देश में जो आज अस्थिरता फैलते जा रही है हर तरफ़ कलह का वातावरण सा बनता जा रहा है इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है कोई एक तो क़तई नहीं, हर तरफ़ एक ऐसी नज़र बनते जा रही है जिसे आप अपने तरफ़ देखो तो लगे वोह आँख में आग उबाल रहा है जो आपको किसी भी समय जला सकता है पर इन आँखो में किसने इतना आग भर दिया जो अपने सामने वाले व्यक्ति को व्यक्ति के रूप में ना देख उसे अपना दुश्मन की नज़र से देख रहा है, इसका ज़िम्मेदार कौन है कहाँ से है जो सब के मन में इतना ज़हर घोल रहा है।

कहीं आज के समय की राजनीति तो नहीं, ऐसे माहौल का ज़िम्मेदार, राजनीति की माँग क्या है प्रजातंत्र बनाना या राजतंत्र क़ायम करना, आज की स्तिथि को देख ऐसा ही लग रहा है के राजतंत्र क़ायम हो रहा है वो भी जनता के पैसे से।

देश में भुखमरी बेरोज़गारी महंगई बढ़ते ही चले जा रहें हैं पर इनको नियंत्रण करने वाला चुप्पी साधे बैठा है और हमारा ध्यान दूसरी ओर आकर्षित किए जा रहा है।

समाचार पत्र और टेलीविजन जो आम जनता को सही ख़बर सही स्तिथि और पुख़्ता सबूतों के साथ पहुँचाने का काम करती है वो बेईमान हो गई है जनता को ना ख़बर टी॰वी॰ पर दिखाती है और ना ही पढ़ने के लिए दैनिक समाचारों में सही ख़बर छापती है। ख़बर को तोड़ मड़ोड कर ऐसे बना दिया जाता है जिस से लोगों के मन में आक्रोश पैदा हो और अपने सही अधिकार से वो वंचित रह जाए और किसी उन्माद में फँस कर जीते रहें।

राज्य की सरकार हो या केन्द्र की सरकार दोनो में से काम तो किसी का नहीं दिख रहा किन्तु इनका प्रचार प्रसार बहुत हो रहा है वो भी झूठे, कहीं कुछ भी बदला हुआ नहीं दिखता परंतु सरकार झूठे बखान करने में मस्त है और यह झूठ जनता की मेहनत की कमाई से जनता को ही दिखाया जा रहा है, आख़िर यह झूठ का पहाड़ बना कर जनता को कहाँ बहकाया जा रहा है, कहीं इसका फ़एदा सरकार देश के बड़े पूँजीपतियों, बड़े उधयोगपतियों को तो नहीं पहुँचा रही, जनता का मन झूठ से बहला कर ख़ुद तो प्रजातंत्र को राजतंत्र बना कर राजाओं जैसी ज़िन्दगी जी रही है और जनता आपस में लड़ भीड़ कर और सामाजिक उन्माद में फ़सं कर रह गई है।

देश में देश वासियों की की दुर्गति होते जा रही है हक़ की आवाज़, अपनी आवाज़ कहाँ दब गई मालूम ही नहीं पड़ता, मालूम पड़ता है तो बस धार्मिक और जातिगत दंगे, धार्मिक कट्टरपंति, लोग क्या खाए क्या पहने कब नींद से जागे और कब नींद से सोए, लोकतंत्र को सरकार डुबो के रख दी है, जनता आपस में धर्म-जात ऊँच-नीच कर के लड़ भीड़ रही है लोगों को खाने बोलने पहन्ने की आज़ादी छिनती जा रही है और ऐसे मुद्दों पर रात दिन झगड़े कर कर नहीं थक रही है और शायद सरकार की राजनीति की चाल भी कुछ ऐसी ही है के जनता आपस में लड़ते रहें और हमारे पाँच साल जैसे भी कट जाए और फिर से हम कोई और झूठे मुद्दे के साथ लोगों को ठगने आ जाए।

आज की स्तिथि इतनी ही है के देश में देश वासियों की दुर्गति हो रही है और साथ ही देश की भी दुर्गति होते जा रही है।