आदिवासी आंदोलन अपनी प्रकृति और स्वरूप में देश में चल रहे आंदोलनों से भिन्न है तो उसका श्रेय झारखंड में सक्रिय युवाओं की वह जमात है जो आधुनिक तो है, लेकिन साथ ही अपनी जमीन से जुड़ा है और जीवन जगत का अद्यतन ज्ञान रखता है. सबसे बड़ी बात यह कि वे विनम्र हैं, उनमें प्रसिद्धि की भूख नहीं और न मुख्यधारा की मीडिया में चमकने की चाहत.

वे राजनीति में सक्रिय तो हैं, लेकिन वोटों के सौदागर नहीं. उनकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं. चाहे वह सुवर्णरेखा परियोजना के विस्थापितों के पुनर्वास का आंदोलन हो, चाहे तपकारा का आंदोलन हो, चाहे ईचा और नेतरहाट का आंदोलन हो, सीएनटी—एसपीटी और पांचवी अनुसूचि को बचाने का आंदोलन हो या फिर समीपवर्ती ओड़ीसा के नियमगिरि में चल रहे डोंगरिया कौंध का वेदांता के खिलाफ चल रहा आंदोलन हो. ये तमाम बड़े आंदोलन हैं या रहे हैं जिनमें हजारो हजार आदिवासियों—मूलवासियों की भागिदारी रही है. और इन आंदोलनों के समक्ष सत्ता को झुकना पड़ा है.

लेकिन क्या आपको इन आंदालनों के नेताओं की जानकारी है? राष्ट्रीय मीडिया को उनकी जानकारी है? नहीं. और वजह वहीं आदिवासियत. जहां नायकों की पूजा नहीं होती, वे बस समाज के हिस्सा होते हैं. समाज के साथ कंधे से कंधा मिला कर लड़ने वाले योद्धा.

कुछ लोगों को लगता है कि आंदोलन तो अनेकानेक हुये झारखंड सहित आदिवासीबहुल इलाकों में, लेकिन राजनीतिक सोच से परिपक्व नेतृत्वकारी जमात नहीं उभरी. वे भ्रम में हैं. यदि नेतृत्वकारी जमात नहीं होती तो व्यापक जन भागिदारी वाली पूर्णरूपेण अनुशासित और सतत चलने वाले शांतिमय आंदोलन भी नहीं होते.

हां, वे संगठनात्मक रूप से किसी एक संगठन के सदस्य नहीं, लेकिन दुनिया के बारे में उनकी संघझ,संघर्ष के बारे में उनका नजरिया एक है. उनकी राजनीति के केंद्र में है समाज का अंतिम व्यक्ति और संघर्ष का तरीका है व्यापक जन भागिदारी वाला भरसक शंतिपूर्ण आंदोलन.

संसदीय राजनीति हर सवाल का जवाब नहीं. न संसद या विधानसभाओं से क्रांति या बदलाव होने वाला है. यह तो करेंगे बौद्धिक चिंतन और गहरे सामाजिक सरोकार वाले युवा और झारखंड खुशनशीब है कि यहां ऐसे प्रबुद्ध और तेजोमय चेहरे वाले युवाओं की एक लंबी कतार है. इनमें से कुछ की तस्वीर, जो तत्काल हमें उपलब्ध हुई, लगा रहे हैं.