पिछले दिनों देश भर के 12 शहरों में ‘नॉट इन माय नेम’ के बैनर तले बड़ी संख्या में लोग जुटे, उन हिंसक घटनाओं के प्रतिकार में जिन्होंने धीरे धीरे देश के बड़े हिस्से को अपने चपेटे में ले लिया है. हिंदुस्तान टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट में बताए आंकड़ों के मुताबिक पिछले सात साल में गौ’रक्षा’ से संबंधित कुल 63 मामलों में जिन लोगों को निशाना बनाया गया उसमें से आधे मुसलमान थे, और जिन 28 लोगों की जानें गयीं उनमें से 24 मुसलमान हैं. इनमें से 97 प्रतिशत मामले 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से हुए हैं, और लगभग आधे (32) मामले भाजपा शासित प्रदेशों में हुए हैं. इनमें से जिस घटना ने सब्र का बांध तोड़ दिया और हज़ारों लोगों को सड़कों पर उतार दिया, वो थी हरियाणा के बल्लभगढ़ में ईद के दो एक दिन पहले हुई जुनैद की हत्या.
16 साल का जुनैद अपने भाइयों के साथ ईद की खरीददारी करके लौटते वक्त मार गया. उसके पास न गाय का मांस था, न कोई जानवर जिसे वह बेचने ले जा रहा हो (जैसा पहलू खान के साथ हुआ), वहां गाय के मांस की कोई बात भी नहीं हुई, न आरोप लगाया गया कि उसके पास ऐसा कुछ है, हत्यारों ने बस यह कहा कि ‘ये’ गाय का मांस खाते हैं, और इससे कौन इनकार करेगा,न आरोप सिद्ध करने पड़ेंगे, न किसी के फ्रिज में पड़े मांस के सैंपल किसी लैब में भेजने की ज़रूरत पड़ेगी (जैसा अख़लाक़ वाली घटना के बाद हुआ). यह तो ‘स्वयंसिद्ध’ है कि ‘वे’ गाय खाते हैं, और इतना काफी है चौराहे पर किसी रोज़ाना की बकझक में किसी की जान ले लेने
के लिए कमज़ोर निहत्थे लोगों को टारगेट करना, सिर्फ इसीलिए कि आपको लगता है वो आपसे अलग हैं. यह एक भयावह भविष्य की शुरुआत है, जब एक मुसलमान को एक मांस विशेष खाने के लिए मार दिया जाए, फिर केवल इस शक़ पर कि उसने वह खाया, फिर इस कल्पना से कि वो खाने जा रहा होगा, फिर इस विचार मात्र से कि वो खाता है, और अंत में सिर्फ इसीलिये कि वो अंततः एक मुसलमान है और आप उसे मार सकने की स्थिति में हैं, क्योंकि वो कम हैं और आप ज़्यादा हैं. यह मेरे नाम पर न हो, यह बताने के लिए, गुंडों को यह संदेश देने के लिए हज़ारों लोग शहरों में, चौराहों पर जमा हुए.
लेकिन इसके अगले ही दिन,जब प्रधानमंत्री कह रहे थे कि गोरक्षा (यह शब्द बोलते अब शर्म आनी चाहिए) के नाम पर इंसान को मार देना बर्दाश्त नहीं, उसी समय झारखंड के रामगढ़ में फिर एक मांस से भरे वैन को जला दिया गया, और वैन चला रहे व्यक्ति की पीट पीट कर हत्या कर दी गई.
भीड़ द्वारा, या भीड़ के बीच सरे आम पीट कर मारने की ये सभी घटनाएं शहरों से हट कर छोटे कस्बों में हो रही हैं. तो माना जाए कि ‘नॉट इन माय नेम’ (हांलाकि मुझे इस नाम से असहमति है, कि आप खुद ही उन्हें खुद से अलग कर रहे हैं) की संवेदना इन कस्बों तक नहीं पहुंच पा रही है? या कि शहर के सौ पचास हज़ार प्रगतिशील लोगों को छोड़ बाकी के सभी लोगों की इन घटनाओं को मौन सहमति है? कि गड़बड़ बहुत गहरी हो चुकी है?
शायद ऐसा ही है. जब झारखंड में मांस की दुकानों को पिछले दिनों बंद कराया गया तो लोग खुलेआम यह कह रहे थे कि असल में ‘बड़ा’ पर रोक के लिए ऐसा हुआ है, और सभी खुश भी थे कि चलो कुछ दिन कटहल मशरूम खूब मसाला से बना कर खा लेंगे भले मगर ‘बड़ा’ पर रोक लगनी ही चाहिए. यह एक खास किस्म के उग्र हिंदुत्व का उसके पारम्परिक क्षेत्रों/गढ़ों से बाहर विस्तार और स्वीकार है. और खासकर तब जब ये सभी घटनाएं केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद से ही लगातार हो रही हैं, और ज़्यादातर भाजपा शासित प्रदेशों में ही हो रही हैं, यह मानना कि प्रशासन और तंत्र की इसमें सहमति नहीं है भोलापन ही होगा.
और हर बार जब ‘गोरक्षा’ के नाम पर कोई दलित, कोई मुसलमान मारा जाता है, जब कोई अफ्रीकन या उत्तरपूर्व का छात्र अपमानित किया जाता है, और आपके चारों ओर इन घटनाओं को किसी न किसी तरह डिफेंड किया जाने लगता है (अफ्रीकन छात्र ड्रग्स के धंधे में होते हैं, उत्तर पूर्व की लड़कियां छोटे छोटे कपड़े पहनती हैं), हम एक असहिष्णु, असभ्य, और बर्बर समाज की तरफ एक और कदम बढ़ा रहे होते हैं.
भीड़ का हिंसक हो जाना हमेशा बुरा है, मगर भीड़ का ‘हिन्दू भीड़’ बन जाना खतरनाक है, और यही हो रहा है. यह भीड़ और बढ़ेगी अगर हम इसी तरह इन घटनाओं को लेकर डिनायल मोड में रहेंगे और इनके मूल कारण पर बात करने से बचते रहेंगे. चपेटे में दलित भी आएंगे, काले अफ्रीकन छात्र छात्रा भी, और हमारे अपने विदेशी ‘चिंकी’ भी, कल को शायद हम भी.