पिछले कुछ दिनों से मैं लगातार आदिवासियत की बात करता रहा हूं. इससे हमारे कुछ साथियों को बेहद कोफ्त भी होती है. लेकिन क्या करें, पतनशील पूंजीवाद और आक्रामक बाजारवाद से तंगो परेशान सवालों का हल खोजने जब निकलता हूं तो हमारी नजर आदिवासी समाज और आदिवासियत पर चली जाती है. चाहे अब ‘नैचुरल सैल्फी’ वाले इस अभियान को ही लें, जो दो चार दिन पहले सोसल मीडिया पर शुरु हुआ है - सौंदर्य प्रसाधनों के बाजार के खिलाफ एक अभियान. बिना मेकअप की तस्वीरे सोसल मीडिया पर लगाई जा रही हैं. यह कुछ दिनों तक भी सतत चलता रहा तो अभिजात वर्ग में व्याप्त यह मिथ तो टूटेगा कि बिना मेकअप स्त्री सुंदर हो ही नहीं सकती. दिख ही नहीं सकती. स्त्रियां भी कुछ दिन अपनी वास्तविक छवि, जो उनकी है, आईने में देख सकेंगी.
लेकिन आदिवासी समाज में बिना कृत्रिम प्रसाधन सामग्रियों के जीवन सदियों से चलता आ रहा है. प्रसाधन की कुछ सामग्रियों का इस्तेमाल होता भी है तो वह प्राकृतिक होता है. चाहे वह मिट्टी हो, पलाश के फूलों का पाउडर हो, या महुआ फूलों से श्रृंगार. उनके सौंदर्य का तो स्रोत है प्रकृति का साहचर्य और श्रम जिससे त्वचा के रंध्र खुल जाते है और किसी तरह का विकार पैदा ही नहीं होता.
दरअसल, सिर्फ आदिवासी समाज नहीं, मेहनतकश समाज की अधिकतर स्त्रियों के लिए यह अवसर कहा कि वे मेकअप के लिए समय और पैसा अफोर्ड कर सकें. गौर करेंगे तो मेकअप के रोग से सबसे ज्यादा प्रभावित है हिंदी पट्टी ही, यानी, मनुवाद से आक्रांत स्त्री-पुरुष की गैरबराबरी वाला क्षेत्र. शायद इसलिए कि औरत को पुरुष पुंगव वर निर्भर रहना है और उसका पुरुष पराया न हो जाये, इसलिए खुद को सजा कर रखना है.
यानि, वह इलाका कृत्रिम प्रसाधनों का सबसे बड़ा बाजार है जहां सबसे अधिक महिला उत्पीड़न, कन्या भ्रूण हत्या, दहेज हत्या आदि होते हैं. उन्हीं इलाकों में सौदर्य प्रसाधन की दुकाने भी सबसे अधिक चलती हैं जहां नपुसंकता से निबटने की नीम-हकीम दवाईयां..
दक्षिण भारत में महिलायें कृत्रिक प्रसाधनों का इस्तेमाल नहीं करती. कम करती हैं. केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश की महिलाओं का मुख्य सौदर्य प्रशाधन हल्दी, चंदन और कुमकुम है और इसके अलावा ढेर सारे मौसमी फूल. थोड़ी सी हल्दी लगा कर रखा चेहरे पर. कुछ देर बाद साफ किया. फेंटा कशा, बालों में गजरे लगाये और निकल परे काम पर. वैसे, यह एक शोध का विषय है, फिलहाल तो मैं नितांत व्यक्तिगत अनुभव से कह रहा हूं.
एक बात और. सजना, खुद को सुंदर रूप में विपरीत सेक्स के समक्ष प्रस्तुत करना एक सहज मानवीय गुण है. और अमीरी गरीबी से इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता. हमारे पास जो संसाधन है, हम उससे ही खुद को सजाते हैं. और यह कोई अपराध भी नहीं. लेकिन यह प्रवृत्ति पैसे से जुड़ कर खैफनाक हो जाती है. हम अपने शरीर के साथ तरह तरह के प्रयोग करने लगते हैं. इस भ्रम में जीने लगते हैं कि कागज के फूलों से भी खुश्बू आ सकती है. हमारी अंतरआत्मा मवाद से भरी रहती है और हम शरीर को सजाने में लगे रहते हैं और यह भूल जाते हैं कि चेहरा तो आंतरिक आभा से ही खिलता है.