ऐसे वक्त में जब देश भर में हर साल दस हज़ार किसान आत्महत्या कर रहे हों (हर रोज़ लगभग 25 से ज़्यादा), झारखंड में दो किसानों का कर्जे से परेशान होकर आत्महत्या कर लेना बाकी देश के लिए कोई बड़ी खबर नहीं है, मगर हमारे लिए है. क्योंकि राज्य में यह पहली ऐसी घटना है. यह अलग बात है कि प्रशासन के स्तर पर इन घटनाओं को खारिज करने की कोशिश
जारी है. पहली घटना में कहा गया कि मृतक के नाम कोई लोन नहीं था, कि उसने पारिवारिक परेशानियों के कारण फांसी लगा ली. एक हफ्ते के अंदर जब उसी गांव में एक और किसान ने आत्महत्या कर ली, तब भी यही कहा गया कि उसके ऊपर भी कोई बैंक लोन नहीं था, इस बार तो इसे दुर्घटना भी बताया गया क्योंकि मृतक ने अपने ही आंगन के कुएं में कूद कर जान दी थी. कहा गया कि चूंकि वह नशे का आदी था तो संभव है कि नशे की हालत में गलती से कुएं में गिर गया हो. राज्य की राजधानी से सटे गांव की घटना होने के बावजूद मुख्यमंत्री का वहां न पहुंचना भी बताता है कि तंत्र इस मामले में कितना गंभीर है.
आज देश भर के कम से कम छह राज्यों में किसान कृषि से बेहतर आय के लिए आंदोलनरत हैं. झारखंड में किसी आंदोलन, या ऐसी किसी मांग की आहट तक नहीं है. ऐसा इसीलिए नहीं कि झारखंड में किसान बहुत खुशहाल हैं, या यहां किसानी मुनाफे का सौदा बना हुआ है. यहां तो अधिकतर किसानों को फसल उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पाता. अधिकतर छोटे और सीमांत किसान हैं, खेती में उर्वरकों और अन्य रसायनों का प्रयोग, और अधिकतर फसलों की उत्पादकता भी देश के अग्रणी राज्यों से बहुत कम है, कृषि लोन भी बहुत कम किसान लेते हैं.
पिठौरिया बड़ा गांव है. राज्य के इकलौते कृषि विश्वविद्यालय से दस एक किलोमीटर दूर. सब्ज़ियों की अच्छी खेती होती है. कुछ अच्छे समृद्ध किसान भी हैं. स्वाभाविक रूप से पिठौरिया कृषि वैज्ञानिकों का फेवरेट है. कालेश्वर भी (जिन्होंने फांसी लगाई), जिन्हें यूनिवर्सिटी की भाषा मे प्रोग्रेसिव कहते हैं, वही थे. अपने खेत में फ्रंट लाइन डेमोंस्ट्रेशन करने देते थे, बैंक से लोन लेते थे, मगर अंतत: हार गये. बलदेव ने भी गर्मी में सब्ज़ियां लगाई थीं, जिन्हें वो पटवन नहीं दे सके और फसल बर्बाद हो गयी. यह एक हताशा की शुरुआत है.
विडंबना यह है कि हमारे यहां रिसर्च में जो तकनीक लागत का कम से कम डेढ़ गुना शुद्ध लाभ न दे, मतलब 100 रुपये लगाने पर अगर 250 वापस न आये, उसे हम भाव नहीं देते हैं. उसकी अनुशंसा नहीं की जाती है, और किसान अपने लागत का कम से कम डेढ़ गुना समर्थन मूल्य हो, इसके लिए लड़ रहे हैं, मर रहे हैं. खेतों से बहुत दूर बैठे हमलोग यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि किसान की आय अगर इतनी कम है तो वो जी कैसे रहा है. जी वो बस अपनी जिजीविषा से रहा है. एक हेक्टेयर में धान लगाने की लागत हमलोग अपने हिसाब किताब में 25 हज़ार रखते हैं. मान लेते हैं कि किसान 15 हज़ार ही खर्च करता है, जबकि ऐसा है नहीं. हम ट्रैक्टर का 650 रुपये प्रति घंटा जोड़ते हैं, जबकि बाहर 800 प्रति घंटा से कम में नहीं मिलता है, फिर भी मान लेते हैं कि 15 हज़ार खर्च आया. झारखंड में धान की औसत पैदावार 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. आप इसे भी 15 क्विंटल मान लीजिये. यानी 15 हज़ार खर्च करके उसे 15 क्विंटल धान मिलता है, प्रति क्विंटल हज़ार रुपये का खर्च. और उसे मिलते कितने हैं? कभी 900, कभी 1000, कभी 1200 हज़ार रुपये के खर्चे पर 200 रुपये का शुद्ध लाभ! यही हमारा हासिल है.
और सरकारी कृषि नीति बस यही रह गयी है कि कैसे अधिक से अधिक किसानों को लोन बांटे जाएं, सारे बैंक और सरकारी कर्मचारियों को कृषि लोन का टारगेट थमा दिया जाता है. यह सुनिश्चित किये बिना कि किसान वो कर्जा चुका पाने की स्थिति में आ पायेगा या नहीं. मीडिया में भी पूरे किसान आंदोलन में से कर्जमाफी की मांग को ही फोकस किया जा रहा है. सच है कि कर्जमाफी तात्कालिक हल है, और कर्जमाफी के नाम पर राजनीति होती रही है, और कर्जमाफी से सरकारी खजाने पर बोझ भी बढ़ता है. लेकिन सवाल यह भी है कि सरकारी खजाना है क्या? किसानों की कर्जमाफी से ज़्यादा बड़े बोझ, वेतनवृद्धि से लेकर अन्य नुकसानों तक, सरकारें खुशी खुशी उठाती रही हैं. अगर आपका खजाना देश की 58 फीसदी, आबादी जो कि खेती से जुड़ी हुई है, को राहत भी न दे सके, तो वह किस काम का? जो आपदा प्रत्येक वर्ष दस हज़ार लोगों की जान ले रही हो उसके प्रति इतना निरपेक्ष भाव क्यों? और कर्जमाफी के इस शोर में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के आधार पर समर्थन मूल्य बढ़ाने की बात गौण ही हो गयी है.
समस्या यह है कि किसान या कृषि, सरकारों की प्राथमिकता में ही नहीं रही. एक रिपोर्ट बताती है कि आंध्र (अब तेलंगाना) और विदर्भ के इलाकों में किसानों की आत्महत्याओं का एक कारण बोरवेल का फेल होना है, किसान बोरिंग के लिए कर्ज लेते हैं, और बड़ी संख्या में हो रहे बोरिंग के कारण बोरवेल दो चार साल में फेल हो जाते हैं, और बोरवेल के साथ फसल भी. फिर नया कर्ज लिया जाता है, फिर बोरिंग होता है और फिर फेल होता है. कर्जा कभी उतर ही नहीं पाता. सिंचाई एक ऐसी ज़रूरत है जिसके बिना अच्छी फसल संभव ही नहीं. आप सबकुछ कर सकते हैं, रोगों व्याधियों, कीटों से फसल की रक्षा कर सकते हैं, मगर अगर पानी न हो तो फसल बेकार. हमारे कॉलेज में पिछले साल 5 लाख खर्च करके बोरिंग करवाया गया, वह बोरिंग भी फेल ही समझिए, पीने भर को पानी निकलता है मगर आधा एकड़ भी अगर पटाना चाहें तो नहीं हो पाता है. पिठौरिया में मृत बलदेव महतो के परिवार के लिए बोरिंग कराने का निर्देश सांसद रामटहल चौधरी ने दिया है. मगर बोरिंग समस्या को और विकराल कर रही है. बालू के लिए नदियों के तल खोद डाले गये हैं, तालाब भर कर घर बन रहे हैं, बोरिंग ज़मीन को बंजर कर रहे हैं. ऐसे में ज़रूरत पानी के प्राकृतिक स्रोतों को, नदियों, तालाबों, कुओं को समृद्ध करने की है. इस दिशा में गंभीर काम नहीं हो रहा है.
हमने हमेशा से पढ़ा है कि भारतीय किसान कर्जे में पैदा होता है और कर्जे में ही मर जाता है, पीढ़ी दर पीढ़ी. सरकारी ऋण व्यवस्था भी वैसा ही जंजाल बन गई है, और बनी रहेगी जब तक खेती की मूल समस्या का हल नहीं ढूंढा जाएगा. केसीसी बांटना या कर्ज माफ करना, या सिंचाई के लिए बोरिंग करा देना कृषि की वृहत्तर समस्या का हल नहीं है. हल यह है कि किसान आत्मनिर्भर हों. उनकी आय इतनी हो कि कर्ज के बिना खेती कर सकें, और कर्ज अगर लेना पड़े तो उसे चुका सकें, और कर्ज चुकाने में अपनी ज़रूरतें न छूट जाएं. कृषि ऋण की व्यवस्था किसानों को सबल करने के लिए होनी चाहिए, न कि उन्हें मकड़जाल में उलझाने के लिए. और किसान सबल तब होंगे, जब उनके पास साधन होंगे (उर्वर भूमि, अच्छे बीज, और पानी, सिर्फ पैसा नहीं) और जब उनके नुकसान के लिए उन्हें आसानी से मुआवजा मिलेगा, जब उन्हें अपनी मेहनत से उगाई फसल का सही दाम मिलेगा.