जम्बूदीप (वर्तमान भारतवर्ष) क्रमश: आर्यों और मुगलों के पश्चात् लगभग 200 सालों तक अँग्रेजों के गुलामी की जंजीरों से जकड़ा रहा। इस दौरान के इतिहास को पलट कर देखें, तो पता चलता है कि हर विदेशी आक्रमण से हार के पीछे अपनों के ही गद्दारों का सबसे बड़ा हाथ रहा। फिर चाहे वो नाम विभीषण हो या जयचंद या फिर मीरजाफर। 15 अगस्त सन् 1947 को देश ब्रिटिश हुकुमत से आजाद हुआ। ब्रिटिशों ने सम्पूर्ण भारत पर राज किये, कई राजा महाराजाओं को हराये, मगर वृहत् झारखंड क्षेत्र की कहानी तो कुछ और ही बयां करती है। पूरे देश में ये एकमात्र क्षेत्र ऐसा रहा, जहां के आदिवासियों ने जनांदोलनों एवं विद्रोहों के माध्यम से अंग्रेजों के पहले कदम से लेकर आखिरी तक लगातार उनका विरोध किया। यही कारण था, कि अंग्रेजों ने जाते-जाते कभी ना झुकने वाले, कभी किसी की दासता स्वीकार ना करने वाले आदिवासियों को उपनिवेशवाद का गुलाम बनाकर चले गये। 15 नवंबर 2000 को झारखंड राज्य अलग तो हुआ, मगर उपनिवेशवाद की जकड़ से बाहर नहीं निकल पाया।
झारखंड अलग राज्य का निर्माण ऐसे तो झारखंड क्षेत्र के मूलनिवासियों (आदिवासी+मूलवासी) या झारखंडियों की समस्याओं के समाधान एवं उत्थान के लिये हुआ था, मगर हुआ ऐसा कुछ भी नहीं, बल्कि इसके उलट ही हुआ। झारखंड राज्य अलग हुये आज 16 सालों से भी अधिक का समय गुजर गया, मगर झारखंड के शासन, प्रशासन, मीडिया, दफ्तर, कंपनी, ठेकेदारी हर सरकारी/गैरसरकारी संस्था के हर छोटी से बड़ी पदों पर गैर झारखंडियों का कब्जा है। ऐसे में आप कैसे कह सकते हैं, कि झारखंड का विकास हुआ? क्या सड़क, बिजली, पानी ही विकास के पैमाने हैं? मेरे विचार से तो नहीं? हम विकास के विरोधी नहीं, मगर हमारे लिये विकास के सही मायने हैं हमारे लोगों का विकास। अगर आज झारखंड के टिस्को, टेल्को, एचइसी, बीएसएल, सीसीएल, बीसीसीएल जैसे उन सभी कंपनियों में बाहर से डंप किये गये गैर झारखंडियों के बजाय झारखंडियों का वर्चस्व होता, तो हम कहते वाकई झारखंड का विकास हुआ। अगर शहरों में बने बड़े बड़े फ्लैटों में झारखंडियों का बसेरा होता, तो हम कहते झारखंड का विकास हुआ। अगर प्रशासन के उच्च पदों पर झारखंडियों का भी स्थान होता, तो हम कहते झारखंड का विकास हुआ। अगर मीडिया में झारखंडियों का भी बोलबाला होता, तो हम कहते झारखंड का विकास हुआ। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। सफाई दी जाती है, कि झारखंडी इस काबिल ही नहीं हैं। नहीं ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। इसका जीता जागता प्रमाण है जेटेट और जेपीएससी में हुई ताजा धांधली। हमारे लोगों को रोकने और बाहर के लोगों को अंदर करने का ये खेल तो शुरू से चलता आया है। आरक्षण के लाभ से कुछ झारखंडी तो सरकारी सेवाओं में आ भी जाते हैं, मगर प्राईवेट कंपनियों में तो बहुत बुरा हाल है। जमीन हमारी, उस जमीन के नीचे दबा खनिज हमारा, मगर विकास के नाम पर विस्थापन को हमारी नियति बना दी गई है। क्या सरकार किसी भी कंपनी से एमओयू करते वक्त इस बात का शर्त रखना जरूरी समझती है, कि रैयतों को मुआवजा, पुनर्वास, नौकरी के अलावे हिस्सेदारी का हक मिलना चाहिये? क्या वो इस बात का शर्त रखती है, कि उस कंपनी में स्थानीयों का किस ग्रेड में कितना प्रतिशत स्थान होना चाहिये? वहां के लोगों को कंपनी बसने तक उस लायक बनाना भी कंपनी और सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिये। 2014 से पहले स्थानीय नीति ना होने और 2014 के बाद गैर झारखंडी सरकार द्वारा गैैर झारखंडी स्थानीय नीति बनाकर झारखंड को चारागाह बना दिया गया। इन सब के दोषी कौन?
यकीनन दोष हम झारखंडियों का है, जिन्होंने ऐसी सरकार चुनी और वो भी बहुमत की सरकार, जिसने झारखंड का मालिक एक ऐसे गैर झारखंडी को बना दिया, जिसे जब जो मर्जी होती है, तुगलकी फरमान की तरह जारी कर देती है। ऐसे ही हिटलरशाही फैसले के तहत उसने वो काम भी कर दिये, जो कभी किसी ने सोचा भी ना था। उसने झारखंडियों की आत्मा सीएनटी/एसपीटी एक्ट में संशोधन कर उनकी रक्षा कवच को ही तोड़ देने का षडयंत्र रच दिया। दलील ये देते हैैं, कि इसके पहले की झारखंडी सरकारों ने भी इसपर संशोधन करने के प्रस्ताव लाये थे। मगर ये प्रस्ताव थाना क्षेत्र की बाध्यता को खतम कर जिला स्तर पर लागू करने की थी, ना कि भूमि की प्रकृति को ही बदल देना। इससे आदिवासी की जमीन आदिवासी के पास ही रहती ना कि किसी गैर आदिवासी के हाथ जाती। जमशेदपुर के नटराज सिनेमा हॉल (वर्तमान में बंद) को इसलिये मॉल में तब्दील करने नहीं दिया जा रहा, क्योंकि उसके लीज एग्रीमेंट के तहत वो वहां इंटरटेनमेंट सेंटर ही खोल सकते हैं, उसकी प्रकृति को बदलकर कुछ और नहीं कर सकते। जिस वक्त ये एक्ट लागू किये गये थे, उस वक्त एक थाना क्षेत्र की सीमा काफी बड़ी होती थी। कालांतर में थानाओं की संख्याएं बढ़ती गई और सीमायें घटती गई। यहां दलील ये भी दी जाती है, कि उन नेताओं ने एक्ट से बाहर जमीन ले रखी है, इसलिये वो संशोधन करना चाहते थे। अगर ऐसा था भी, तो क्या जनता के विरोध करने पर वो जबरन इसे लागू करते, या संशोधन वापस ले लेते? फिर वर्तमान सरकार किस उद्देश्य के तहत एक्ट धारियों के मर्जी के खिलाफ उनके ना चाहते हुये भी जबरदस्ती संशोधन करना चाह रही हैं? भाई मेरे, क्या आपने कभी बाहर से आकर बसे उन प्रवासी लोगों के खिलाफ एक आवाज भी बुलंद करने की कोशिश की है, जिन्होंने एक्ट का उल्लंघन कर जाने कितने सैकड़ों एकड़ जमीन पर अपना कब्जा कर रखा है। दखलदिहानी के ऐसे न जाने कितने माामले कितने सालों से लंबित पड़े हुये हैं, जिनपर सरकार भी मूकदर्शक बनी हुई है। इसके अलावे ना जाने कितने एकड़ सरकारी जमीनों पर बाहरियों ने कब्जा कर बस्ती बसा रखा है।
दोष हमारे झारखंडी नेताओं का भी कम नहीं है? जब बाबूलाल मरांडी ने खतियानी स्थानीय नीति की घोषणा की थी, तो उन्हीं की पार्टी के चंद गैर झारखंडियों ने विरोध कर सदन हिला दिया था। बाद में मरांडी जी को कुर्सी से भी नीचे उतरवा दिया गया। मगर हमारे सत्ता पक्ष के झारखंडी विधायकों ने गलत स्थानीय नीति और सीएनटी/एसपीटी एक्ट संशोधन किये जाने पर भी ऐसा कुछ भी करना तो दूर, उल्टे समर्थन किया। झारखंड में 2014 से पहले झारखंडी ही सरकार में रहे। बीजेपी ने चार बार सरकार बनाई, और 8 साल 1 महीना 29 दिन तक शासन किये। इसमें बाबूलाल मरांडी जी ने प्रथम मुख्यमंत्री के रूप में 2 साल 4 महीने 3 दिन एवं अर्जुन मुंडा तीन बार मुख्यमंत्री बनकर 5 साल 9 महीने 26 दिन तक राज किये। निर्दलीय मधु कोड़ा 1 साल 11 महीने 10 दिन तक मुख्यमंत्री रहे। झामुमो भी चार बार सत्ता पर काबिज हुई, मगर 2 साल 3 महीने 15 दिन ही सत्ता में रहे। शिबू सोरेन तीन बार के क्रम में 13 दिन, 4 महीना 21 दिन और 5 महीना 1 दिन के साथ कुल 10 महीने 5 दिन कुर्सी पर काबिज रहे एवं हेमंत सोरेन 1 साल 5 महीने 10 दिन तक मुख्यमंत्री रहे। इनके अलावे इन चौदह सालों में कई झारखंडी विधायकों को मंत्रीपद का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कुछ तो चौदह साल तक लगातार मंत्री पद में रहे। तीन बार राष्ट्रपति शासन भी लागू हुआ, कुल 1 साल 8 महीने 14 दिन की अवधि के साथ।
जनता अपना विधायक चुनती है, सरकार चुनती है, किसलिये? रोड रास्ता बनाने के लिये नहीं, वो तो संंबंधित विभागों का काम होता है। सरकार का काम होता है नीतियां बनाना। मगर 14 सालों में झारखंडी सरकारों ने ऐसी कोई नीति ही नहीं बनाई, जो झारखंडियों के हित में हो, जिससे झारखंड बनाने का मकसद पूरा हो। ना कोई स्थानीय नीति बना सके, ना विस्थापन नीति, ना कृषि नीति ना शिक्षा नीति ना रोजगार नीति ना कुछ, जिससे झारखंडियों को लाभ पहुंच सके। एक कोशिश हेमंत सरकार ने जरूर की थी स्थानीय नीति बनाने की, मगर गठबंधन सरकार के दो विधायकों के हस्ताक्षर ना करने से मामला लटक गया।
वहीं 28 दिसंबर 2014 को भाजपा बहुमत की गैर झारखंडी सरकार कुर्सी पर बैठते ही दनादन नीतियां बनाने लगी, मगर झारखंडियों के हक में नहीं, बल्कि गैर झारखंडियों के हक में। सबसे पहले उसने एक कानून बनाया, आंदोलन में क्षति पहुंचाने वालों को विभिन्न धाराओं का केस। क्योंकि उसने तो अपना रोड मैप पहले ही तैयार कर रखा था और उसे मालूम था, कि आगे क्या होने वाला है। इसके बाद सबसे पहले बारी आई स्थानीयता पर प्रहार की, झारखंडी विधायक चुपचाप। विपक्ष ने थोड़ा बहुत हंगामा किया, मगर नाकाफी साबित हुआ, जनता का भी अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। फिर बारी आई, कुड़मियों के लम्बे समय से बहुप्रतीक्षित मांग एसटी इंक्लूजन की नेगेटिव रिपोर्ट केन्द्र सरकार को भेजने की, कुड़मी विधायक चुप, किसी ने एक सवाल तक नहीं किया। फिर बारी आई नियुक्तियों की और भूअधिग्रहण की। इसके बाद उनकी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षी निर्णय सीएनटी/एसपीटी एक्ट में संशोधन की बारी आई। इसके तहत कृषि भूमि की प्रकृति बदलकर गैर कृषि भूमि में तब्दील कर एवं उसपर 1% कर लगाकर झारखंडियों से उनका सबकुछ छीन लेने की योजना को अमल में लाया गया। सदन में विपक्ष के भारी विरोध के बावजूद महज तीन मिनट में बिना किसी चर्चा के बिल पास कर दिया गया, जो लोकतांत्रिक इतिहास में एक काला धब्बा बन गया। और भी कई ऐसी नीतियां, जो झारखंडी हितों के खिलाफ है।
विदित हो, कि सन् 1831-32 में सिंदराय मानकी-बिंदराय मानकी के अंग्रेजों, जमींदारों और दिकुओं के खिलाफ ‘दि ग्रेट कोल विद्रोह’ के फलस्वरूप सन् 1837 में ‘विलकिंसन रूल’ बना। सन् 1855-56 में सिदो-कान्हू के संताल हूल विद्रोह के फलस्वरूप 1872 में ‘संताल परगना सेटलमेंट रेगुलेशन एक्ट’ बना, जो 1949 में ‘संताल परगना टैनेंसी एक्ट’ में परिवर्तित हुआ। सन् 1895-1900 तक धरती आबा बिरसा मुंडा के उलगुलान के फलस्वरूप 1908 में ‘छोटानागपुर टैनेंसी एक्ट’ बना। इन एक्ट का उद्देश्य ना सिर्फ आदिवासियों की जमीन गैर आदिवासियों के हाथ जाने से रोकना था, बल्कि इन क्षेत्रों में सदियों से चली आ रही पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था को कायम रखना भी था। मगर आश्चर्य की बात है, कि इन शहीदों के सपनों, अरमानों, संघर्षों और बलिदानों के उद्देश्यों को ताक पर रखकर इनमें संशोधन करने की हिमाकत की गई। फिर जाने किस हैसियत से इनके प्रतिमाओं पर माल्यार्पण करने व श्रद्धांजलि देने भी पहुंच जाते हैं।
अगर पूर्व की सरकारों ने दूरदृष्टि दिखाई होती और झारखंडी हितों में नीतियां बनाई होती, तो झारखंड की वर्तमान परिस्थिति कुछ अलग ही होती। जो काम वे 14 सालों में नहीं कर पाये, वर्तमान सरकार ने महज 14 महीने में करके दिखा दिया, मगर झारखंडियों के लिये सब कुछ तबाह बर्बाद कर दिया। इन ढाई सालों में झारखंडी खुद को सिवाय ठगा हुआ पाने के और कुछ नहीं समझ पा रहे हैं। वर्तमान समय में एक ओर झारखंडी जनमानस जहां उबल रहा है, वहीं राजनीतिक पटल में भी उथल पुथल मचा हुआ है। आने वाले समय में झारखंडियों को बहुत सोच समझ कर फैसला लेने की जरूरत है। जो गलती 2014 में हुई है, उसकी पुनरावृत्ति ना हो, हर हाल में ये ध्यान में रखना है, वर्ना इस बार खोने को और कुछ भी नहीं बचेगा। बस दूसरों के बहकावे में ना आयें, अफवाहों पर ना जायें और अपने विवेक से काम लें।