झारखण्ड की आदिवासी संस्कृति मुख्य धारा की संस्कृति से भिन्न है। आदिवासियों के खान-पान में मुख्य रुप से जंगल,जमीन से मिलने वाले खाद्य पदार्थ हैं। ये सब्जी में ज्यादतर सागों का प्रयोग करते हैं। ये साग बजारों में मिलने वाले गिने-चुने हाईब्रिड साग नहीं हैं। आदिवासी जंगलों, खेतों, नदियों से साग तोड़कर लाते हैं. इनमें से कुछ साग दवा का भी काम करती हैं। आदिवासी प्रकृति के ज्यादा करीब है, इसी कारण अन्य लोगों की अपेक्षा प्रकृति से मिलने वाले खाद्य पदार्थों के अधिक जानकार हैं। उरांव आदिवासियों में बड़े-बूढ़े बच्चा पैदा होने पर यह नहीं पूछते— लड़का हुआ या लड़की। आदिवासी जंगल जमीन से जुड़े हैं इसी कारण बच्चा पैदा होने पर पूछते हैं- ‘हल जोतवा हुआ या साग तोड़वा?’
अर्थात लड़का हुआ तो हल जोतने वाला और लड़की हुई तो साग तोड़ने वाली। इस कहावत का यह कतई अर्थ नहीं है कि लड़का हल ही चलायेगा और लड़की साग ही तोड़ेगी। यह तो उनकी जमीनी जुड़ाव है। आज जिस स्त्री-विमर्श से लड़कियों,स्त्रियों की शारीरिक और मानसिक तथा वैचारिक आजादी की बात की जाती है, वह आदिवासी स्त्रियों में बचपन से मिल जाती है। साग तोड़ने के उपक्रम में वे जंगलों, पहाड़ों, नदियों में स्वच्छंद होकर घूमती हैं। जहाँ पेड़ो पर चढ़ने पर मुख्य धारा की लड़कियों की पाबंदी है वहीं आदिवासी लड़की बचपन से बुजुर्ग होने तक (जब तक हाथ पैरों में ताकत है) जीविका के लिए पेड़ ही चढ़ती है। नदी नालों में घूमना तो दूर, अन्य समाज की स्त्रियों का बचपन ही घर की चाहरदीवारी में कैद कर दी जाती है। आदिवासी समाज इसके विपरीत लड़कियों को अपनी जीविका के लिए स्वच्छंदता प्रदान करता है। यहाँ बच्चियों से 50-60 साल तक की औरतें पेड़ों पर चढ़कर साग तोड़ती नजर आयेंगी।
तो, हम यहां झारखण्ड के इन्ही आदिवासियों के खान-पान में विशेष प्रकार के खाद्यानों का विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं-
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बेंग साग- इसे कच्चा या सुखाकर दोनों रुप में खाने में प्रयोग किया जाता है। इनकी पत्तियों का जूस पीने से कई तरह के रोगों से छुटकारा मिल सकता है। खास तौर पर पीलिया रोग के लिए यह काफी फायदेमन्द है।
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फूटकल साग- यह पेड़ से तोड़ा जाता है। यह पेट के लिए अच्छा होता है,जब पेट गरम हो।
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चाकोड़ साग- चाकोड़, पौधे से फूल लगे पत्तियों को तोड़कर सुखाया जाता है। इसके सेवन से चर्म रोग होने से बचा जा सकता है।
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सनई साग- यह एक प्रकार का फूल है, जिसे साग के रुप में प्रयोग किया जाता है। सनई पौधे के छालों से रस्सी भी बनाई जाती है।
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कटई साग- यह साग जंगलों में कटीले पौधे में पाया जाता है। यह पेट के लिए काफी अच्छा है।
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सुनसुनियाँ साग- यह गर्मी दिनों में नदी किनारे पाया जाता है। यह साग खाने से अनिंद्रा की शिकायत दूर होती है। क्योंकि इसके सेवन से नींद बहुत आती है।
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कोइनार साग- यह गर्मी मौसम में कोइनार पेड़ों के कोमल पत्तियों को तोड़ा जाता है। इस साग के अधिक सेवन से पेट गरम भी हो सकता है, इसलिए बड़े-बूढ़े इसमें फूटकल साग मिला के पकाते हैं।
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टुम्पा साग- यह कोइनार का फूल है। इसका स्वाद थोड़ा कसैला होता है, जो पेट के लिए काफी अच्छा है।
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जिरहूल फूल- यह फूल ठण्डे दिनों में पेड़ पर खिलते हैं। जिसे तोड़कर सुखाया भी जाता है।
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अन्य साग- झारखण्ड में सागों के रुप में आलू की पत्तियाँ, मटर की पत्तियाँ, चने की पत्तियों को भी सब्जी के रुप में प्रयोग होता है। बरसात शुरु होते ही खेतों में कई प्रकार के साग उग आते हैं जैसे- केना-मेना साग, सिलवरी साग, चिमटी साग। उसी प्रकार ठण्ड में आलू,मटर,गेहूँ लगे खेतों में कई साग निकल आते हैं। आदिवासी हर मौसम के सागों को सुखाकर अन्य दिनों के लिए रख लेता है। सागों की तरह ही आदिवासियों का पसंदीदा खाद्य पदार्थों में से-रुगड़ा (पुट्टू) और खुखड़ी (मशरुम) है। यह बरसात में खेतों और जंगलों में पाया जाता है।
रुगड़ा कई प्रकार का होता है- चंदना रुगड़ा, लेदरा रुगड़ा। उसी प्रकार खुखड़ी के भी कई प्रकार हैं- जामुन खुखड़ी, चिरको खुखड़ी, टेकनस खुखड़ी। ये सारे खाद्य पदार्थ, झारखण्ड के आदिवासियों के संस्कृति के साथ-साथ जंगल के जमीनी जुड़ाव को दर्शाता है।