चौदह-पंद्रह अगस्त 1947 की आधी रात को अंगरेजों की करीब दो सौ वर्षों की गुलामी से मिली आजादी को उस समय दो परस्पर विपरीत अतिवादी राजनीतिक धाराओं ने ‘झूठी आजादी’ कहा था. एक ओर थे साम्यवादी, दूसरी ओर आरएसएस और हिंदू महासभा जैसे संकीर्ण हिन्दुत्ववादी संगठनों के लोग. आज भी ऐसा माननेवालों की कमी नहीं है, बल्कि उनकी तादाद बढ़ी ही होगी. ऐसे लोग भी हैं, जो उस आजादी को कांग्रेस और अंगरेजों के बीच हुए एक समझौते के तहत और अंग्रेजों के हित-मर्जी के अनुरूप हुआ सत्ता-हस्तांतरण भर मानते हैं.
उपरोक्त धाराओं से अलग भी बहुत लोग हैं, जो आजादी के बाद आम भारतीय के जीवन में अपेक्षित खुशहाली न आने, सामाजिक-आर्थिक विषमता बरकरार रहने, या उस खाई के और बढ़ जाने के कारण असंतुष्ट हैं; और मानते हैं कि उस कथित आजादी का लगभग सारा लाभ ऊपर के और पहले से संपन्न-समर्थ तबकों के हिस्से चला गया. यह आकलन सर्वथा गलत भी नहीं है. वैसे भी कोई ग्लास आधा भरा हुआ है, तो वह आधा खाली भी रहता है. आप किस तरह चाहें, देख सकते हैं. फिलहाल आंकड़ों के जाल में उलझना जरूरी नहीं लग रहा. आप चाहें तो आजादी के बाद हुए सकारात्मक बादलों की लंबी सूची बना सकते हैं, और चाहें तो नाकामियों की लम्बी फेहरिस्त भी. कोई शक नहीं कि आजादी से जुड़ी आम आदमी की अपेक्षाएं पूरी नहीं हुई हैं. हुई हैं, तो आधी-अधूरी. यानी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. और यह सामूहिक प्रयास से ही हो सकता है. बीते वर्षों में क्या हुआ, क्या नहीं हो सका और क्यों नहीं हो सका, इस पर दलीय स्वार्थ से ऊपर उठ कर विचार करने से ही उन अधूरे कामों को पूरा किया जा सकता है.
इसलिए इस आजादी को ‘झूठी आजादी’ कहना न सिर्फ इस आजादी के लिए लड़ने-मरने और बेइंतहा तकलीफ सहनेवाले अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों का अपमान है, बल्कि इस कथित नकली आजादी में मिले अवसरों और उप्लब्धियों को नकारना भी है. अधिक से अधिक इसे ‘अधूरी आजादी’ कह सकते हैं, ‘झूठी’ नहीं. आजाद भारत में ‘कुछ हुआ ही नहीं है’ ऐसा वही लोग कह सकते हैं, जिन्हें गुलामी के दिनों का कोई एहसास नहीं है; या जो महज अतीत की सरकारों के किये को नकारना चाहते हैं.
आज जो जमात सत्ता में है, वह तो यह भी कहती रही है कि आजादी के बाद विकास और जनता के हित में कोई काम हुआ ही नहीं है. इस लिहाज से तो इसे सचमुच ‘झूठी आजादी’ कहा जाना चाहिए, लेकिन समय समय पर हमारे प्रधानमंत्री भी बीते वर्षों में हुए काम और सामूहिक प्रयास का उल्लेख कर देते हैं. और अब तो उनकी सरकार भी आजादी के उत्सव को भव्य तरीके से मनाने की तैयारी कर रही है. खबरों के मुताबिक केंद्र सरकार के 72 मंत्री 15 दिनों (16 अगस्त से 30 अगस्त के बीच) तक देश भर में 127 स्थानों पर ‘तिरंगा यात्रा’ निकालेंगे. एक अखबार के अनुसार मोदी की योजना इस कार्यक्रम से महात्मा गाँधी के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ जैसा माहौल बनाने की है. अच्छा ही है. मेरी कामना है कि ऐसा माहौल बने. मगर अब तक के अनुभवों से एक आशंका भी होती है.
बचपन से लेकर युवा काल तक 15 अगस्त और 26 जनवरी के आयोजनों में उत्साह से हिस्सा लेता रहा. बाद में पर्व-त्योहारों से पहले जैसा लगाव न रहने के बाद तो शिद्दत से यह कामना करता रहा हूँ कि यही दो आयोजन देश के सबसे बड़े त्यौहार होने चाहिए. आम भारतीय नागरिक के लिए मुख्यतः यही दो अवसर साझा उत्सव के हो सकते हैं. मगर आम तौर पर ये सरकारी आयोजन बन कर रह गये. जो पार्टी सत्ता में होती है, वह इसे अपने दलीय कार्यक्रम में बदलने का प्रयास करती है. सरकारी आदेश से कार्यालयों और स्कूलों में होनेवाला झंडोत्तोलन भी एक औपचारिक समारोह बन कर रह गया है. आम जन की भागीदारी क्रमशः कम होती जा रही है. यह सिर्फ इस या उस सरकार की नहीं, हम सब की, भारतीय समाज की सामूहिक विफलता है.
सरकारी खर्च और प्रशासन के जोर पर आप जितने भव्य आयोजन कर लें, उससे इन्हें सही मायनों में ‘राष्ट्रीय त्यौहार’ नहीं बनाया जा सकता. इसके लिए जनता में यह भरोसा जगाने की जरूरत होती है कि सचमुच यह देश उसका है, इसके विकास के फल में उसका भी हिस्सा है और देश को बनाने-गढ़ने में उसकी राय और सहमति का भी महत्त्व है. पर अफ़सोस कि ऐसा नहीं हो पाया है; और जिस जन सिद्धांत रूप में हम देश का असली मालिक कहते-मानते हैं, वह उसके प्रति हमारा तंत्र उदासीन और संवेदनहीन होता गया है.
अभी इस बात को रहने देते हैं की आजादी की लड़ाई में वर्तमान सत्तारूढ़ जमात की क्या भूमिका थी, तिरंगे के प्रति इसमें सचमुच कितना सम्मान रहा है. लेकिन 16 अगस्त से 30 अगस्त के बीच होने जा रहे कार्यक्रम का जो मकसद बताया गया है, उसमें दलीय स्वार्थ की बू तो आ रही है. एक अनुमान है कि भाजपा अपने ऊपर लगे सांप्रदायिकता के ठप्पे से उबरने के लिए ‘राष्ट्रवाद’ की राह पकड़ना चाहती है. यदि यह सचमुच उसके चिंतन में आ रहे वास्तविक बदलाव का संकेत है, तो स्वागतयोग्य है. लेकिन पहले वे यह तो स्वीकार करें कि आपकी यह छवि, आपके विरोधियों की साजिश के कारण नहीं, आपके अपने कृत्य और सर्वज्ञात विचारों के कारण बनी है.
और उसमें अपेक्षित बदलाव महज तिरंगा यात्रा निकालने से नहीं होगा. यह तो उसके नेताओं के बयानों और उसके कार्यकर्ताओं के दैनंदिन व्यवहार में दिखना चाहिए. प्रधानमंत्री सहित उसके बड़े नेता पहले इस आजादी को ‘झूठी’ कहने की आदत तो बदलें. अजादी के लिए लड्नेवालों में अपनी पसंद-नापसंद के आधार पर भेद करना तो छोड़ें. इस देश में रहने की और देशभक्ति की नयी नयी शर्तें लगाना तो छोड़ें.
ऐसे ऐसे मौके पर विरोध के लिए विरोध; और विरोधियों-आलोचकों को दुश्मन मानने की प्रवृत्ति से दूर रहने की आवश्यकता निर्विवाद है. लेकिन क्या कोई अपने अंदर झाँकने और बदलने के लिए तैयार है. फिलहाल तो ऐसा नहीं लगता. फिर भी कम से कम एक दिन के लिए तो हम इसे सवा सौ करोड़ का साझा देश महसूस करें. इसे सही अर्थों में राष्ट्रीय, हर भारतीय का साझा उत्सव बनाने का प्रयास करें. इसके लिए कोई नारा जोर जोर से लगाने या ‘सबसे ऊंचा’ तिरंगा फहराना जरूरी नहीं है. हम सब मानें कि सबसे पहले हम भारतीय हैं, उसके बाद कोई हिंदू, कोई मुसलमान या ईसाई या और कुछ है. अपनी निजी और समूह की अलग पहचान को लेकर इतराने के बजाय यदि हम अपनी भारतीय पहचान को प्राथमिकता दे सकें, तभी धीरे धीरे हम इसे अपना उत्सव बना सकेंगे.
इस पवित्र अवसर की शुभकामनाओं के साथ.