2015-16 का बज़ट 17 लाख 77 हजार कुछ सौ करोड़ का, आसानी के लिये इसे 18 लाख करोड़ मान लेते हैं. हाँ, बज़ट मतलब सरकार के पास आने वाले पैसे (revenue) और खर्च (expenditure) का लेखा जोखा और अंत में ताल— मेल. तो इस 18 लाख करोड़ में लगभग 12 लाख करोड़ रुपया शुद्ध रुप से tax से प्राप्त सरकार को मिला revnue है और बाकी 6 लाख करोड़ रुपया भिन्न— भिन्न स्रोतों से प्राप्त कर्ज है. आय के और भी श्रोत हैं, लेकिन ये स्थाई नहीं हैं, इसी नजरिये से बज़ट को deficit budget या deficit finance भी कहते हैं.अब अगर मैं आपसे यह कहूँ की ये 18 लाख करोड़ रुपया पूरा का पूरा सरकार चलाने में ही खर्च हो जाता है, यानी govt expenditure (बिना किसी विकास के काम के). क्या आप सहमत हैं इसे भारत की 125 करोड़ जनता का कर्म मानने के लिये? कर्म ही तो है.. 125 करोड़ जनता का कर्म जिसने खून पसीना एक कर सरकार के हाँथ मे 18 लाख करोड़ दे दिया.
इससे पहले की आप react करें, यह बताना ज़रूरी है कि यह 18 लाख करोड़ सिर्फ केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के तमाम विभागों, तमाम सांसदों के नाना प्रकार के खर्चों, जैसे वेतन, भत्ता और सैकड़ो सरकारी कम्पनियों, बँको को दी जाने वाली खर्च में स्वाहा हुए है. इस 18 लाख करोड़ से कहीँ सड़क, पुल या power plant नहीँ लगा है. हाँ subsidies और npa ज़रूर है. 125 करोड़ जनता के tax से प्राप्त 18 लाख करोड़ से अगर केन्द्र सरकार के 50 लाख लोग और राज्यों के लगभग 2 करोड़ लोग वेतन, भत्ता और पेंशन से लाभान्वित हैं और (विकास अभी बाकी है) कम से कम रोजगार के लिये उन 122 करोड़ 50 लाख लोगों को अब एकदम से बाजार के हवाले छोड़ दिया गया है.
जी,तो कर्म 125 करोड़ लोगों का और फल सिर्फ 2 करोड़ 50 लाख लोगों को, बाकी 122 करोड़ 50 लाख लोगों के लिये फल बाजार की वस्तु, ये लोग फल (रोजगार) बाजार से ही लेगें.
अगर 5 जन से एक पारिवार बनता है तो 2 करोड़ 50 लाख गुणा 5 बराबर 12 करोड़ 50 लाख जनता रोजगारयुक्त है और बाकी 22 करोड़ रोजगार और चाहिय, जिससे 112 करोड़ 50 लाख की जनता को रोजगार युक्त जीवनयापन कि स्थिति दी जाये और यही बाजार के हवाले हैं, यानी, इन्हें इसी बाजार से फल (रोजगार )लेना है.
कर्म सीधे सरकार को समर्पित और फल के लिये दौड़कर बाजार जाना है.
एक example और लेते हैं जिससे इस कर्म v/s फल वाले मामले को समझा जाये. प्रधानमंत्री जन सुरक्षा, पेंशन और दुर्घटना/ स्वास्थ्य योजनाओ का कुल प्रीमीयम मान लीजिये 100 रुपया और करीब 40 करोड़ की आबादी को इससे कवर किया जाता हो तो 4000 करोड़ का फंड जिसमे casualties॥ और इस पूरी व्यवस्था को चलाने में मान लीजिये 4000 करोड़ खर्च हो गया. इसमे सरकार का क्या लगा? हमारे tax का दिया हुआ 12 लाख करोड़ में से एक फूटी कौड़ी भी इसमे नही लगी, जिस पर सरकार सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने का दम भर्ती है. तो कुल मिला कर हमारी सामाजिक सुरक्षा भी बाजार से प्राप्त होने वाला एक फल है जिसके पौधे हम ही ने लगाये और सींचे हैं. क्या यही समाज का सबसे बड़ा verticle division नहीं है की 12 करोड़ जनता 125 करोड़ जनता से लिये tax पर सिर्फ शासन और व्यवस्था के निमित्त मालदार बनी है और मालदार बनाने का ठेका भी ले दे सकती है?
125 करोड़ जनता कर्म करे 12 करोड़ लोगों को फल देने के लिये और शेष 113 करोड़ लोग अपना फल बाजार जाकर लें.
एक और उदाहरण दे रहा हूं कि कैसे इस देश की 90 % जनता बाजार के हवाले है, यानी बाजार से फल खरीदती है. रोजगार बाजार से मिलने वाला है.
अब एक ज़रूरी बात यह है की सरकार बाजार को किस प्रकार अपने नियंत्रण में रखे..
हाँ, नियंत्रण रखे भी या नहीं. समाज को बाजार के हवाले छोड़ने का प्रयास भी संदर्भ का विषय है. 28 करोड़ जनधन खाता, जो बैंक को एक operational cost देता है और इसी cost को इसी खर्च को निकालने का ये प्रयास है जो हाल में बँको ने अपने service charge के रुप में आमजन पर थोपा है. जैसे atm चार निकासी के बाद 20 रुपया प्रति निकासी. उधर subsidies और npa का पैसा जो हमारे tax का पैसा है, अगर व्यवस्था की खामियों के चलते रिस कर समाज के नौकरशाह, ठीकेदार और उद्योगपति या नेता के पास जाता है, तो समझा जा सकता है की खून पसीना किसका है और फल किसको मिलता है. और क्यों 90% जनता सरकार के हवाले न होकर बाजार के हवाले है.
यह सही है की tax और npa— non performing asset/ bank का डूबा हुआ कर्ज) का पैसा लौट कर बाजार में नहीँ आया है, नहीं तो बाजार खुद इतना समृद्ध होता कि रोजगार की कमी नहीँ होती. लेकिन ये पैसा तो कालाधन है जो स्विस बैंक,पनामा तक अपनी पहुँच रखता है. यह साफ है कि हमारी अर्थव्यवस्था के उपभोक्ता से जनित जो बाजार का फल है, जो हमें मिलना था, वो देश से बाहर गया. बाजार से भी फल आसानी से मिलने वाला नहीँ है. बाजार को भी वैसे ही चूसा जा रहा है.
रोचक है यह जानना की यही बाहर गया हमारे tax का पैसा फिर किस तरह हमें imf, world bank से कर्ज के रुप में मिलता है. ये चक्र उस कोल्हू से कम नहीं है जहां बैल अंधा रहता है. सिर्फ घूमते रहने के लिये जिससे तेल रिसता रहे.
हाँ एक बात, चुनाव आयोग को सरकार ने 3200 करोड़ रुपया आवंटित किया है 2019 के general election में vvpat के इस्तमाल के लिये. पहले के चुनावी खर्चे अलग हैं. इसके लिये आप अरविन्द केजरीवाल और मायावती को धन्यवाद दे सकते है जो निष्पक्ष चुनाव के लिये जनता का 3200 करोड़ स्वाहा करवा रहे है. अभी तक सिर्फ evm से काम चलता था.
ये है हमारे tax के पैसे से सरकार बनाने का अलग से नया खर्चा.
एक ज़रूरी बात छूट रहा है जो मौजू है. विकास, विकास जो आप हम सुनते हैं, वो असल में कर्ज का पैसा है और ये कर्ज बढ़ते— बढ़ते 68 लाख करोड़ हो गया है. यानि, एक
साल के सरकारी बजट से करीब चार गुना ज्यादा.
हाँ, तो बात ये है भाई की कर्म करते चलो और फल बाजार से खरीद लो..