्देश में काम करती है. देश के भीतर यदि वह विषम परिस्थिति में लगायी जाती है तो सिविल प्रशासन-पुलिस के अधीन रह कर काम करती है. बुनियादी सिद्धांत यह कि आप किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर सकते. वैसे, कई इलाकों में आफस्पा के द्वारा सेना को विशेषाधिकार दिये गये हैं कि वह किसी को गिरफ्तार कर सकती है और आत्मरक्षार्थ गोली भी मार सकती है. लेकिन सामान्यतः उसे मानवाधिकार के अंतरराष्ट्रीय कानूनों, देश के संविधान और सेना के अपने कोड आॅफ कंडक्ट के दायरे में रख कर काम करना होता है. और इन तीनों में से किसी ने भी किसी नागरिक को या बंदी को मानव शील्ड की तरह इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं देती.
लेकिन देश के गृहमंत्री अरुण जेटली ने जितनी आसानी से यह वक्तव्य दे दिया कि सेमी वार जोन इलाकों में सेना के अधिकारियों को स्थिति से निबटने के लिए अहम फैसले लेने की छूट होनी चाहिये, वह खतरनाक है. अभी तो यह एक विचार है, लेकिन यदि मोदी सरकार इस तरह का कोई निर्णय लेती है और सेना को ‘सेमी वार जोन’ में अपने स्तर पर फैसले लेने का अधिकार देती है, तो मान कर चलिए कि वे अपने निहित स्वार्थों के लिए इस देश की विशाल आबादी को सेना के रहमो करम छोड़ने वाले हंै.
समझने वाली बात यह है कि यह बयान तो कश्मीर की ताजा घटना के संदर्भ में आया है, लेकिन देश के अनेक राज्यों में आज सेमी वार जोन जैसी स्थिति सरकार ने बना रखी है. सरकार की नजर में आदिवासीबहुल झारखंड, ओड़ीसा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, आंध्र प्रदेश सहित ग्यारह राज्य तो माओवाद प्रभावित है. नार्थ इस्ट के कई राज्यों में सेना का आपरेशन चल रहा है. इसके अलावा दंगे फसाद के दिनों में दंगे प्रभावित इलाकों की स्थिति युद्ध क्षेत्र जैसी हो जाती है और शहर को सेना के हवाले कर दिया जाता है. तो क्या, उन इलाकों में सेना को अपने स्तर पर किसी तरह का निर्णय लेकर काम करने की अनुमति दी जा सकती है?
सेना का विवेक किस तरह काम करता है, वह कश्मीर में संसदीय चुनाव के वक्त दिखा. सेना के एक अधिकारी मेजर गगोई के निर्देश पर फारुख अहमद डार को सेना ने गन प्वाइंट पर पकड़ा और उन्हें सेना की जीप के बोनट पर बांध कर हंगामें की आशंका वाले इलाके में मार्च किया. एक तो वे यह बता रहे थे कि पथराव करने वालों को इस तरह सजा दी जायेगी, साथ ही उनका यह भी तर्क था कि इससे पथराव करने वाले थम गये. वैसे, जानकारों का कहना है कि श्री दार ने उसी सुबह मतदान में हिस्सा लिया था और भारतीय लोकतंत्र में विश्वास करने वाले सात फीसदी ऐसे लोगों में शामिल थे, जिन्होंने अपने वोट डाले थे.
लेकिन फिलहाल हम इस विवाद में नहीं जायेंगे. सवाल यह है कि यदि वह व्यक्ति पत्थर फेंकने में शामिल भी था तो क्या सेना को उसे सजा देने का अधिकार है? सेना को क्या यह अधिकार है कि वह किसी नागरिक को या किसी युद्ध बंदी का ही अपनी सुरक्षा के लिए मानव शील्ड की तरह इस्तेमाल करे? न देश का संविधान, न जनेवा सम्मेलन द्वारा जारी मानवाधिकार कानून और न सेना की अपनी आचार संहिता ही उन्हें इसकी इजाजत देता है.
लेकिन देश में तो आज एक विषैली हवा बह रही है, जिसमें बुद्धि, विवेक और मानवीय संवेदना के लिए कोई जगह नहीं. यह सरकार के हाथ में है कि वह सेना को किस हद तक छूट देती है और किस इलाके को कब वार जोन वाले इलाके में बदल देती है. तो तैयार रहिये, किसी दिन आप भी सेना-पुलिस की जीप के बोनट पर बंधने के लिए.