शांति कौन नहीं चाहता? युद्ध और हिंसा के साये में जीना किसी के लिए भी बहुत कठिन होता है. बच्चे स्कूल में हों और शहर में हिंसा और उपद्रव शुरू हो जाये. आतंकवादी स्कूल की बस पर हमला कर दें. बम के गोलों से बचने के लिए लोगों को तहखानों में रहना पड़े, नन्हें बच्चों के हाथ बंदूक थमा दी जाये, ऐसा दूसरे देशों के विषय में सुनने में आता है. मगर खुद क्या कोई ऐसा जीवन चाह सकता है?

मगर आज हमारे अपने देश में जो स्थिति बनती दिख रही है, नफरत और टकराव की जो राजनीति चल रही है, वह कहां पहुंचेगी, सोच कर भी दहशत होती है.

सभ्यता के साथ इंसान और इंसान के बीच कहां तो बहनापा और भाईचारा बढता, दूरियां मिटती और हम तरक्की की ओर बढ़ते; और कहां बस घृणा और नफरत की फसल तैयार की जा रही है. कहीं भी दंगा हो, आम नागरिक का सहज जीवन स्थगित हो जाता है. बच्चे स्कूल नहीं जा सकते, खेलने नहीं जा सकते. डर के साये में कैद जीवन. ऐसे माहौल में ही समाज का नेतृत्व गुंडों के हाथों चला जाता है. वे अपने समुदायों के रहनुमा बन जाते हैं. असमाजिक तत्वों को और क्या चाहिए? तभी तो समाज में उनकी पूछ होगी. हैसियत बढेगी. डर के साये में हम उनके रहमो करम पर होंगे.

आज पूरे देश में जिस तरह धार्मिक सद्भाव को बिगाड़ा जा रहा है, किसी बहाने टकराव और हिंसा को बढ़ावा दिया जा रहा है, ऐसा लगता है कि पूरे देश को ही दंगाग्रस्त क्षेत्र बनाने का प्रयास चल रहा है. इसलिए कि कुछ लोगों को नफरत और हिंसा के ऐसी स्थिति में ही पहचान मिलती है.

हम कैसा जीवन चाहते हैं? हमारे मास्टर साहब जो कभी हमें पढाते थे, उनका घर जला देंगे? हमारे बगल की गली वाली वो भाभी जो गर्भ से है, उनके भ्रूण तक को सजा देंगे, क्योंकि वे नकाब पहनती हैं? या फिर पड़ोस की वो गुड़िया, जो प्यार से मुझे आपा कहती है उसके शरीर को क्षत-विक्षत करेंगे? दंगों के दौरान यह सब होता रहा है, यह सब संभव है. पर हमें विश्वास है कि हममें से ज्यादातर लोग ऐसा नही चाहते. भले वे कथित छद्म सांप्रदायिकता को लाख गाली दें, कटाक्ष करें, मगर हम सभी एक विश्वास और प्यार भरे वातावरण में जीना चाहते हैं. भला कौन चाहेगा कि या तो हमारे बच्चे या बच्चों के बच्चे घरों में कैद हों जायें; और अगर स्कूल जायें, खेलने जायें; या घर का कोई सदस्य बाहर गया हो, तो जब तक वे लौटें हमारा प्राण टंगा रहे.

हम ऐसा समाज चाहते हैं, जहां हमारा किशोर बेटा या बेटी सड़क पर गिर पड़े, तो दस हाथ उसे संभाल लें, न कि दस मिल कर एक को पीट पीट कर मार डालें. इसलिए कि मारनेवाले किसी और धर्म को मानते हैं, और कोई रोकने वाला न हो.

पर यह तभी संभव है, जब परस्पर संदेह और नफरत का यह माहौल खत्म हो. दंगाई कहां नहीं हैं? गुंडे किस धर्म और जाति में नहीं होंगे? पुलिस-प्रशासन का काम है उन पर काबू करना. उनके खिलाफ कार्रवाई करना. पुलिस सामान्यतया ऐसा करती भी है. लेकिन मुश्किल तब होती है, है जब ऐसे तत्वों को सरकार में बैठे लोगों और नेताओं की शह मिल जाती है. तब पुलिस भी सुस्त पड़ जाती है और कई बार ऐसे विषाक्त माहौल से प्रभावित होकर पुलिसकर्मी भी पक्षपात करने लगते हैं. इसी से हम आतंकवाद को और मजबूत करते हैं. जो आज हो रहा है.

हमारे प्रधानमंत्री कथित गो-रक्षकों को कानून हाथ में नहीं लेने की नसीहत देतें हैं. उसी समय रामगढ में या कहीं और गोरक्षा के नाम पर फिर हत्या की जाती है. मानो मोदी जी ने उनकी पीठ थपथपाई हो. हम गाय नहीं खाने वाले और गाय खाने वाले, चाहे वे दूसरे धर्म के हों ; या नार्थ ईस्ट के हों या दक्षिण भारत के हों, क्या अलग अलग दुनिया बना लेंगे?

चाहे जैसी भी स्थिति हो, हमें साथ ही रहना है. फिर आपस के रिश्ते को बिगाड़ने की कोशिश क्यों? जो अपने पास छुरियां रखकर चलते हैं और उनके इस्तेमाल का बहाना ढूंढते हैं ,उनके सिवा कौन घृणा और आतंकवाद के साये में रहना चाहेगा? एक तो जीवन वैसे ही तनाव भरा होता जा रहा है, उस पर यह माहौल!हमारे परिवार, आस पड़ोस के, मुहल्ले के , गांव के लोगों की मुस्कुराहटें, हंसी खुशी ही इस तनाव से बाहर आकर जीने का हौसला देती है.

इंसान और इंसान के बीच विभिन्न कारणों से पहले ही दूरियां बनी हुई हैं. विज्ञान, बुद्धि और विवेक से इसे निरंतर कम करते जाना है. ऐसे में कुछ लोग इसे और बढाने में लगे हैं. इससे सचमुच जीवन और कठिन बनता जा रहा है. इस स्थिति को बदलना ही होगा; और यह दायित्व हम सब का है.