15 नवंबर 2000 को जब झारखंड बना तो झारखण्डी लोगों में एक उम्मीद जगी, क्योंकि उस समय झारखंड बिहार से अलग हुआ था. यदि जयपाल सिंह मुंडा के शब्दों में कहे तो झारखण्डी लोग बिहारी साम्राज्यवाद से अलग हुये थे. और खुश क्यों नहीं होते? इतने दिनों के बाद वह राज्य बना जिसे झारखंडी लोग अपना कह सके. साथी सीताराम शास्त्री कहा करते थे, बिहार बिहारियों के लिए, बंगाल बंगालियों के लिए, उसी तरह पंजाब पंजाबियों के लिए. ठीक इसी तरह जब झारखण्डी अपना राज्य खोजने की कोशिश करते थे, तो उन्हें सिर्फ निराशा ही हाथ लगती थी. अलग झारखंड राज्य का सपना पूरा करने की उम्मीद लिए न जाने कितने झारखंडी शहीद हो गए. जब झारखण्ड राज्य बना तो झारखंडियों के चेहरे में एक प्रसंन्नता दिख रही थी. वह उनकी निजी खुशी नहीं, पूर्वजों के संघर्ष और बलिदान से मिले राज्य की खुशी थी.
खैर झारखण्ड अलग राज्य आंदोलन का मुख्य मुद्दा, झारखंडी जनता के अस्तित्व और पहचान का है. झारखण्ड अलग राज्य बना, सभी खुश हुए, लेकिन लोग धीरे-धीरे इस बात को भूलते गए कि झारखण्ड राज्य की स्थापना की मांग किससे, क्यों, और किसके लिए थी? सन 2000 में जब राज्य बना तो ज्यादातर आंदोलनकारी, जो मुख्य राजनीतिक पार्टी में थे, वे तो सत्ता में हिस्सेदारी के लिए व्यस्त हो गए, जो छोटे मोटे दल में थे, वे भीड़ में खो गए. और एक तबका झारखण्ड आन्दोलन का चेक भजाने में लग गए.
सन् 2000 से पहले का, अपने बचपन के दिनों की कुछ कहानियां मुझे आज भी याद है. संयुक्त बिहार में चुनाव का माहौल था. झारखण्ड मुक्ति मोर्चा की एक प्रचार गाड़ी गांव में आई. उसमें झारखण्ड के आंदोलनकारी सह झूमर गीतकार का एक गीत बज रहा था. और गीत में गीतकार एक झारखण्डी से पूछता है- झारखंडी रे झारखंडी, तुम्हारा घर कितनी दूर है? झारखण्डी जवाब देता है, कि मेरा घर तो बिहार, बंगाल और ओड़ीसा के किनारे-किनारे है.
यानि, झारखण्ड आंदोलनकारियों की मांग सिर्फ बिहार से नहीं थी, झारखण्ड अलग राज्य की मांग ओड़ीसा से, बंगाल से और तत्कालीन संयुक्त मध्यप्रदेश से भी थी.
यह जरूर है कि बिहार से एक बड़े भूभाग का दावा था. अन्य राज्यों के कुछ भागों पर दावा था. जैसे, पश्चिम बंगाल से मेदनीपुर, पुरुलिया और बांकुड़ा. ओड़ीसा से मयूरभंज, क्योझोर और सुन्दरगढ़. और तभी के मध्यप्रदेश, तत्कालीन छत्तीसगढ़ से रायगढ़ा की मांग थी.
झारखण्ड का मतलब अभी का तत्कालीन 24 जिलों में फैला भौगोलिक क्षेत्र नहीं है, झारखण्ड का मतलब छोटानागपुर और संथाल परगना नहीं है. झारखण्ड का मतलब यहाँ की नदी, जंगल, पहाड़ नहीं है. झारखण्ड का मतलब राजधानी रांची नहीं है. और न ही यहाँ के विधानसभा में बैठने वाले 81 विधायक है.
झारखण्ड का मतलब झारखंडी जनता से है, जो आज बिखरी हुई है. बिहार से अलग होकर जब झारखण्ड बना तब झारखण्ड आंदोलनकारी से लेकर यहाँ सभी पार्टियां यही सोचने लगी कि सत्ता की बागडोर कैसे उनके हाथों में आये. बिहार के जिस भूभाग में झारखण्डी लोग बैठे थे, वह जब झारखण्डियों को तो मिला तो वे तो गदगद हो गए. लेकिन उन झारखंडियों का क्या जो बंगाल, ओड़ीसा और छत्तीसगढ़ (उस समय मध्यप्रदेश) में बसे थे? वे तो तब भी ठगा हुआ महसूस करते थे और आज भी कर रहे है.
जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि झारखण्ड से झारखण्डियों की जनसंख्या धीरे-धीरे घट रही है. क्या ऐसा सच में है? आप एक बार अपने घर परिवार में, गांव में नजर दौड़ा के देख लें. फिर बोलिये, क्या हमारे गांव की जनसख्या में कमी आयी है? आपका जवाब होगा नहीं. और सच भी यही है कि झारखंडियों की आबादी घटी नहीं है.
तो फिर आंकड़ों में यह जनसख्या कैसे घट गयी? जनगणना के माध्यम से जो आंकड़ा हमे बताया जाता है वह आंकड़ा प्रतिशत में बताया जाता है. और झारखंड की आबादी एक तो शहरों में है और दूसरी गांवों में रहती है. यह सिर्फ झारखण्ड में ही नहीं, भारत के हर राज्यों का एक जैसा ही हाल है. परंतु झारखण्ड में यह स्थिति दूसरी है. जैसे बिहार के शहरों में यदि यादव बहुसंख्यक हैं, तो गांव में भी यादव बहुसंख्यक ही पाए जाएंगे. यदि यूपी के शहरों में राजपूत रहते हंै, तो गांवों में भी रहते है. परंतु झारखण्ड में यह स्थिति भिन्न हो जाती है. यहां के शहरों में जो आबादी रहती है, वही आवादी गांवों में नहीं पायी जाती है. साफ-साफ कहा जाए तो झारखण्ड के गांवों में झारखण्डी बहुसंख्यक है, वही शहरों में वे अल्पसंख्यक हो जाते है.
मूल बात यह है कि झारखण्ड के शहरों की आबादी में लगातार इजाफा हो रहा है. और अब यह बताने की जरूरत नहीं है कि किनकी आबादी में बढ़ोतरी हो रही है. और इस कारण किसकी आबादी का प्रतिशत घट रहा है. जाहिर सी बात है कि झारखण्डियों की आबादी का प्रतिशत ही घट रहा है.
और यह जो आंकड़ा बढ़ने और घटने का खेल है, यह कोई अपने आप हो रहा हो, वैसा भी नहीं है. नहीं तो कुछ लोगों की जनंसख्या का आंकड़ा अपने आप कैसे घट बढ़ रहा है? इसके पीछे एक बड़ा समूह लगा हुआ है. जब झारखण्ड को सिर्फ बिहार से अलग करने का फैसला हुआ, तब भी एक राजनैतिक स्वार्थ काम कर रहा था. और वह अपने दीर्घकालिक लक्ष्य को लेकर काम कर रहा था. उनके दिमाग में यह स्पष्ट था कि जिस झारखण्ड का डिमांड झारखण्डी जनता कर रही है, यदि उन्हें यह दे दिया जाए तो यहां तो झारखण्डियों की आबादी 50 प्रतिशत से ज्यादा हो जाएगी. क्योंकि ओड़ीसा, बंगाल और मध्यप्रदेश के जिन जिलों की मांग झारखण्ड में शामिल करने की है, उन जिलों में झारखंडी बहुसंख्यक हंै.
और किसी भी राज्य में वहां के मूल आदिवासियों की जनसंख्या 50 प्रतिशत से ज्यादा हो जाएगी, तो उसे छठी अनुसूची में शामिल करना पड़ेगा. आज इनकी नीति और चालाकी के कारण झारखंड के नौ जिले- बोकारो, धनबाद, गिरीडीह, हजारीबाग, रामगढ़, कोडरमा, गढ़वा, चतरा और गोड्डा पांचवी अनुसूची से भी बाहर हंै. आज जरूरत है जिन तीर- कमानों को हमने 2000 में ठंडे बस्ते में डाल दिया था, उसे निकलने की जरूरत है झारखण्डियों को एकजुट हो फिर से झारखण्ड आंदोलन खड़ा करने की. अपनी सत्ता लोलुपता को त्याग कर सम्पूर्ण झारखण्ड के लिए एक बार फिर उठ खड़े होने की.
और एक महत्वपूर्ण बात. अभी जो वृहद झारखण्ड की लड़ाई लड़ी जाएगी, इसे दो स्तरों पर लड़ी जाएगी. एक तो है वैचारिक, दूसरा है शैक्षणिक. और इसमे एक ओर चीज जोड़ सकते है. वह है कुशल नेतृत्व. यानि, अभी का जो तत्कालीन नेतृत्व दिख रहा है, इनलोगों से झारखण्डी जनता का विश्वास उठ चुका है. इसलिए हमारा काम अब दुगुना है. हमे न सिर्फ नेतृत्व करना है, बल्कि नए नेतृत्व को उभारना भी है. नए नेतृत्व को विचार की धार के साथ आगे बढ़ना होगा.