पूरे देश में जब किसानों की आत्महत्या की खबरें आ रही हैं, किसान आंदोलन पर निकल पड़े हैं, वैसे में वर्षा की दस्तक के साथ झारखंड के आदिवासी किसान अपने खेतों को जोतने बोने की तैयारी में लग गया है. बहुतों को यह बात समझ में नहीं आती होगी कि वह कृषि क्षेत्र में हो रहे इतने हंगामों से इतना निर्लिप्त क्यों है? जब पूरे देश में, अनेकानेक विकसित राज्यों में किसान बेहाल हैं, आत्महत्या कर रहे हैं, वैसे में झारखंड के आदिवासी निर्लिप्त भाव से खेती किसानी में कैसे लग सकते हैं?

वैसे, अभी-अभी झारखंड में भी दो किसानों की आत्महत्या की खबर आई है. राजधानी रांची से बिल्कुल बगल पिथौरिया क्षेत्र में दो किसानों ने आत्महत्या कर ली. एक हैं बलदेव महतो, दूसरे कामेश्वर महतो. झारखंड सरकार यह मानने के लिए तैयार नहीं कि इन दोनों ने कृषि कर्ज के बोझ से परेशान हो कर आत्महत्या की. हम भी इस विवाद में नहीं जायेंगे. कुछ वर्ष पूर्व रातू रोड के इलाके में भी आत्महत्या की एक घटना हुई थी. अदरक की खेती करने वाले एक किसान ने आत्महत्या कर ली थी. यानी, झारखंड में भी किसानों द्वारा आत्महत्या की छिटपुट घटनाएं हो रही हैं. लेकिन अभी तक किसी आदिवासी किसान द्वारा आत्महत्या की खबर सामने नहीं आई है. या हुई भी तो हमारी जानकारी में नहीं.

इस तथ्य से एक क्रूर सा विचार लोगों के जेहन में उभरता है - आदिवासी ‘जब्बर’ जान है. वह आसानी से हार नहीं मानता. कठिन से कठिन परिस्थिति में भी जिंदा रह लेता है. निराश नहीं होता. लेकिन आदिवासी समाज का यह गुण भी बहिरागत समाज के लिए कोई ‘गुण’ नहीं. उन्हें लगता है, आदिवासी अमानुष है. सामान्य जीव नहीं. जबकि थोड़ी संवेदना से आप इस प्रश्न को हल करने का प्रयास करेंगे, तो आप न सिर्फ इस सवाल का हल निकाल लेंगे, बल्कि कृषि संकट के मूल तक पहुंच सकेंगे.

सबसे पहली बात तो यह कि खेती कोई धंधा नहीं, जीवन जीने की एक पद्धति है. खेती से आपका पेट तो भर सकता है, आप सामान्य जीवन तो जी सकते हैं, लेकिन उपभोक्तावाद से उत्पन्न तमाम लालसायें कृषि कार्य से पूरी नहीं होने वाली. खेती से विलासिता पूर्ण जीवन तो सिर्फ जमींदार ही जी सकता है, सामान्य किसान बस उससे जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सकता है. आईये, देखें और समझे, आदिवासी किस तरह खेती करते हैं और देश के अन्य राज्यों के किसानों से भिन्न है.

सबसे पहली बात तो यह कि वह खेती सिर्फ अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए करता है. वह मंडी को ध्यान में रख कर खेती करता ही नहीं. उसका मुख्य आहार चावल है. इसलिए वह बगैर व्यावसायिकता के दबाव में आये, अपने खेत में सबसे पहले धान की खेती करता है. इस मुख्य फसल के बाद ही अपने संसाधनों को देखते हुए वह अन्य किस्म की फसलें लगाता है. धान भी वह खुद के खाने के लिए उपजाता है. मजबूरी में ही मंडी जाता है. जिन इलाकों में धान की खेती लायक जमीन नहीं, वहां वह अन्य किस्म की खेती करता है.

दूसरी बात, वह दिहाड़ी मजदूरों पर निर्भर नहीं. वह खुद परिवार सहित- यानि, पत्नी, बहन, भाई, बच्चे, सभी अपना योगदान खेती के कुछ महीनों में देते हैं. सामान्यतः आदिवासी किसानों के पास इतनी ही जमीन होती है जिस पर वे अपने श्रम से खेती कर सकें. जहां जरूरी हुआ, वे एक दूसरे की मदद कर देते हैं, लेकिन सामान्यतः कुछ गिने चुने बड़े किसानों के, कोई दिहाड़ी पर मजदूर रख कर खेती नहीं करता.

वह सामान्यतः आज भी गोबर के खाद का प्रयोग करता है. रासायनिक खाद खरीदने का पैसा उसके पास नहीं. धान का बीज भी वह भरसक हर साल बचा कर रखता है. वैसे, अब बाजार से भी बीहन का प्रचलन शुरु हो रहा है.

वह भरसक बैंक से कर्ज नहीं लेता. झारखंड के भू कानूनों के हिसाब से वह जमीन रेहन पर रख कर कर्ज नहीं ले सकता था. और इस वजह से वह अभी तक बचा हुआ है. हालांकि हाल के वर्षों में कानून में कुछ बदलाव लाकर सरकारें उसे प्रलोभन देती रहती है कि वह बैंक से कर्ज ले. लेकिन अभी तक तो वह इस प्रलोभन से बचा हुआ है.

यह सही है कि अपनी परंपरागत खेती से उसकी तमाम जरूरतें पूरी नहीं हो पाती. अधिकतर किसान साल भर का खुराकी भी नहीं जुटा पाता, लेकिन उसको जीने में मदद करती हैं वनोत्पाद. जरूरत पड़ने पर वह मजूरी कर लेता है. कंद मूल खा कर ही जी लेता है, लेकिन व्यावसायिकता के चक्कर में नहीं पड़ता. व्यावसायिक खेती के जाल में नहीं फंसता.

इसीलिए, उसके लिए ज्यादा अहम सवाल जल, जंगल, जमीन पर अधिकार है. वह इस बात को समझता है कि अपने क्षेत्र में यदि जल, जंगल, जमीन पर उसका अधिकार बना रहे, तो प्रकृति के अक्षय भंडार से वह अपने जीने का आधार प्राप्त कर ही लेगा. इसलिए लड़ वह भी रहा है, लेकिन कृषि कर्ज की माफी के लिए नहीं, अपना जल, जंगल, जमीन बचाने के लिए. सीएनटी, एसपीटी कानूनों की रक्षा के लिए. और यह लड़ाई वह सदियों से लड़ता आ रहा है.