आज हमारे देश में नक्सलबाड़ी का नाम लेकर विभिन्न नक्सलबादी ग्रुपों के मातहत कई किसान संगठन कार्यरत हैं। इनमें कुछ ने तो नक्सलबाड़ी की मूल अन्तर्वस्तु की तिलांजलि दे दी है और कुछ ‘वामपंथी’ दुस्साहसवाद, कठमुल्लावाद व दक्षिणपंथी अवसरवाद से ग्रसित हैं।

हमारा देश एक अर्द्ध-सामन्ती व अर्द्ध औपनिवेशिक देश है। यहां की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर आश्रित है। कृषि के क्षेत्र में सामन्ती या अर्द्ध-सामन्ती उत्पादन सम्बन्ध व साम्राज्यवादी लूट के चलते यहां के किसानों व खेत मजदूरों की हालत काफी दयनीय है। अपनी माली हालत में सुधार के लिए भारतीय समाज के उस बहुसंख्यक तबके ने कई बार विद्रोह की भीषण ज्वाला धधकाई है। ये विद्रोह चाहे विदेशी लूटेरों के खिलफ हुए हों या देशी शोषक-शासक वर्गों के खिलाफ, इसने हमेशा ही हिंसक रूप धारण किया है और राजसत्ता के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका है। 1763-80 का सन्यासी विद्रोह, 1853 का पवना आन्दोलन, 1831 का बहाबी विद्रोह, 1855-57 का संथाल विद्रोह, 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, 1946-51 का तेलंगाना किसान आन्दोलन और 1967 का नक्सलबाड़ी किसान आन्दोलन इसके स्पष्ट उदाहरण है।

क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन

जहां तक क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन का प्रश्न है हम वैसे ही किसान आन्दोलन की क्रान्तिकारी कहेंगे, जो एक क्रान्तिकारी नेतृत्व में संचालित हो और शोषक-शासक वर्ग व उसकी राजसत्ता जिसका लक्ष्य हो। इस परिप्रेक्ष्य में तेलंगाना व नक्सलबाड़ी किसान विद्रोहों का विशेष महत्व हो जाता है। तेलंगना किसान आन्दोलन का नेतृत्व अविभाजित सी.पी.आई. कर रही थी जो न केवल अवधि की दृष्टि से सबसे लम्बा था बल्कि सैन्य संगठन के मामले में भी काफी विकसित था। इस विद्रोह की शुरूआत मुख्यतः जबरन श्रम, गैर कानूनी बेदखली व सामन्ती जुल्म-अत्याचार के खिलाफ हुई थी, जो आगे चलकर निजाम के शासन को उखाड़ फेंकने में तब्दील हो गई। 1948 में जब हैदराबाद स्टेट को भारतीय संघ में मिला लिया गया और विद्रोह को कुचलने के लिए भारतीय सेना का तेलंगना में प्रवेश हुआ तो किसानों की गुरिल्ला वाहिनी ने उस पर अपना हथियार हमला जारी रखा। उस वक्त उस क्षेत्र में करीब 5,000 गुरिल्लावाहिनी व 10,000 ग्राम रक्षा दल के सदस्य सक्रिय थे और करीब 2,000 गुरिल्ला दस्ता नियमित रूप से कार्यरत थे। कुल 16,000 वर्गमील में फैले 2,000 गांवों को मुक्त कर वहां ‘‘ग्रामराज्य’’ की स्थापना कर दी गई थी। जमीन्दारों को गांव से खदेड़ दिया गया था, उनकी सारी जमीन जब्त कर ली गई थी और करीब 10 लाख एकड़ जमीन को किसानों के बीच वितरित कर दिया गया था। इन उपलब्धियों को प्राप्त करने में करीब 4,000 कम्युनिस्ट व किसान कार्यकर्ता शहीद हुए थे एवं 10000 से अधिक लोगों को जेलों में बंद कर दिया गया था। इस प्रकार पहली बार भारत की ठोस परिस्थिति में माओ विचारधारा को लागू करने (हालांकि अधकचड़े ढंग से) की एक कोशिश की गई। लेकिन संशोधनवादी सीपीआई के नेतृत्व ने इस आन्दोलन के साथ गद्दारी की एवं तेलंगाना के क्रान्तिकारी किसानों को नेहरू की फौज के समक्ष हथियार समेत आत्मसमर्पण करने हेतु बाध्य किया। उन्होंने तर्क दिया कि चूंकि तेलंगना की जनता भारतीय सेना का स्वागत कर रही है, किसानों की सैन्य ताकत अपेक्षाकृत काफी कमजोर है और इस विद्रोह को सर्वहारा व अन्य क्रान्तिकारी वर्गों का समर्थन प्राप्त नहीं है, इसलिए इसे जारी रखना उचित नहीं है। इसके बाद सीपीआई के नेतागण नेहरू सरकार के ‘‘प्रगतिशील’’ भूमि सुधार कानूनों के गुणगान करने लगे और अपने संसदवादी मनसूबों को पूरा करने के लिए किसान आन्दोलन को सुधारवादी मोड़ देने की साजिश में संलग्न हो गए। आगे चलकर 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी में टूट हो गई और सीपीआई व सीपीएम दोनों का पूरी तरह संसदवाद में पतन हो गया।

नक्सलबाड़ी आन्दोलन

लेकिन तेलंगाना की आग को बहुत दिनों तक दबाया नही जा सका और 1967 में नक्सलबाड़ी के किसानों ने विद्रोह का बिगुल फूंक कर पूरे देश की क्रान्तिकारी जनता के बीच एक नई चेतना पैदा की। इस विद्रोह ने पहली बार देश के क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों व संशोधनवादियों के बीच एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दी। सीपीआई व सीपीएम जैसे संशोधनवादियों ने न केवल इस किसान विद्रोह का राजनैतिक विरोध किया, बल्कि इसे कुचलने के लिए सैन्य व पुलिस बलों का क्रूरतम प्रयोग भी किया। जबकि दूसरी ओर देश भर के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ताकतांे ने नक्सलबाड़ी की चिंगारी को गांव-शहर में फैलाने का बीड़ा उठाया। नक्सलबाड़ी ने भारतीय क्रान्ति के कई महत्वपूर्ण सवालों को हल किया। सर्वप्रथम, अपने शांतिपूर्ण व संसदीय मार्ग का परित्याग कर बलपूर्वक हथियारबंद तरीके से राजसत्ता दखल के माक्र्सवादी सिद्धान्त को प्रतिष्ठित किया। दूसरे, इसने माओ विचारधारा का भारत की ठोस परिस्थिति में प्रयोग करते हुए यह स्थापित किया कि चीनी क्रान्ति की तरह भारतीय क्रान्ति भी दीर्घकालीन लोकयुद्ध के जरिये सफल होगी। तीसरे, इसने साबित कर दिया कि भारतीय क्रान्ति की मंजिल नव जनवादी होगी, जिसकी मुख्य अन्र्तवस्तु कृषि क्रान्ति होगी। इस क्रान्ति का नेतृत्व सर्वहारा करेगा और किसान उसकी मुख्य ताकत बनेंगे।

इस किसान विद्रोह के गर्भ से सर्वप्रथम, अखिल भारतीय स्तर पर कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की एक समन्वय समिति की पैदाईश हुई, जो 22 अप्रैल, 1969 को क्रान्तिकारी पार्टी सीपीआई (एमएल) के गठन का आधार बनी। इसी सीपीआई (एमएल) के बैनर तले ‘‘नक्सलबाड़ी-जिन्दाबाद’’ का नारा लगाते हुए हजारों कम्युनिस्ट व किसान कार्यकर्ता एवं समर्थक शहीद हुए। आज भी शहादत व कुर्बानी की यह परम्परा जारी है और नक्सलबाड़ी हमारे देश के क्रान्तिकारी किसान आंदोलन का प्रतीक बन गया है। आज पूरे देश के क्रान्तिकारी किसानों के लिए ‘‘नक्सलबाड़ी- एक ही रास्ता’’ मूल नारा बन गया है। क्रान्तिकारी किसान आंदोलन के इस प्रतीक व मूल नारे की अन्तर्वस्तु को समझने के लिए नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह की पृष्ठभूमि एवं इसके कार्यभार, उपलब्धियों व असफलता के कारणों का संक्षिप्त विश्लेषण आवश्यक है।

नक्सलबाड़ी की पृष्ठभूमि

नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह एक ऐसे अंतर्राष्ट्रीय परिवेश में हुआ, जब अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने पर दुनिया के माक्र्सवादी-लेनिनवादी का. माओ त्से तुंग के नेतृत्व में सोवियत संशोधनवादियों के खिलाफ वैचारिक संघर्ष चला रहे थे। अमेरिकी साम्राज्यवाद संकटग्रस्त था और वियतनाम में राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष विजय की ओर बढ़ रहा था। चीन में ‘‘पूंजीवादी पथ के राहियों’’ के खिलाफ महान् सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की शुरूआत हो चुकी थी। माओ त्से तुंग का यह नारा कि ‘हेड क्वार्टर को ध्वस्त करो’ एवं ‘प्रतिक्रिया के खिलाफ विद्रोह करो’ दुनिया के कम्युनिस्टों के पथ प्रदर्शक नारे बन गए थे।

देश के अन्दर क्रान्तिकारी परिस्थिति परिपक्व थी। शासक वर्ग पुराने तरीके से शासन चलाने में अक्षम साबित हो रहा था और जनता भी पुराने तरीके से शासित होने को तैयार नहीं थी। 1967 के आम चुनाव के बाद ग्यारह राज्यों में पहली बार कांग्रेस की केन्द्रीकृत शासन को चुनौती देते हुए संविद सरकारें बनी थीं। जनता के हर हिस्से अपनी बेहतरी के लिए आन्दोलनरत थे। देश का आर्थिक संकट भी चरम सीमा पार कर रहा था और केन्द्रीय सरकार को पंचर्वषीय योजना के बजाय एक साला योजना बनाने को बाध्य होना पड़ा था। फलतः राजनीतिक उथल-पुथल का होना स्वाभाविक था। खासकर, पश्चिम बंगाल की स्थिति बहुत ही गंभीर थी। लेकिन सीपीएम व सीपीआई के संशोधनवादी सत्ता में भागीदारी के सवाल को मुख्य सवाल बनाते हुए चुनाव प्रचार में संलग्न हो गये थे। चारू मजुमदार के नेतृत्व में कार्यरत क्रान्तिकारियों के एक समूह ने इस क्रान्तिकारी स्थिति का सदुपयोग करने का बीड़ा उठाया। चुनाव प्रचार के दरम्यान उन्होंने इस बात को काफी प्रचारित किया कि ‘‘राजसत्ता का उदय बंदूक की नाल से होता है’’ और ‘‘बगैर हथियारबंद क्रान्ति के बिना साम्राज्यवादियों और सामंती प्रभुओं के शोषण को समाप्त करना संभव नहीं है।’’ इसका नक्सलबाड़ी के किसानों पर सकारात्मक असर हुआ। उन्होंने जोतदारों को फसल का हिस्सा देना बंद कर दिया तथा उनकी जमीनों पर दखल-कब्जा शुरू किया। इसी बीच संयुक्त मोर्चे की सरकार सत्तासीन हो गयी, जिसमें सीपीआई एवं सीपीएम भी शामिल थी। इस सरकार ने भूमि के पूर्णवितरण का नारा दिया, जिसके प्रतिक्रियास्वरूप जोतदारों ने हजारों बटईदारों को बेदखल कर दिया और भूमि सुधार की बात करने वाली सरकार उस बेदखली का मौन समर्थन करती रही। खासकर, कोर्ट के अनुकूल फैसलों के बावजूद एक बटाईदार बिगुल किसान की जबरन बेदखली की घटना ने आग में घी का काम किया और उसके खिलाफ उठी विद्रोह की चिंगारी ने दावानल का आकार ग्रहण कर लिया।

आन्दोलन के कार्यभार

ऐसी संकटपूर्ण स्थिति में 18 मार्च, 1967 को सिलिगुड़ी अनुमंडल के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के नेतृत्व में एक किसान सम्मेलन बुलाया गया। इस सम्मेलन ने किसान आन्दोलन को एक नई दिशा प्रदान की तथा जमीन पर से जमींदारों के एकाधिकार को खत्म करने एवं किसान समितियों के माध्यम से जमीन का पुर्नवितरण करने, देहाती प्रतिक्रियावादियों के हमले का मुकाबला करने व दीर्घकालीन सशस्त्र संघर्ष चलाने हेतु किसानों को हथियारबंद करने एंव गांव में किसान समिति के प्राधिकार को स्थापित करने का कार्यभार तय किया। इन कार्यभारों को पूरा करने के लिए प्रत्येक गांवों में ग्राम समितियों का गठन किया गया तथा उन्हें परम्परागत हथियारों से लैश भी किया गया। ‘‘तराई रिपोर्ट‘‘ के मुताबिक करीब पन्द्रह हजार से बीस हजार किसानों ने पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में अपना नामांकन करवाया और मात्र दो महीने (मार्च-अप्रैल 1967) में किसान विद्रोह दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी, फासीदेवा व खैरीबाड़ी अंचलों के करीब तीन सौ वर्गमील क्षेत्र में फैल गया।

नक्सलबाड़ी की उपलब्धियां

किसानों ने अपनी असीम सृजनात्मक शक्ति का इस्तेमाल करते हुए कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल कीं। सर्वप्रथम, उन्होंने जमींदारों का राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक सत्ता पर एक करारा हमला किया। दूसरे, जमींदारों की जमीन के सारे कानूनी रेकाॅर्ड जला दिए गए और उनकी जमीनों को जब्त कर भूमिहीनों-गरीबों में बांट दिया गया। तीसरे, जोतदारों और महाजनों के सारे कर्ज रद्द घोषित कर दिए गए और इससे संबंधित सारे गैर बराबरी के समझौते तोड़ दिए गए। चैथे, जमाखोरी के अनाज तथा जमींदारों के जानवरों व कृषि उपकरणों को जब्त कर लिया गया और उन चीजों को किसानों में बांट दिया गया। पांचवंे, दमनाकरी जोतदारों, बुरे शरीफजादों व पुलिस के दलालों का जनता के बीच ‘‘ट्राइल’’ किया जाने लगा और उनमें से कुछ को मौत तक की सजा भी दी गयी। छठे, अपने को हथियार बंद करने के लिए किसानों ने जोतदारों की बंदूकें जब्त कर ली और उसको लेकर कई सशस्त्र रक्षा दल का गठन हुआ। सातवें, चोरी-डकैती पर अंकुश लगाई गयी और गांवों में पहरेदारी की समुचित व्यवस्था की गयी। आठवें, कई गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य व पेयजल जैसी समस्याओं को हल करने का भी प्रयास किया गया। नौंवें, प्रायः सभी इलाकों में क्रान्तिकारी किसान समितियों के प्राधिकार की स्थापना की कोशिश की गई। दसवें, बुर्जुआ कानून व कोर्टों को तिरस्कृत किया गया और क्रान्तिकारी समितियों के फैसले को सर्वोपरी घोषित किया गया। इस तरह नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह का लक्ष्य सिर्फ जमीन नहीं था, बल्कि शासक वर्गों की राजसत्ता भी थी।

संघर्षशील किसानों की उपरलिखित उपलब्धियों से न केवल पश्चिम बंगाल की संयुक्त मोर्चे की सरकार, बल्कि केन्द्र की कांग्रेस सरकार भी बौखला उठी और इस किसान विद्रोह को संगीन के बल पर कुचल डालने की साजिश रची गयी। एक दर्जन से अधिक लोगों को गोलियों से उड़ा दिया गया। सैंकड़ों नेताओं एवं कार्यकत्र्ताओं को जेलों में बंद कर दिया गया। अमानवीय यातनाओं का क्रूर दौर चलाया गया और जुलाई के अंत तक आन्दोलन को बेरहमी से कुचल दिया गया। हालांकि, नक्सलबाड़ी विद्रोह असफल रहा, फिर भी उसने भारतीय राजनीति को एक नया मोड़ प्रदान किया। चारू मजुमदार के शब्दों में ‘‘नक्सलबाड़ी मरा नहीं’’ बल्कि ‘‘उसने सैकड़ों किसान विद्रोह की आधारशिला खड़ी कर दी’’। नक्सलबाड़ी की चिंगारी कन्याकुमारी से कश्मीर तक फैल गयी। उसी विद्रोह के गर्भ से ए.आई.सी.सी.सी.आर. और आगे चलकर एक सही कम्युनिस्ट पार्टी सी.पी.आई. (एम.एल.) की स्थापना का मार्ग प्रस्तुत हुआ।

असफलता के कारण

आखिर नक्सलबाड़ी विद्रोह और उसकी रोशनी में फूटे हुए अन्य किसान विद्रोहों को हार का समाना क्यों करना पड़ा ? अगर हम इसके कारणों का सही-सही विश्लेषण नहीं करेंगे तो क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन की दिशा को निश्चित करना और किसान आन्दोलन को जीत को अन्तिम मंजिल तक पहुंचाना असंभव होगा। इस किसान विद्रोह की असफलता के कारणों का अधिकारिक विश्लेषण सर्वप्रथम नक्सलाबाड़ी के एक नेता कानू सन्याल ने अपने ‘तराई रिपोर्ट’ में किया। उनके अनुसार विद्रोह की असफलता के प्रमुख कारण इस प्रकार थे: 1) एक मजबूत पार्टी संगठन का अभाव, 2) समग्र तौर पर जनता पर भरोसा करने व एक शक्तिशाली जनाधार के निर्माण में कमी, 3) सैनिक मामलों की अनभिज्ञता, 4) पुरानी लाईन व संशोधनवादी व्यवहार का असर और 5) क्रान्तिकारी भूमि सुधार व राजनैतिक सत्ता की स्थापना के सम्बंध में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव। पहले कारण की व्यवस्था करते हुए उन्होंने कहा कि चूंकि पार्टी संगठन काफी कमजोर थी इसलिए आंदोलन पर स्वतःस्फूर्ततावाद हावी रहा। पुनः संगठन वैचारिक व राजनैतिक स्तर भी काफी नीचा था। इसलिए न तो माओ विचारधारा को अच्छी तरह आत्मसात किया जा सका और न ही उसे व्यवहार में क्रान्तिकारी तरीके से लागू किया जा सका। दूसरे कारण के बारे में यह कहा गया कि आन्दोलन का निम्न पूंजीवादी नेतृत्व जनता की पहलकदमी को समझने व उसे उन्मुक्त करने में विफल रहा। जनता के बीच न तो आन्दोलन की महत्वपूर्ण उपलब्धियों की और न ही कृषि क्रांति के मूल नारों का प्रचार किया जा सका। जमीन के वितरण में भी कई प्रकार की समस्यायें पैदा र्हुइं और कई गांवों में गरीब व मध्यम किसानों के बीच अंतर्विरोध उभर आये। जमीन कब्जा करने के बदले जमीन्दारों के घरों पर हमला करना मुख्य लक्ष्य बन गया। इससे जनाधार को व्यापक नहीं बनाया जा सका। सैन्य मामलों में तो काफी बचकानापन दिखा। शुरू में दुश्मन की ताकत को कम करके आंका गया और बाद में संयुक्त मोर्चा सरकार के सैनिक हमले के प्रति कोई स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं कायम किया जा सका। हथियारबंद जनता को हथियारबंद दस्ता या गुरिल्ला दस्ता मान लिया गया और जिन गांवों से जोतदार भाग गए, उन्हें आधार इलाका घोषित कर दिया गया। चैथे कारण की व्याख्या करते हुए यह कहा गया कि लम्बे अरसे तक संशोधनवादी पार्टी में काम करने के चलते कार्यकर्ताओं और कुछेक नेताओं पर संशोधनवादी विचारधारा व राजनीति हावी रही एवं व्यवहार में सुधारवाद व अर्थवाद का पलड़ा भारी रहा। अंतिम कारण की व्याख्या करते हुए यह कहा गया कि न तो क्रान्तिकारी किसान कमिटियों की समानान्तर सत्ता लाने और न ही गरीब किसानों के बीच सही तरीके से जमीन को वितरित करने की ठोस कार्यनीतियां तय की र्गइं। अगर इन दो महत्वपूर्ण कार्यभारों को पूरा किया जाता तो निश्चित ही किसानों की पहलकदमी उन्मुक्त होती और उनकी राजनैतिक चेतना का विकास होता।

हालांकि 1974 में जेल से लिखे गए ‘‘नक्सलबाड़ी के बारे में कुछ और बातें’’ शीर्षक लेख में कानू सन्याल ने अपनी कई प्रस्थापनाएं बदल डालीं और आन्दोलन की उपलब्धियों की रक्षा के लिए संयुक्त मोर्चा सरकार से समझौता नहीं करने की वामपंथी लाईन को आन्दोलन की एक प्रमुख कमी के बतौर चित्रित किया।

उपर्युक्त विश्लेषण से थोड़ा अलग हटकर चारू मजूमदार के कट्टर समर्थकों ने ‘‘नक्सलबाड़ी शिक्षा’’ नामक लेख में अपनी समीक्षा प्रस्तुत की। इसमें सैनिक कमजोरियों को अस्थाई हार का बुनियादी कारण नहीं माना गया। उनके शब्दों में ऐसा मानना ‘‘सैनिक सवालों को राजनीति के उपर रखना होगा’’। हालांकि, इस लेख में यह माना गया कि शुरू से ही एक बड़ी जन सेना के निर्माण की संशोधनवादी समझ हावी थी। इसके साथ-साथ आंदोलन निश्चित रूप से स्वतःस्फूर्तता का शिकार था और अधिकांश मामलों में मध्यम किसान के विचारों को प्राथमिकता दी गई थी।

उपरोक्त दोनों समीक्षाओं से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यद्यपि नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह क्रान्तिकारी किसान आंदोलन के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ, लेकिन कई प्रकार की वैचारिक, राजनैतिक व सांगठनिक कमजोरियों के चलते इसे जीत की मंजिल तक पहुंचाना असंभव था। कोई भी क्रान्तिकारी किसान आंदोलन तभी और केवल तभी उन्नत स्तर में जा सकता है व क्रान्तिकारी कहलाने का श्रेय प्राप्त कर सकता है, जब उसका नेतृत्व नक्सलबाड़ी की वैचारिक-राजनैतिक प्रस्थापनाओं व महत्वपूर्ण उपलब्धियों की रक्षा करने एवं इस आंदोलन की कमजोरियों को दूर कर किसान आन्दोलन को अग्रगति देने की क्षमता रखता हो।

नक्सलबाड़ी के आगे

1967 के बाद नक्सलबाड़ी की तर्ज पर श्रीकाकुलम, देवरा-गोलीबल्लमपुर, मुशहरी, लखीमपुर-खीरी आदि जगहों पर हुए किसान आन्दोलनों में प्रायः उन्हीं सारी गलतियों को दुहाराया गया, जो उपर वर्णित है। ए.आई.सी.सी.सी.आर. और सी.पी.आई. (एम.एल.) के गठन के बाद भी इन कमजोरियों को दूर करने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया। और जब 1970 में सीपीआई (एम.एल.) का प्रथम कांग्रेस सम्पन्न किया गया तो कई प्रकार के वैचारिक, राजनैतिक व कार्यनीतिक भटकाव सामने आये। हांलाकि, इस कांग्रेस ने पहली बार भारतीय समाज को अर्द्धसामंती व अर्द्ध औपनिवेशिक एवं बड़े पूंजीपति को दलाल के रूप में चित्रित तथा संसदीय रास्ते के खिलाफ दीर्घकालीन लोकयुद्ध के रास्ते की वकालत कर हमारे देश की ठोस परिस्थिति में माक्र्सवाद-लेनिनवाद-माओ विचारधारा को लागू करने का सचेत प्रयास किया। लेकिन इस कांग्रेस ने सैद्धान्तिक व राजनैतिक मामलों का जो गलत सूत्रीकरण किया, उससे क्रान्तिकारी आन्दोलन को काफी नुकसान हुआ। मसलन, इस कांग्रेस में लिन प्याओ की क्रान्ति विरोधी भूमिका की शिनाख्त नहीं की गई, जिससे हमारे देश में लिन समर्थकों की एक नई जमात लाने में मदद मिली। भारत को अमेरिका व सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद का नवउपनिवेशवाद और भारतीय शासक वर्गों को साम्राज्यवाद का मोहरा, पिछलग्गू व वफादार कठपुतली कहा गया। इससे क्रान्ति के दोस्त-दुश्मन की पहचान में कठिनाई हुई। वर्तमान युग को ‘माओ के युग’ की संज्ञा दी गई और भारतीय क्रान्ति को चीन की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का अंग माना गया। इससे आन्दोलन में वाम दुस्साहवाद की प्रवृत्तियां मजबूत हुईं। हमारे यहां हरित क्रान्ति के बाद कृषि क्षेत्र में कुछ तब्दिलियां हुई हैं और कुछ खास क्षेत्रों मे एक खास किस्म के विकृत पूंजीवाद का विकास हुआ है। इससे ग्रामीण इलाकों में कुछ नए वर्गों का जन्म हुआ है। इसी तरह दलाल नौकरशाह पूंजीपति हमारे देश का एक शासक वर्ग है, जिसे उखाड़ फेंकना हमारी क्रान्ति का एक कार्यभार है। लेकिन इस कांग्रेस ने इन वर्गों के अस्तित्व की पहचान नहीं की। इसमें जमीन्दार वर्ग व किसानों के बीच के अन्तर्विरोध को मुख्य अन्तर्विरोध के रूप में चित्रित किया गया, जिससे आन्दोलन में ‘वामपंथी’ भटकाव का होना स्वाभाविक था। इस कांग्रेस ने गुरिल्ला युद्ध की जनवादी क्रान्ति की पूरी अवधि के लिए संघर्ष के मुख्य रूप के बतौर पेश किया और उसे दुश्मन के विरूद्ध जनता की समूची श्ािक्त को गोलबंद करने व लगाने का एकमात्र तरीका अपनाया। इस तरह सैनिक लाईन को राजनैतिक लाइन को बराबरी में रख दिया गया और जन संगठन व जन आन्दोलन की तिलांजलि दे दी गई। फलस्वरूप, पार्टी का जनता से अलगाव हो गया। यह सूत्रीकरण किया गया कि लोक जनवादी मोर्चा सिर्फ तभी बनाया जा सकता है जब हथियारबंद संघर्ष के दौरान मजदूर-किसान एकता हासिल होती है और कम से कम देश के कुछ हिस्सों में लाल राजनैतिक सत्ता कायम हो जाती है। इससे मुख्य दुश्मनों के खिलाफ जनता की व्यापक गोलबन्दी नहीं की जा सकी। इस कांग्रेस ने आधार क्षेत्र की एक यांत्रिक व बचकानी समझ पेश की और ‘‘छोटे-छोटे हथियारबंद संघर्ष का आधार क्षेत्र’’ बनकार लोकयुद्ध चलाने की वकालत की गई। दीर्घकालीन लोकयुद्ध की एक सुस्पष्ट धारणा के अभाव में आन्दोलन में सैन्यवादी प्रवृृत्तियां दिखाई पड़ीं। कार्यनीतिक क्षेत्र में भी गम्भीर भटकाव देखे गए। जन आन्दोलन पर जोर देने के बावजूद पूरे आन्दोलन पर ‘‘वर्ग दुश्मन के व्यक्तिगत सफाये की लाईन’’ हावी रही। इस ‘‘वाम’’ दुःस्साहवादी लाईन ने सामंतों व बुरे शरीफजादों के बीच एक लाल आतंक तो अवश्य पैदा किया लेकिन इससे जन पहलकदमी को बरकरार रखना व उसे आगे बढ़ाना कठिन हो गया।

समग्रता में उपर्युक्त ‘‘वामपंथी’’ भटकावों के चलते क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन में कई प्रकार का विकृतियां पैदा हुईं और क्रान्तिकारी पांतों के अन्दर विभिन्न वैचारिक, राजनैतिक व कार्यनीतिक सवालों पर तीखी बहसें छिड़ र्गइं। पुनः सीपीआई (एम.एल.) का नेतृत्व इन बहसों को जनवादी तरीके से चलाने व पार्टी को एकताबद्ध रखने में विफल रहा और आपातकाल आते-आते पार्टी कई ग्रुपों में विभक्त हो गई। परिणामस्वरूप किसान आन्दोलन में भी बिखराव आये।

जन दिशा का समावेश

आपातकाल के बाद कई ग्रुपों की ओर से क्रान्तिकारी आन्दोलन को नये सिरे से एकताबद्ध करने का प्रयास किया गया और उसी क्रम में ‘सफाया’ व अन्य ‘‘वाम’’ दुस्साहवादी कार्यनीति को तिलांजलि दे दी गई और माओ की शिक्षा के अनुरूप ‘‘जनदिशा’’ की लाईन को अपनाने का सचेतन प्रयास शुरू हुआ। देश के विभिन्न भागों में कई खुले किसान संगठन बनाये गये और साम्राज्यवादी लूट व दलाल नौकरशाह पूंजीवादी शोषण के खिलाफ संघर्ष चलाने एवं किसान आन्दोलन को अन्य जनवादी आन्दोलनों से जोड़ने के कार्यभार को भी पूरा करने का दायित्व लिया गया। साथ ही साथ, कानूनी-गैर कानूनी एवं खुला-गुप्त संघर्ष और जन आन्दोलन व हथियारबन्द संघर्ष के बीच उचित तालमेल बिठाकर किसान आन्दोलन को आगे बढ़ाने का प्रयास किया गया। खासकर आंध्र प्रदेश, दण्डकारण्य व बिहार में जनदिशा की इस नई सोंच व व्यवहार का काफी सकारात्मक असर पड़ा एवं वहां के किसानों ने प्रतिरोध संघर्ष की कई गौरवशाली मिसालंे पेश कीं। इस संदर्भ में आंध्र प्रदेश में रैयतू कुली संघम और बिहार में बिहार किसान समिति, मजदूर किसान संग्राम समिति एवं क्रान्तिकारी किसान कमिटी की उपलब्धियां उल्लेखनीय हंै।

यह सच है कि आंध्र, दण्डाकरण्य व बिहार के किसानों व आदिवासियों ने नक्सलबाड़ी की तर्ज पर जमीन्दारों के प्रभुत्व को चुनौती दी हंै और कुछ इलाकों में एक हद तक उसे चकनाचूर भी किया। कुछ जिलों में मिहनतकशों की राजनैतिक व सामाजिक प्रतिष्ठा काफी बढ़ी और सामन्ती तत्वों व बुरे शरीफजादों को जन अदालतों में हाजिर होना पड़ा। साथ ही साथ, किसानों को बड़े पैमाने पर हथियारबंद किया गया और लाखों एकड़ जमीन पर भूमिहीनों-गरीब किसानों का कब्जा दिलाया गया। खेत मजदूरों एवं बीड़ी पत्ता चुनने वालों की मजदूरी में भी काफी बढ़ोत्तरी हुई है और चोरी-डकैती व बलात्कार आदि पर काफी अंकुश लगाया जा सका। इसी प्रकार जनता के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई आदि की व्यवस्था हेतु भी कई प्रकार के रचनात्मक प्रयोग किए गए। लेकिन इसके बावजूद किसान आन्दोलन अभी भी आंशिक संघर्ष के दौर में है। आज भी क्रान्तिकारी आन्दोलनों को एकताबद्ध व एक मजबूत क्रान्तिकारी पार्टी का निर्माण करने तथा जन दिशा की लाईन का भारत की ठोस परिस्थिति में प्रयोग करते हुए व्यापक व शक्तिशाली जनाधार की स्थापना करने का कार्यभार ज्यों का त्यों पड़ा है। इस दौरान किसान आन्दोलन में गतिरूद्धता भी आई है। चूंकि गतिरूद्धता के दौर में आन्दोलन का अर्थवाद में पतन की प्रकृति होती है, इसलिए आंदोलन की क्रान्तिकारी दिशा को बरकरार रखना और आवश्यक होता है। इसके लिए सर्वप्रथम राजनैतिक परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट करना निहायत जरूरी है। किसान आन्दोलन में लगे हुए तमाम कामरेडों को यह एहसास कराना होगा कि किसान प्रतिरोध संघर्ष के क्षेत्र को सुदृढ़ करना है। यह एहसास हम तभी करा पाएंगे जब किसानों के राजनीतिकरण पर जोर देंगे। किसान आंदोलन के सुदृढ़ीकरण का मतलब है- संघर्ष की उपलब्धियों की रक्षा करना, आन्दोलन में विविधता लाना, मध्य किसानों को गोलबंद करना, जन अदालतों व अन्य तरीकों से गांव कमिटियों के प्रभुत्व को स्थापित करना एवं सामंती व राजसत्ता की ताकत को चकनाचूर करना। इस महत्वपूर्ण कार्यभार को पूरा करने के लिए एक ओर किसान प्रतिरोध संघर्ष में इलाकों का विस्तार एवं दूसरी ओर किसान आन्दोलन में छाई हुई कठमुल्लावादी व कानूनवादी प्रवृति का खात्मा आवश्यक है। किसान आन्दोलन के नये दौर में आज दक्षिणपंथी भटकाव मुख्य खतरा बन गया है। इस खतरे से निबटने के लिए संघर्ष के मुख्य पहलू व दिशा को गैर संसदीय बनाये रखना जरूरी है। इसका मतलब यह नहीं कि हमें अभी से ही खुले व कानूनी किसान संघर्षों को छोड़ देना चाहिए। इस प्रकार के आन्दोलन निश्चित रूप से जनता के पिछड़े हिस्सों को गोलबंद व उनका राजनीतिकरण करने में सहायक होते हैं, लेकिन हमें ‘भारतीय लोकतंत्र’ में इसकी सीमाओं को भी समझ लेना चाहिए। हमें यह अच्छी तरह आत्मसात् कर लेना चाहिए कि कानूनी घेरे के आन्दोलन किसानों व जनता के अन्य तबकों के जनवादी अधिकारों को सुरिक्षत नहीं कर सकते। इसलिए अगर हमें क्रान्तिकारी आन्दोलन की दिशा को दुरस्त रखना है, तो जरूरत के अनुसार किसान संगठन के ढांचे को गुप्त करने एवं गोपनीय तरीके से किसानों को जनान्दोलनों में खींच लाने की कला में महारथ हासिल करना होगा।

नक्सलबाड़ी के नाम पर

आज हमारे देश में नक्सलबाड़ी का नाम लेकर विभिन्न नक्सलबादी ग्रुपों के मातहत कई किसान संगठन कार्यरत हैं। इनमें कुछ ने तो नक्सलबाड़ी की मूल अन्तर्वस्तु की तिलांजलि दे दी है और कुछ ‘वामपंथी’ दुस्साहसवाद, कठमुल्लावाद व दक्षिणपंथी अवसरवाद से ग्रसित हैं। नक्सलवाद की मुख्यधारा होने का दावा करने वाला सीपीआई (एम.एल.) लिबरेशन आज संसदवाद के दलदल में बुरी तरह फंस गया है और सत्ता की भागीदारी के लिए सीपीआई व सीपीएम जैसे संशोधनवादी दलों (जिनके हाथ नक्सलबाड़ी के किसानों के खून से रंगे हुए हैं) को लेकर ‘वाम महासंघ’ बना कर खुश है। वर्ग संघर्ष के बजाय वर्ग सहयोग आज इस संगठन की मूलनीति हो गई है और वर्ग दुश्मनों के बजाय क्रान्तिकारी की हत्यायें करना इनके हथियारबंद गिरोह का एक प्रमुख कार्यभार हो गया है। कुछ संगठनों ने भारत को एक पूंजीवादी देश मानकर नक्सलबाड़ी की रणनीति व कार्यनीति की तिलांजली दे दी है और समाजवादी क्रान्ति को अपना लक्ष्य बना लिया है। उनमें से कुछ ने तो भारतीय क्रान्ति को सफल बनाने हेतु किसानों को मुख्य ताकत के बतौर गोलबंद करने का कार्यनीति पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। कुछ दूसरे वैसे संगठन भी कार्यरत हैं जो अभी भी किसानों को राजसत्ता दखल के लिये तैयार करने के नाम पर किसानों को आंशिक संघर्षों में उतारने के काम को महत्व नहीं देते हैं। इसके अलावा कुछ कठमुल्लावादी संगठन भी हैं जो चीनी क्रान्ति के रास्ते जो यान्त्रिक रूप से लागू करने की वकालत करते हैं एंव व्यापक पैमाने पर किसानों की पहलकदमी को उन्मुक्त करने हेतु जन दिशा की लाईन को देश की ठोस परिस्थिति में लागू करने से परहेज करते हैं। इसी तरह कई वैसे संगठन भी अपने को नक्सलवादी कहते हैं, जो जन संघर्ष व हथियारबंद संघर्ष में उचित तालमेल नहीं बिठाते और पूरे आन्दोलन को अर्थवाद व कानूनवाद के दलदल में फंसाकर व्यापक जन समुदाय को दिगभ्रमित करते हैं। कुछ संगठन जाति, धर्म व राष्ट्रीयता के सवाल पर काफी जोर देते हैं और किसानों-मजदूरों के बुनियादी सवालों पर वर्ग संघर्ष तेज करना उनका प्राथमिक कार्यभार नहीं होता है।

क्रान्तिकारी किसान आंदोलन में आई गतिरूद्धता व बिखराव के दौर में उपर्युक्त गलत रूझानों को परास्त करना किसी भी क्रान्तिकारी समूह का प्राथमिक दायित्व बनता है। लेकिन इस काम में तब तक सफलता हासिल नहीं की जा सकती, जब तक तेलंगाना व नक्सलबाड़ी की रोशनी में देश के स्तर पर किसान आन्दोलन को अग्रगति नहीं दी जाती और इस आन्दोलन को एकताबद्ध नहीं किया जाता।