अब जीएसटी से मुकरना सम्भव नहीं है. इसके व्यापक प्रभाव को बाजार में अलग अलग ट्रेड और अलग—अलग वस्तुओं पर देखना और उसके अनुसार व्यापार की स्ट्रैटजी तय करने के अलावा और कोई रास्ता नहीँ है..चूंकि अपने देश की अर्थव्यवस्था बहुत ऊबड़ खाबड़ है, माँग और पूर्ति के श्रोतों में आंचलिकता है, इसलिये जीएसटी के ग्लोबल और राष्ट्रीय होने के बावजूद इसके प्रभाव वस्तुओं और स्थानों पर अलग अलग है जिसके परिणाम स्वरूप जीएसटी पर अच्छा या बुरा की आम धारणा कतई नहीं बनाई जा सकती है. और तब ज़रूरी है कि इस जीएसटी को वस्तु, ट्रेड के चलन और स्थानीयता के परिपेक्ष में ही देखें,समझें और व्यापार की स्ट्रैटजी पर अमल करें.
तो,आइये पहले आम सरोकार की सबसे बड़ी चीज़ दाल भात तरकारी और दाल रोटी जैसे मूल भूत चीजो पर इसके प्रभाव का अध्ययन करते है.
चावल से शुरू करते हैं.
अपने देश में करीब 12 करोड़ मैट्रिक टन चावल की सालाना खपत है. प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 72-75 किलो के आधार पर 125 करोड़ जनसंख्या के लिये. इसमें कोई गणितीय बाजीगरी नहीं है और न हीं कोई दावा.
चूंकि अपने देश में अब खलिहान नहीं है, घरेलू ढेंकी,ओखल मूसल और गाँव की कू-कू करती हालर वाली मिल भी नहीं है, तो खेत का धान सीधे राइस मिल में जाने को अभिशप्त है, जहाँ से धान की फसल बाजार की गोद में आ जाती है और बाजार इसका वैल्यू एडिसन करके 5,10,25 किलो के पैक बोरे में बाजार को पूर्ति करता है. मतलब, कि चावल जो एक कोम्मोडिटी थी, जीन्स थी, वो अब एक उत्पाद, प्रॉडक्ट है, एक ब्रांड है. यही कारण है की अब चावल परिमल, सोनाचूर, मंसूरी न हो कर दावत, राजधानी और रैडियंट नाम के ब्रांड हो गये हैं. मेरा अनुमान है की बाजार में 70% चावल इसी ब्रांड की शक्ल में उपलब्ध है.
कटरा जैसे खुले और खुदरा चावल/अन्न की मंडी अब सिमट कर न के बराबर रह गई है. गाँव के चावल की जो हौव्करी-पहुँच शहर के उपभोक्ता तक थी, वो नहीं के बराबर या कुछ छोटे शहरों में साईकल पर बोरा दो बोरा चावल बेचते हौव्कर मिल जाये तो आश्चर्य भी नहीं. एक हिसाब से सरकार द्वारा खाद्य सुरक्षा के निमित्त वितरित चावल के वॉल्यूम और वो गृहस्थ जो अपने खाने का चावल खुद उपजा लेते हैं, बाजार के इस दो लेयर को छोड़ कर शेष जो भी वॉल्यूम है वो करीब 4-5 करोड़ मैट्रिक टन का सालाना वॉल्यूम है जो इसी 5, 10, 25 किलो के पैक और एक ब्रांड के रुप में उपलब्ध है और इसपर 5% जीएसटी है.
कूछ राज्यों में entry tax और बाजार समिति जैसे tax भी हैं जिसे सरकार tax मानने से हीं इनकार करती है, लेकिन खर्चे तो हैं, ये लागत है.
तो करीब 4 से 5 करोड़ मैट्रिक टन चावल अब जीएसटी की जकड़ में है और सरकार कहती है की चावल,आटा दाल जीएसटी से मुक्त है.
सरकार ठीक कहती है - कैसे ?
सरकार गलत कहती है कैसे ?
इसको समझना एकदम ज़रूरी है.
5, 10 और 25 किलो का वो पैक जो रजिस्टर्ड ट्रेड मार्क है, जिसपर. TM और ट्रेड मार्क के सर्टिफिकेशन का नम्बर है, सिर्फ और सिर्फ यही प्रॉविज़न जीएसटी के दायरे में है. बाकी तमाम पैक चावल जो दिखते तो ब्रांड की तरह हैं, लेकिन ट्रेड मार्क के साथ रजिस्टर्ड नहीं हैं, वो जीएसटी के दायरे में नही हैं. इसी तरह तमाम पैक आटा और दाल जो ब्रांड की तरह दिखते हैं पर ब्रांड हैं नहीं, वो भी जीएसटी के दायरे में नहीं हैं.
अब चुकी बाजार में ब्रांड जैसे दिखने वाले माल भरे पड़े हैं, जो दिखते तो ब्रांड हैं पर रजिस्टर्ड ब्रांड हैं नहीं,तो जीएसटी से बाहर हैं. इसी झांसे वाले ब्रांड की तरह दिखने वाले माल को दुकानदार जीएसटी की आड़ में यह कह कर बेचते हुए सुने जा रहा हैं कि तमाम पैक चावल आटा दाल पर जीएसटी लग गया और ये 5% महँगा हो गया. और यही है मंहगाई बढ़ने का आर्टीफिशल कारण.
तो ये समस्या जीएसटी को लागू करने का है, बाजार में अनुशासनात्मकता की अनदेखी का है और खतरा बस इसी का है मंहगाई को लेकर.
ये मामला चावल दाल और आटा के साथ अभी स्पष्ट रुप से दिख रहा है.
बाजार में सारा कूछ पैक रुप में है लेकिन सब पैक रजिस्टर्ड
ट्रेड मार्क उत्पाद नहीं है. तो, इस तरह के तमाम पैक चावल दाल और आटा जीएसटी के दायरे से बाहर होकर भी इस अफवाह के दायरे में हैं कि तमाम पैक चावल दाल और आटा जीएसटी के कारण 5% महँगे हुए. जीएसटी की आलोचना करने वाला मुनाफाखोर बाजार ये समझने को तैयार नहीं है की ऐसे अनरजिस्टर्ड पैक को जीएसटी से बाहर रख कर सरकार ने स्थानीयता को स्थानीय उद्यमिता को, किसानों की सीधे बाजार में उतरने को कितना प्रोत्साहित किया है?
सरकार की इस समझ को पॉलिटिकल एकोनोमीक्स
की समझ में यकीन करने वालों को मुनासिब उत्तर की तरह लीजिये और अबतक जो लोग व्यापारी द्वारा टैक्स की चोरी पर खुले मुंह भला बुरा कहते थे, वो तो कहेगें ही कि
चोरहिं चाँदनी रात न भावा…
अभी कल तक असंगठित क्षेत्र और इंफार्मल एकॉनमी का गला घोंटा जा रहा था, ये कह कह कर.आज वही रोता बिलखता बाजार मुनाफाखोर साबित हो रहा है. यही विडम्बना है. यही बाजार का छिनालपन है.
सेल्स टैक्स और वैट की तरह अगर जीएसटी को लेकर बाजार और ब्यूरोक्रेट के बीच सांठगांठ की खिचडी पक गई, तो सरकार को भी टैक्स का विस्तृत पिच मिलने से रहा…
और हाँ, लगता है की सांठगांठ की इस खिचड़ी का अदहन खौल रहा है और इसका अंतिम परिणाम मंहगाई ही है जो जनता के सर आने वाली है.
मै ये नहीँ कहता की जीएसटी में लैकूना नहीं है, लैकूना है.
उदाहरण लीजिये.
25 किलो की बोरी चावल, 40 किलो का आटा और 40 किलो का पैक दाल , जब हम अपने घर के लिय ले आते हैं तो हम एक उपभोक्ता के नाते एक रजिस्टर्ड ब्रांड पर 5% जीएसटी के देनदार हैं, क्योंकि हमने चावल आटा दाल से पहले एक ब्रांड खरीदा, और ये हमने एक बनिया या मॉल के रास्ते कम्पनी से खरीदा, तो जीएसटी तो बनता है, अब यही चावल,आटा, दाल अगर बनिया द्वारा या मॉल में खुदरा 2,4,5 किलो बिकता है तो चावल ब्रांड होन से जीएसटी तो लग ही गया और उपभोक्ता पर 5% जीएसटी का भार भी पड़ा, जबकि उपभोक्ता ने ब्रांड नहीं खरीदा है. क्योंकि खुला माल खुदरा खरीद में ब्रांड नहीं होता. बनिया द्वारा खुदरा चावल बेचने के लिये ब्राण्डेड चावल पर जीएसटी की छूट का कोई विकल्प भी नहीं है.
यही हाल आटा और सबसे कारगर ढंग से दाल पर लागू होता है. अगर ईमानदारी से यह ब्रांड है तो यह तर्कपूर्ण नहीं है कि यह खुला में खुदरे तौर पर बिके,और अगर यह ब्रांड नहीं है तो विक्रेता द्वारा इसे ब्रांड कह कर बेचने की स्थिति में उपभोक्ता से 5% जीएसटी की ठगी से बचना मुश्किल.
सबसे कम पैक रुप मे खुदरा बिक्री के लिये अगर कूछ है तो वो दाल है. 40 किलो का पैक बोरे का दाल किलो दो किलो के हिसाब से उपभोक्ता के द्वरा खरीदा जाता है जो रजिस्टर्ड ब्रांड नहीं है, इसलिये 5% की जीएसटी से बिल्कुल मुक्त है, लेकिन बाजार के अफवाह का शिकार है की पैक दाल पर जीएसटी है इसलिये दाल अब 5 % मंहगा है.
मतलब की जीएसटी का अंतिम भार उस उपभोक्ता पर ही है जिसको जीएसटी के नाम पर बाजार ठग रहा है.
अब आइये तरकारी या सब्जी पर.
मुख्य रूप से आलू प्याज जैसे कच्चे माल जीएसटी से बाहर है.
इनका सस्ता मंहगा होना मांग और आपूर्ति का ही मामला है , इसका जीएसटी से कोई लेना देना नहीं है.
हमारे उपभोगता आचरण की त्रासदी ये है की हम ब्रांडबाज ज्यादा हो गये हैं और स्थानीय उत्पादों पर मुनाफाखोरी इतनी गम्भीर समस्या है कि बाजार का झुकाव बड़े उद्योगों को खुला आमंत्रण है.
असल में जिस मजबूत इच्छाशक्ति से सरकार ने जीएसटी लागू किया है, उसी इच्छाशक्ति से बाजार में अगर अनुशासनात्मक कारवाई नहीं होगी तो सिर्फ अफवाह के कारण मंहगाई को बढ़ने के लिये छोड़ देना भी सरकार की अकर्मण्यता हीं साबित होगी.
मै व्यक्तिगत आकलन के आधार पर मानता हूँ की जीएसटी चावल आटा और दाल के मामले में हमारे भारतीय बाजार की आंचलिकता और ट्रेंड के लिये वरदान है, बशर्ते ब्रांडबाजी वाली बीमारी से हम खुद को निजात दिलायें और अकुशल वर्कफोर्स अपनी पुरानी हाव्करी को अपनाये.