यह लोमहर्षक घटना भागलपुर की है. खबर के मुताबिक रिश्ते में लगभग हमउम्र बुआ और भतीजे (या शायद चाचा भतीजी) के बीच प्रेम संबंध बन गया. परिवारों के राजी होने का सवाल ही नहीं था. दोनों ने एक मंदिर में जाकर विवाह कर लिया और पति-पत्नी की तरह रहने लगे. उनकी जाति के रहनुमाओं या दबंगों की नजर में यह अक्षम्य अपराध था. गौरतलब है कि लेकिन लडकी पक्ष के लिए यह जितना बड़ा अपराध था, युवक के घरवालों के लिए उतना नहीं! यानी ऐसे ‘वर्जित’ संबंध बन जाने से ‘प्रतिष्ठा’ सिर्फ लड़की के परिवार की धूमिल होती है. जो भी हो, जातीय पंचायत बैठी. और प्रेम करने के ‘अपराध’ में उस युवक को मौत की सजा सुना दी गयी. लड़की के परिजनों को ही युवक की हत्या कर लाश लेकर ‘पंचायत’ में आने का फरमान सुनाया गया; या कहें, ललकारा और उकसाया गया. लड़की के दबंग भाइयों ने उसे घर से खींच कर निकाला और गोली मार दी. निश्चय ही यह घटना बिहार के लिए एक कलंक के रूप में दर्ज रहेगा. मगर बढ़ती आक्रामकता, बात बात पर हिंसा, निर्ममता और खास कर स्त्री-पुरुष के बीच सहज आकर्षण और प्रेम को अपराध मानने की यह प्रवृत्ति तो देशव्यापी सच है. पर हैरानी की बात यह है कि देश/समाज में इसे लेकर कोई गंभीर परेशानी नजर नहीं आती!
प्रसंगवश, एक नजर हमारी पंचायतों की परंपरा और उसकी वर्तमान स्थिति पर. यहां कानूनी मान्यता प्राप्त और निर्वाचित पंचायतों की नहीं, परंपरागत पंचायतों की बात की जा रही है, जो सही अर्थों में समाज स्वीकृत रही हैं और समाज में जिसकी सत्ता चलती रही है. एक हद तक आज भी. बिरादरी के मामले तो इसी पंचायत में हल होते रहे हैं. ऐसी ही पंचायतों के बारे में महात्मा गांधी ने लिखा था कि पंचायत के साथ प्राचीनता की मिठास जुड़ी होती है. ‘पंच परमेश्वर’ कहानी में प्रेमचंद के एक चर्चित कथन को भी हम खूब याद करते हैं, जिसका आशय यह है कि उत्तरदायित्व का बोझ मनुष्य को जवाबदेह बना देता है. यानी पंच कभी अन्याय नहीं कर सकता. लेकिन अब तो लगता है, ये ‘आदर्श’ केवल किताबों तक सीमित हैं. वैसे जानकार बताते हैं कि भारत में पंचायत व्यवस्था अत्यंत प्राचीन काल से मजबूत समृद्ध रही है और बेशुमार ग्राम पंचायतों के माध्यम से ही ग्रामीण क्षेत्र में न्याय का शासन चलता था. यह भी माना जाता है कि अंग्रेजी शासन के पूर्व ग्राम ईकाइयां कई मामलों में स्वावलंबी और स्वतंत्र इकाइयां थीं. आज भी हमारा समाज सिर्फ भारतीय संविधान से नहीं चलता. सदियों से चलते आ रहे संस्कार और रीति रिवाज के रूप में आज भी मनु द्वारा बनाये कानून हम पर लागू हैं. अब मारपीट या झगड़े हों, जमीन के विवाद हों या हत्या का मामला हो. पंचायतों में तो फैसले होते नहीं. बचा विवाह और स्त्री-पुरुष के बीच रिश्तों का विवाद. यहां भी समर्थ/ताकतवर कोर्ट पहुंच जाते हैं. बचे रह गये कमजोर और पिछड़े. परंपरागत पंचायतों का अधिकार क्षेत्र मात्र यहीं बचा रह गया है. अब इस एकमात्र अधिकार क्षेत्र में वे चाहे जितना ध्वंस मचायें, चाहे जितनी क्रूरता न दिखाएं. और अगर इन पंचायतों की अंधेरगर्दी के साथ लडकी पक्ष की इज्जत का मामला जुड जाये तब तो जैसे करेला नीम ही चढ गया. भागलपुर में यही हुआ. दो घर बर्बाद हो गये. एक के बेटे की जान गयी. दूसरे घर के बेटों को मृत्युदंड न भी मिले, उम्रकैद होना लगभग तय है. और जिन पंचों ने उस युवक की हत्या का फैसला सुनाया और इसके लिए उकसाया, वे घर जला कर मजे लेंगे. उनकी सजा का निर्धारण कौन करेगा?
वैसे यह ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं’ का भी मामला है. बेशक हिंदू समाज में इतने निकट रिश्तों में संबंध को गलत माना जाता है. पर दक्षिण में यह बदल जाता है. वहां मामा के साथ रिश्ता स्वीकार ही नहीं है, बल्कि भगिनी से विवाह करने का पहला अधिकार मामा का ही माना जाता है! और हमारे देवगण तो सारी नैतिकता से परे रहे हैं. चाहे इन्द्र हों या ब्रह्मा या श्रीकृष्ण, सबों ने सामजिक निषेधों की सारी सीमाएं तोड़ी हैं, फिर भी ये हमारे देवता हैं, पूजनीय हैं. आज की बात करें, यदि इस तरह का रिश्ता स्वीकार नहीं कर सकते हैं तो रिश्ता तोडना या सामाजिक बहिष्कार तो समझ में आता है, मगर हत्या! यह तो असहिष्णुता और अपनी मान्यता को सर्वोपरि मानने की हिंसक जिद ही है. संयोग से यह मामला यादव परिवार का है. और संयोग देखिये कि श्रीकृष्ण भी यादव थे. उनकी प्रेम लीलाओं से भला कौन अवगत नहीं है. खास कर राधा के साथ उनके रिश्ते से. वह तो शायद उनकी निकट रिश्ते की थी. मगर श्रीकृष्ण हमारे आदर व आराधना के पात्र हैं. यादव समाज भी खुद को गर्व से कृष्ण का वंशज मानता है. मगर उनके आचरण और उपदेशों से किसी को लेनादेना नहीं है.
अंत में एक बात और. सर्वेक्षण बताते हैं कि स्त्री सबसे ज्यादा यौन उत्पीडन अपने परिवार में ही झेलती है. बच्चियां तक इससे मुक्त नहीं हैं. यह घर घर की कहानी है. यहाँ सारे रिश्ते ख़त्म हो जाते हैं, सारी मर्यादा समाप्त. मगर किसी का खून नहीं खौलता! बच्ची शिकायत करे भी, तो उसे चुप करा दिया जाता है. तब परिवार की ‘प्रतिष्ठा’ बात को छिपाने से बच जाती है! अत: नैतिकता की बात तो छोड़ ही दें.
कोई शक नहीं कि सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया जारी है. लड़कियों का आत्मविश्वास बढ़ा है. विभिन्न क्षेत्रों में वे अपनी क्षमता सिद्ध कर रही हैं. मगर दूसरी ओर समाज का बड़ा हिस्सा अब भी पुरानी मान्यताओं से जकड़ा हुआ है. झूठी प्रतिष्ठा को लेकर परेशान है. भागलपुर की यह घटना भी बताती है कि हमारा समाज उदार होने के बजाय अनुदार होता जा रहा है, जो दुखद और चिंताजनक होने के साथ समाज के उदार, प्रबुद्ध लोगों और परिवर्तनकामी ताकतों के लिए एक चुनौती भी है.