प्रकृति का सबसे खूबसूरत नजारा झारखंड की जल, जंगल, जमीन में समाहित है, साथ ही झारखंड का सामाजिक ढांचा भी प्रकृति के अनूकूल ही है. झारखंडी मुख्यत: प्रकृति पूजक होते हैं. उनकी की मूल पहचान ही प्रकृति से लगाव है.

प्रकृति प्रेमी गुणों तथा व्यवहारों के कारण ही झारखंड आज तक गंभीर बीमारियों के चपेट से सुरक्षित रहा है. अन्य राज्यों की तुलना में झारखंड में डेंगू, चिकनगुनिया,कालाज्वर, जापानी बुखार आदि जानलेवा बीमारियों की चपेट से बचा हुआ है.

झारखंडी अपनी सभ्यता और संस्कृति की बदौलत ही शारिरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होते हैं.प्रकृति से प्रगाढ़ प्रेम की बजह से ही झारखंडी अमन पसंद तथा गंभीर स्वभाव के होते हैं. जिस तरह प्रकृति अपने ऊपर आने वाली बड़ी से बड़ी विपत्ति का सामना स्वयं चुपचाप कर लेती है,उसी प्रकार झारखंडी भी अपने ऊपर आने वाली विपत्ति का सामना चुपचाप कर लेता है. आदिकाल से अब-तक विभिन्न प्रकार के अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करते हुए भी झारखंडी झारखंड क्षेत्र में अपनी पहचान, सभ्यता संस्कृति को बचाये रखा है. यह वास्तव में एक बहूत बड़ी उपलब्धि है.

इसके बावजूद भी हम झारखंडी कहीं न कहीं चूक कर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप आये दिन बाहरी शक्तियों के द्वारा बार बार हमारी पंरपरा, सभ्यता, संस्कृति पर आघात पहुंचाने का प्रयास किया जाता है. झारखंडियों को विकास के नाम पर मूंगेरीलाल का सपना दिखाकर अपनी सभ्यता— संस्कृति के साथ साथ जल,जंगल, जमीन के साथ भी सौदा करने के लिए मजबूर किया जाता है. साथ ही हम झारखंडी उन भौतिकतावादी विचारों से इतना अभिभूत हो जाते हैं कि आदिकाल के अपनी प्रकृति प्रेमी सभ्यता, संस्कृति ,जल, जंगल, जमीन को छोड़कर भौतिकतावादी दुनिया में कदम रखने के लिए तैयार हो बैठते हैं. इसका खामियाजा हमारे साथ साथ हमारे आने वाली पीढ़ियों को भी भुगतना पड़ता है.

जिसका जीता जागता उदाहरण हमारे झारखंड के तमाम शहरी तथा औद्योगिक क्षेत्र हैं. झारखंड के सभी तथाकथित शहरी तथा औद्योगिक क्षेत्र का लगभग एक समान ही परिस्थिति है.

झारखंड के सबसे बड़े शहरी तथा औद्योगिक क्षेत्र में से एक जमशेदपुर, जिसे शायद झारखंड की औद्योगिक राजधानी का भी दर्जा प्राप्त है. उसके विस्तार क्षेत्रों की ही अगर चर्चा की जाय तो वर्तमान परिपेक्ष्य में वहां की स्थिति क्या है? उस क्षेत्र में झारखंडी सभ्यता संस्कृति तथा जल, जंगल, जमीन का क्या स्थिति है ?

क्या तथाकथित विकास और औद्योगिकरण का वास्तव में झारखंडीयों को लाभ हुआ?

और अगर हुआ तो कितने परिमाण में?

या भविष्य में लाभ होने की क्या संभावनाएं हैं?

उपरोक्त प्रश्नों पर विचार करने पर हम ये पायेंगे कि वास्तव में झारखंडियों को तथाकथित शहरीकरण और औद्योगिकीकरण से कोई विशेष लाभ नहीं हुआ.

औद्योगीकरण तथा शहरीकरण का एक पहलू रोजगार की ओर अगर हम दृष्टि डालें तो हमें यही दृश्य नजर आते हैं कि औद्योगिकरण के फलस्वरूप लगे कल कारखानों, जिसमें मुख्यत: टाटा स्टील,टाटा मोटर्स सहित बहुत सी टाटा की अनुषंगी ईकाईयों के साथ साथ सभी औद्योगिक संस्थानों में वर्तमान परिपेक्ष्य में स्थायी रोजगार प्राप्त झारखंडीयों का प्रतिशत 5 फीसदी से भी कम है. जबकि उपरोक्त सभी कंपनियां देश की अर्थव्यवस्था में अपना विशेष महत्व रखती हैं. तो अगर इतनी बड़ी कंपनियों तथा इतना बड़ा औद्योगिक क्षेत्र के विस्तार के बाबजूद भी अगर 5 प्रतिशत झारखंडियों को भी स्थायी रोजगार प्राप्त नहीं होता है, तो उस हिसाब से आज औद्योगिक क्षेत्रों में झारखंडियों का रोजगार में हिस्सेदारी नगन्य ही मानी जा सकती है. साथ ही अस्थायी रोजगार के क्षेत्र में भी झारखंडियों का भागीदारी बहुत ही कम देखने को मिलती है. औद्योगिक क्षेत्रों के कंपनियों और छोटे— छोटे कारखानों आदि में भी आपको आसानी से झारखंडी मजदूरों की पहचान हो जाएगी. कम मजदूरी और कठिन श्रम वाले कामों में ही झारखंडियों को कार्यरत पायेंगे.

औद्योगीकरण और शहरीकरण का दूसरा पहलू सामाजिक तथा भौगोलिक परिवर्तन है. जब झारखंड क्षेत्र में उद्योगों की स्थापना हुई तथा उन उद्योगों में विभिन्न प्रकार के उत्पादन शुरू हुए तो बाहरी लोगों को झारखंड क्षेत्र में आने का न्यौता दिया गया और देखते देखते इन सभी उद्योगों में ऊपर से नीचे तक बाहरियों का ही बर्चस्व बनता गया, जो आज तक कायम है. देखते देखते टाटा कंपनी को आवंटित जमीन का एक बड़ा हिस्सा इन घुसपैठियों के द्वारा कब्जा कर लिया गया,जिसका परिणाम जमशेदपुर के अवैध 86 या 124 के रूप में सामने है.

सवाल यह उठता है कि जब टाटा जैसी कंपनी को अपने कारखाने,अस्पताल, क्वार्टर आदि के निर्माण हेतु हजारों एकड़ जमीन लीज पर पहले ही दे दी गई थी, तो फिर सरकार को अपने स्तर पर आवासीय कॉलोनियों का निर्माण कराने की क्यों आवश्यकता पड़ी ?

इसका जवाब सिर्फ यह है, कंपनी द्वारा बनाए तथा आंवटित किए गए क्वार्टर सिर्फ और सिर्फ कंपनी में सेवाकाल तक ही उपयोग किए जा सकते हैं, जबकि सरकारी आवासीय कॉलोनियों को वैध- अवैध किसी भी रूप में सदा के लिए उपयोग में लाया जा सकता है. झारखंड क्षेत्र के किसी भी आवासीय कॉलोनी का मुआयना कर आप सरलता से यह देख सकते हैं कि उनमें किन्हें बसाया गया है.

जब झारखंड आंदोलन तेज होने लगा और उन्हें लगने लगा कि अब झारखंडी किसी भी हाल में अपना राज्य लेकर ही रहेंगे, जिसके पश्चात उनका राजनीतिक तथा आर्थिक भविष्य खतरे में पड़ जाएगा, इस खतरे से बचने के लिए वे पहले से ही अपने लोगों को झारखंड क्षेत्र में बसाना शुरू कर दिया, ताकि झारखंड प्रदेश के अलग होने के बाद भी उनका राजनीतिक तथा आर्थिक प्रभाव झारखंड क्षेत्र में बना रहे.

जिसका जीता जागता उदाहरण आज हमारे सामने हैं.अगर आप इन अवैध बस्तियों तथा आवासीय कॉलोनियों को देखेंगे, तो इसमें 99 प्रतिशत बाहरी ही बसे मिलेगें और वर्तमान परिपेक्ष्य में झारखंड की राजनीति में इनका यह ताकत है कि लगभग 10 से ज्यादा विधानसभा तथा लोकसभा सीटों का परिणाम उनके मतदान पर पूर्णत: निर्भर करता है. उदाहरणस्वरुप जमशेदपुर पूर्वी पश्चिमी, रांची, बोकारो, गिरीडीह, गोड्डा, गढ़वा, कोडरमा, धनबाद आदि लगभग सभी शहरी क्षेत्रों वाली सीटों पर उनके मतदान का विषेश महत्व होता है.

बाहरी आबादी के घुसपैठ के कारण ही झारखंड गठन के 17 वर्षों के बाद भी झारखंडीयों के हित तथा झारखंड क्षेत्र के जल,जंगल जमीन की रक्षा के लिए एक भी नीति नहीं बन पायी है.