हमारे विशाल देश भारत में ऐसे लोगों की संख्या अब लगभग न के बराबर है जिन्होंने गांधी को देखा, छुआ और जो उनके व्यक्तित्व-कृतित्व से प्रेरित कार्यों में शामिल रहने को ही अपने जीवन का साधन व साध्य माना।
‘गांधी’ की तीन छवियां आज भी देश में कमोबेश कायम हैं। समय के अनुसार उन छवियों पर बाहर से प्रकाश देने की कोशिश होती है। ऐसा कर गांधी के समर्थक और विरोधी अपना आस्तित्व एवं उपादेयता सहित खुद अपनी छवि को स्थापित करने की कोशिश करते हैं। उन्हें अपनी ‘छवि’ को चमकाए रखने में इससे मदद मिलती दिखती है। इसलिए वे गांधी के समर्थन अथवा विरोध के बहाने अपने-अपने हिस्से की चमक लेने-पाने की होड़ में पड़े दिखते हैं।
गांधी की एक छवि उन लोगों द्वारा निर्मित है जो हिंसा को हेय नहीं मानते (जबकि गांधी बराबर उसका विरोध करते हैं)। जो ‘हिंसा’ से आजादी छीनने के लिए प्रतिबद्ध थे, उनमें से कुछ को जेल की सजा मिली। उनके बारे में गांधी ने जिस तरह की बात कही, उससे उनको लगा कि गांधी ने उनकी उपेक्षा की। इसके चलते उनके प्रति जो विरोध हिंसक क्रांति के समर्थकों के मन में बना, वह हर अहिंसक आंदोलन या अहिंसक क्रांति की कल्पना या संकल्प के विरोध का पर्याय सा बन गया।
दूसरी छवि उन लोगों की (सशस्त्र क्रांतिकारियों द्वारा निर्मित) है, जिनके मन में 1942 के पहले ‘हिंसा’ के बारे में संदेह पैदा हुआ (द्वितीय विश्वयुद्ध का प्रत्यक्ष संदर्भ था)। हिंसा और युद्ध के बारे में, और हिंसा के द्वारा उनके उन उद्देश्यों के बारे में उनके मन में संदेह पैदा हुए, जो उनके क्रांतिकारी आंदोलन के उद्देश्य थे। सो, उन्होंने उस समय हिंसा का समर्थन तो छोड़ दिया, लेकिन ‘गांधी’ की राजनीति के बारे में मनोभाव बना कि यह आदमी राजनीति के क्षेत्र में है और बड़ा घुन्ना आदमी है, लेकिन नैतिक दृष्टि से उतना बड़ा नहीं है, जितना कि वह दिखता है। हां, यह है कि वह बड़ा कुशल राजनीतिक व्यक्ति है (संत-वंत नहीं है)। सभी तरह के लोगों से काम ले सकता है और ऐसी राजनीति करनी है तो यह स्वाभाविक और उचित भी है। आखिर हमलोग भी अपने क्रांतिकारी दल में बहुत से लोगों से काम साधते हैं, जिनके बारे में हम जानते हैं कि हमारे मत के नहीं हैं। यानी ‘गांधी’ कुशल राजनीतिक है, लेकिन नैतिक दृष्टि से कोई महान व्यक्तित्व नहीं है।
तीसरी छवि उन लोगों द्वारा निर्मित है, जिन्होंने देश विभाजन के वक्त गांधी को अकेले पड़ते देखा। देश के विभाजन का प्रस्ताव स्वीकार हो गया और ‘अकेला’ होते हुए गांधी ने नोआखाली और बिहार में जो किया या कलकत्ते में जो कुछ कहा, इसे देखकर उन लोगों ने गांधी की महात्मा की ‘छवि’ बनायी कि वह राजनीतिक-कर्मी की दृष्टि से नहीं, एक नैतिक व्यक्ति के और उस क्षेत्र में नेतृत्व देनेवाले आदमी की दृष्टि से भी बहुत महान व्यक्ति था। (अज्ञेय)
आज सरकार एवं समाज व सार्वजनिक जीवन के नीति-नियम के साथ ‘नैतिकता’ पर छिड़ी बहस में उन सवालों की छाया देखी जा सकती है, जो ‘गांधी’ के जीवित रहते अनुत्तरित रहे। जैसे, क्या गांधी की उक्त छवियां बनाने वाले समर्थक या विरोधियों की ‘नैतिक होने’ के प्रति अपनी कोई स्पष्ट दृष्टि थी या है? क्या सार्वजनिक नैतिकता की कोई आवश्यकता क्रांति या बदलाव या नया समाज बनने के लिए है या होनी चाहिए, ऐसी कोई समझ उनमें थी या है? क्या उनकी ‘नैतिकता’ की कोई ऐसी परिभाषा थी या है, जो ‘साधन’, ‘साध्य’ या ‘संघर्ष’ के परिणाम के रूप में सामने आने की कल्पना या संकल्पना से जुड़ी हो?