झारखंड में आदिवासी लेखकों की एक नई पौध आई है. बहुत दिनों तक यह कश्मकश रही कि आदिवासी लेखक अपने लेखन में किस भाषा का प्रयोग करें. वे अपनी भाषा में तो लिखते ही हैं, लेकिन धीरे—धीरे उन्होंने हिंदी को भी अंगीकार किया. इससे एक ठहराव की स्थिति में पहुंच गये हिंदी साहित्य को नया भावबोध, नये किस्म की भाषा, नया शिल्प विन्यास,बिंब आदि मिले हैं. दिक्कत यही है कि मठाधीशों के कब्जे में फंसा हिंदी जगत इसे खुले मन से आज भी स्वीकार नहीं कर पा रहा है. दूसरी तरफ आदिवासी लेखक भी कभी कभी घाघ हिंदी साहित्य के मठाधीशों के मुखापेक्षी दिखाई देते हैं, क्योंकि अकादमियों में, शिक्षण व शोध संस्थानों आदि में वे थोड़ी सी जगह उनकी ही मदद से प्राप्त कर सकते हैं. खैर, यह एक अलग विषय है. अभी तो चर्चा इस बात की हो रही है कि आदिवासी साहित्य की वजह से हिंदी साहित्य को भी नया प्राण मिल रहा है.
आदिवासी साहित्य और साहित्यकारों की खूबी यह है कि वे सिर्फ निरे साहित्यकार नहीं, यानी ‘कला के लिए कला’ के पुरोधा नहीं, अपने सुख के लिए ही नहीं लिखते, वे अपनी जमीन से गहरे जुड़े हैं और उनमें बदलाव की एक गहरी तड़प है. वे आंदोलनकारी है, समाजकर्मी है, एनजीओ के दायरे में भी काम कर रहे हैं तो उनका अपने समाज से एक रिश्ता है. और अपने जड़ों से जुड़े रहने की यह खासियत उन्हें एक नया क्षितिज और नया विस्तार देता है जिसे आप महादेव टोप्पो, निर्मला पुतुल, वंदना टेटे, अनुज लुगून, जसिंता केरकेट्टा, ज्योति लकड़ा की कविताओं में, वाल्टर भेंगरा सहित कई गद्य लेखकों की कहानियों व छिटपुट लिखे गये उपन्यासों में, महादेव टोप्पो, ग्लैडसन डुंगडुंग, सुनील मिंज, जेवियर कुजूर, के तेज धार वाले आलेखों में देख सकते हैं. ये तो चंद नाम हैं जो इस वक्त मेरे जेहन में आये. लेकिन झारखंड में आदिवासी लेखकों की एक लंबी फेहरिस्त है जिनके लेखन में औपनिवेशिक शोषण से मुक्ति का एक आह्वान और आदिवासी साहित्य का अपना सौदर्यंबोध है. और झारखंड के बाहर के लेखकों को जोड़ लिया जाय तो यह सूचि और लंबी हो जायेगी. मसलन दिल्ली में गंगा सहाय मीणा हैं, केदार प्रसाद मीणा है,शृष्टि किंडों हैं,बन्नाराम माणतवाल हैं, राजकुमार हैं..
विडंबना यह है कि इसमें गैर आदिवासी समाज, गैर आदिवासी पात्र हमेशा उत्पीड़क के रूप में ही आता है. यह एक भयानक त्रासदी है. इससे बचना मुश्किल है, क्योंकि यह एक कड़वा यथार्थ है कि आदिवासी इलाकों में सदियों से गैर आदिवासी उत्पीड़क — जमींदार, ठेकेदार, बर्बर पुलिस—अधिकारी आदि — के रूप में ही आता रहा है. गैर आदिवासी समाज का उत्पीड़ित तबका भी आदिवासी समाज में प्रवेश करता है तो वह उत्पीड़क बन जाता है. लेकिन धीरे—धीरे वैसे गैर आदिवासी भी आदिवासी इलाकों में प्रवेश कर रहे हैं जो उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर शोषण विमुक्त समाज बनाने की दिशा में सक्रिय है.
साहित्य के क्षेत्र में भी आदिवासी समाज पहले सिफ जुजुप्सा का विषय था. लेकिन धीरे धीरे वैसे गैर आदिवासी साहित्यकारों— लेखकों की भी जमात आ रही है जो आदिवासी समाज के जीवन मूल्यों को, उनके जीवन दर्शन को न सिर्फ आत्मसात कर रहे हैं, बल्कि उन्हें शक्तिशाली ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं. मनमोहन पाठक, संजीव, अपने अंतरविरोधों के साथ रणेंद्र, ख्यातिनाम महुआ मांजी. अश्विनी पंकज की कहानियों व उपन्यास का स्वाद आप चख चुके हैं. आदिवासी साहित्य के मर्मज्ञों में वीवी केशरी—जो अब हमारे बीच नहीं रहे—, विद्याभूणन. संजय कृष्ण भी आदिवासी समाज और संस्कृति पर लिख रहे हैं. और लेखकों की इस फेरहिस्त में आप इस नाचीज का नाम भी जोड़ सकते हैं. एक अलग धरातल पर फादर एलेक्स एक्का, संजय बसु मल्लिक, जेवियर डायस, सुरेंद्र पाल, घनश्याम, शेखर सभी आदिवासी समाज व संस्कृति को एक आयाम देने की दिशा में सक्रिय हैं. मेघनाथ का माध्यम कुछ और लेकिन काम वही.
हिंदी और आदिवासी साहित्य के बीच की दूरी को पाटने वाला एक नाम तो मैं भूल ही गया. हां, रोज केरकेट्टा जिन्होंने प्रेमचंद की कहानियों का आदिवासी भाषा में अनुवाद किया.
तो, यह दूरी पटेगी और अंतरद्वंद्व कहां नहीं रहता.