सहारनपुर में राजपूत/ठाकुर समुदाय और दलितों के बीच हुए हिंसक टकराव, जिसने दंगे का रूप ले लिया, को यूपी सरकार एक सुनियोजित साजिश बता रही है. खुद मुख्यमंत्री ने ऐसा कहा है. कुछ पत्रकार इसे प्रशासनिक चूक का नतीजा बता रहे हैं. साजिश के आरोप का खुलासा तो श्री योगी ने नहीं किया है, पर वहां की जो खबरें सामने अब तक सामने आयी हैं, उनमें प्रशासनिक चूक साफ नजर आती है. मगर उससे भी अधिक यह दिखता है कि स्थिति को बिगाडने में स्थानीय प्रशासन के पक्षपातपूर्ण रवैये ने अधिक भूमिका रही. लेकिन यह शायद मूल नहीं, तात्कालिक कारण था. कहा जा सकता है कि इस घटना से अचानक सुर्खियों में आयी ‘भीम सेना’ ने मौके का लाभ उठाया, लेकिन सहारनपुर के दलित युवाओं में जो आक्रोश और आक्रामकता दिखी है, वह तात्कालिक कारणों का नतीजा होगा, ऐसा नहीं लगता.
पहले प्रशासन की भूमिका. उत्तर प्रदेश के गृह सचिव ने भी माना है कि सहारनपुर के तनाव के पीछे पुलिस और प्रशासन की चूक है.
सहारनपुर शहर से कुछ दूर शब्बीरपुर गांव में दलित समुदाय रविदास मंदिर में अंबेडकर की प्रतिमा लगाना चाहता था. सबसे पहली गलती तब हुई जब पुलिस ने प्रतिमा लगाने पर प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन दलित समुदाय को विश्वास में नहीं लिया. प्रशासन ने ना कहने के लिए ना तो कोई वजह बताई और ना ही आगे के लिए कोई रास्ता सुझाया, जिसको लेकर दलित समुदाय में नाराजगी थी.
5 मई को महाराणा प्रताप जयंती पर शब्बीरपुर गांव से 11 किमी दूर शिमलाना गांव जा रहे ठाकुर समुदाय के लोगों ने बिना अनुमति के जुलूस निकाला. तेज म्यूजिक और डीजे के साथ जब 25-30 ठाकुर समुदाय के युवा शब्बीरपुर गांव से निकले तो लोगों ने तेज बाजे पर आपत्ति जताई. दलित समुदाय के लोग और भड़क गये. स्वाभाविक ही उनको लगा कि प्रशासन उनके साथ भेदभाव कर रहा है. प्रशासन ने सख्ती दिखाई होती तो ना ये जलूस निकलता ना ही पत्थरबाजी और हिंसा होती. उस घटना में एक की मौत हुई और दो दर्जन से ज्यादा लोग घायल हुए.
सवाल है कि यह पुलिस की सामान्य लापरवाही थी, या उसका चरित्र ही दलित विरोधी है; या कि सत्ता परिवर्तन के बाद, हिंदुत्ववादी ‘ठाकुर’ योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी के बाद एक ओर तो ठाकुरों का मन बढा हुआ है, साथ ही नये आकाओं का रुख भांप कर या उन्हें खुश करने के लिए पुलिस ने ऐसा किया.
पर सहारनपुर में दलितों का जो तेवर और अंदाज दिखा है, वह एक दूरगामी बदलाव का संकेत भी हो सकता है. अजीब बात है कि सुश्री मायावती ने न सिर्फ भीम आर्मी के साथ अपने किसी रिश्ते से इनकार कर दिया है, बल्कि भीम आर्मी को भाजपा की टीम बता दिया है. भीम आर्मी के प्रदर्शनों में युवा दलितों की व्यापक भागीदारी के बावजूद मायावती के इस रुख का कारण क्या यह हो सकता है कि दलित समुदाय के युवाओं कि मायावती और बसपा से मोहभंग होने लगा है. कोई शक नहीं कि उत्तर प्रदेश के दलितों को अपने हक और स्वाभिमान के लिए जागरूक व संगठित करने में कांशीराम के साथ मायावती की भी भूमिका रही है. लेकिन सत्ता हासिल करने के लिए और करने के बाद मायावती ने जो समझौते किये और उनका जो व्यक्तिवादी अंदाज दिखा है, क्या आश्चर्य कि दलित कोई नया रास्ता तलाश रहे हों.
उत्तर भारत के दलित समुदाय की छवि आम तौर पर निरीह और दब्बू की रही है, जो सब कुछ सह लेता है, विद्रोह नहीं कर सकता. कभी नक्सल आंदोलन ने बिहार के दलितों में बगावत की चिंगारी भरी थी. उसका असर अब तक बाकी है. फिर कांशीराम और मायावती ने यूपी और पंजाब में ऐसा किया. अब जबकि लग रहा था कि दलित उफान शांत पड रहा है, सहारनपुर ने दिखाया है कि दलित नये सिरे से प्रतिकार करने को तैयार हो रहे हैं.