प्रधानमंत्री श्री मोदी इस्राइल सहित अनेक देशों की यात्रा से वापस आ गये हैं. इस बीच स्वाभाविक ही, इस्राइल संबंधी देश की विदेश नीति में आये इस महत्वपूर्ण बदलाव और इसके फलाफल के आलावा, देश की सत्तारूढ़ जमात के इस्राइल-प्रेम और यहूदियों के उत्पीड़क हिटलर/जर्मनी (साथ ही इटली के तानाशाह मुसोलिनी) के प्रति आकर्षण और इस विरोधाभास पर भी चर्चा हुई. बेशक इस्राइल और भारत दोनों को परस्पर दोस्ताना संबंधों से लाभ मिलने का संभावना है. मगर इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि हिटलर से इनके लगाव की बातें हवाई हैं. जिन लोगों को हिटलर और जर्मनी के प्रति ‘इनके’ आकर्षण के कारणों को लेकर कोई दुविधा या गलतफहमी है, उनके लिए कुछ दस्तावेजी तथ्य उपलब्ध हैं. यह महज गड़े मुर्दे उखाड़ना नहीं है, इससे अल्पसंख्यकों के प्रति इस समाज की धारणा, कार्यनीति और रणनीति का भी पता चलता है, जो देश ए वर्तमान और भविष्य के लिहाज से भी प्रासंगिक है.

आरएसएस के दूसरे सर-संघचालक गुरु गोलवलकर ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘वी ऑवर नेशनहुड डिफाइंड’ (पेज-37) में लिखा है : ‘जर्मन राष्ट्रीय गौरव अब एक आम चर्चा का विषय बन गया है. राष्ट्र और उसकी पवित्रता बनाये रखने के लिए जर्मनी ने अपने देश से सामी जातियों (यहूदी, फिनीशियन, असीरियन आदि) को मिटा कर दुनिया को स्तब्ध कर दिया है. यहां राष्ट्र गौरव की सर्वोच्च अभिव्यक्ति हुई है. जर्मनी ने यह दिखा दिया है कि उन जातियों और संस्कृतियों को, जिनके मतभेद अत्यधिक गहरे हैं, एक संयुक्त समग्रता में समा लेना प्रायः कितना असंभव है. हम हिंदुस्तानियों के सीखने और लाभान्वित होने के लिए यह एक अच्छा सबक है.’

उसी पुस्तक के पेज-52 पर वे कहते हैं : “एक शब्द में (कहें तो) वे ‘मुसलमान’ विदेशी होना त्याग दें या देश में पूरी तौर से हिंदू राष्ट्र के अधीन हो कर रहें, कोई दावा न करें, किसी विशेषाधिकार के पात्र न हों, किसी अधिमान्य व्यवहार की बात तो दूर, उन्हें नागरिक अधिकार भी नहीं दिये जायें.”

इस धारा के एक और आदर्श ‘वीर’ वीडी सावरकर ने ‘हिंदू महासभा’ की ओर से 25 मार्च, 1939 को एक वक्तव्य जारी किया था, जिसमें जर्मनी के उस घटनाक्रम से मिली प्रेरणा की झलक मिलती है : ‘..मेरा विचार है कि आर्य संस्कृति के शत्रुओं के खिलाफ जर्मनी का युद्ध दुनिया के सभी आर्य राष्ट्रों को होश में लायेगा. और भारतीय हिंदुओं को अपने खोये गौरव को फिर से पाने के लिए झकझोरेगा…’ (जर्मन विदेश मंत्रालय के अभिलेखागार में सुरक्षित हिंदू महासभा के घोषणा-पत्र को जारी करते हुए, सावरकर के व्याख्यान का अंश)

इसके पहले, श्री सावरकर ने 14 अक्टूबर, 1938 को मालेगांव (महाराष्ट्र) में कहा था- ‘एक राष्ट्र उसके बहुसंख्यकों द्वारा बनाया जाता है. जर्मनी में यहूदियों का क्या हुआ? अल्पसंख्यक होने के नाते उन्हें जर्मनी से निकाल दिया गया.’ फिर 11 दिसंबर, 1938 को उन्होंने कहा- ‘जर्मनी में जर्मन लोगों का आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन है, लेकिन (अल्पसंख्यक) यहूदियों का आंदोलन एक सांप्रदायिक आंदोलन है.’ फिर 5 अगस्त 1939 को कहा : ‘राष्ट्रीयता आम भौगोलिक क्षेत्र पर उतनी निर्भर नहीं है, जितनी विचार, धर्म, भाषा और संस्कृति की एकता पर, इसी कारण जर्मन और यहूदी एक राष्ट्र नहीं माने जा सकते.’

1938 में ही हिंदू महासभा के 21वें अधिवेशन में इसी बात को आगे बढाते हुए उन्होंने कहा : ‘यहाँ भी हिंदू और मुसलिम एक राष्ट्र नहीं माने जा सकते…. भारतीय मुसलमानों को अपनी अल्पसंख्यक स्थिति पर सब्र करना चाहिए, उनके अधिकारों की मान्यता बहुसंख्यकों की उदारता पर निर्भर है.’

उल्लेखनीय है कि तत्कालीन सर संघचालक श्री सुदर्शन ने भी वर्ष 2002 के गुजरात दंगों के दौरान कहा था : ‘..मुसलमानों को यह समझ लेना चाहिए कि उनकी सुरक्षा बहुसंख्यकों की उदारता पर निर्भर है.’

डॉ हेडगेवार के अन्तरंग सखा डॉ एसबी मुंजे 1931 में इटली गये थे और तानाशाह मुसोलिनी से मिल कर बहुत प्रभावित हुए थे. 20 मार्च ’31 की अमनी डायरी में उन्होंने इटली के अपने अनुभवों को इस तरह दर्ज किया : “पूरे (फासीवादी) संगठन और ‘बलिल्ला’ (युवक संगठन) सस्थाओं ने मुझे सर्वाधिक आकर्षित किया… भारत को और विशेष कर हिंदू भारत को हिंदुओं के सैनिक पुनरुत्थान के लिए ऐसे ही किसी संगठन की जरूरत है… नेवी और्सेना की वर्दी में सजे लड़के और लड़कियों को कई तरह की ड्रिल और प्रशिक्षण का अभ्यास करते देख कर मेरा मन मंत्रमुग्ध हो गया….” डॉ मुंजे के भारत आने के बाद उनकी प्रेरणा से ‘द सेंट्रल हिंदू मिलिटरी सोसाइटी’ की स्थापना की गयी. उसके लिए जारी दस्तावेज की भूमिका में कहा गया है : ‘इस प्रशिक्षण का अर्थ है हमारे लड़कों को जीत हासिल करने की इच्छा से शत्रु को अत्यधिक नुकसान पहुंचाते हुए मृत्यु और घायलों की संख्या को अधिकतम रखकर जनसमूह की हत्या के खेल (कार्य) में योग्यता और क्षमता प्रदान करना. (संदर्भ : वही- मुंजे पेपर्स, सब्जेक्ट फाइल संख्या- 35, 1935) प्रिफेस टू द स्कीम ऑफ सेंट्रल हिंदू मिलिटरी सोसाइटी, इट्स मिलिट्री स्कूल.

अब भी कोई इस बात को छिपाना चाहे कि आरएसएस का मुसोलिनी, हिटलर और जर्मनी से कोई लगाव नहीं था; उसकी विचारधारा और कार्यप्रणाली पर उनका कोई प्रभाव नहीं है, और वह ‘समस्त’ देशवासियों के कल्याण के उद्देश्य से काम करता है, तो क्या कहा जा सकता है!

(सारे उद्धरण हिंदी पत्रिका ‘पल-प्रतिपल’ के 2.7.2002 में दिवंगत साहित्यकार कमलेश्वर के प्रकाशित लेख से; लेख डॉ रणजीत द्वारा सम्पादित ‘संप्रदायिकता का जहर’ शीर्षक पुस्तक में संकलित है.)