इस पंद्रह अगस्त को हम भारत की आजादी के 70 साल पूरा करने वाले हैं. देश के सभी स्कूलों कालेजों तथा कार्यालयों में भारत का तिरंगा लहरेगा और राष्ट्रीय गान होगा. देशभक्ति का तकाजा है, इसलिए बंदे मातरम भी गाया जायेगा. लाल किले के प्राचीर से बुलेट प्रूफ कांच के पीछे खड़े होकर हमारे देश के प्रधानमंत्री यह बतायेंगे कि हम विकास की किस उंचाई पर हैं और पूरे विश्व में भारत का कैसा गुणगान हो रहा है. फिर अंत में यह संकल्प लिया जायेगा कि सबका साथ, सबका विकास हो, बेटी बचाओ, बेटी पढाओं या फिर स्वच्छ भारत हमारा लक्ष्य आदि. आदि.
पिछले 69 वर्षों से 15 अगस्त के दिन यही दृश्य भारतवासियों को देखने को मिल रहा है. जिस किसी भी दल की सरकार हो, वह 15 अगस्त के महत्व को समझते हुए करोड़ों रुपये खर्च कर इस दिन के उत्सव को मनाती रही है, क्योंकि इसी दिन 1947 ईस्वी में देश को अंग्रेजों से मुक्ति मिली थी, देश आजाद हुआ था. अपने देश के हित में नीतियों को बनाने और देश को विकास के मार्ग पर ले जाने के लिए एक प्रजातंत्रात्मक सरकार बनी. यही है आजादी का मतलब.
लेकिन आये दिन देश के परिदृश्य में घटने वाली घटनाएं तो देश की आजादी की दूसरी ही कहानी कहती हैं. देश आजाद हुआ, लेकिन लोग अभी भी गुलाम हैं. किसी दल विशेष और उसकी सरकार की आजादी या नीतियों का निर्णय ही देश की आजादी का मापदंड होता है. समाज तो 1947 ईस्वी में जहां था, आज भी वहीं है. जाति, धर्म, लिंग तथा आर्थिक भेदभाव वही के वही बने हुए हैं जिसका फायदा राजनीतिक दल उठाते हैं. राजनीतिक दलों का उद्देश्य तो अधिक से अधिक वोट लेकर सरकार बनाने में होता है, इसलिए उनकी रुचि इन भेदभावों को कम करने में नहीं, उन्हें बनाये रखने में होती है. दलितों के प्रति अपनी संवेदना को प्रगट करने के नाम पर अपने दल के किसी दलित नेता को राष्ट्रपति बना कर दलित वोटों को अपने पक्ष में करना ही उनका उद्देश्य रहता है. दलितों को आरक्षण देकर उनके आंसू पोंछने का सिर्फ नाटक ही किया जाता है.
समाज में आज भी काम का आधार जाति बना हुआ है. संविधान में काम के अधिकार का कोई महत्व ही नहीं है. सबसे अच्छा काम और पैसा उंची जति वालों के लिए है और सबसे निकृष्ट कोटि का काम और कम पैसा निचली जातियों के जिम्मे है. देश में स्वच्छता का अभियान चलाने वाले लोग झाड़ू पकड़ कर फोटो तो खिंचवा लेते हैं लेकिन वास्तव में सफाई का सारा काम समाज के निम्न जाति के लोग ही करते हैं, क्योंकि उंची जाति के लोगों की सेवा करना उनका धर्म होता है. भले ही उससे उनका भरण पोषण न होता हो और जीवन की भी कोई सुरक्षा न हो. दिल्ली शहर में पिछले एक माह में सात सफाई कर्मियों की मृत्यु सीवर की सफाई के दौरान जहरीले गैस से हुई. ये कर्मचारी भी नियमित नहीं बल्कि ठेका मजदूर थे, जिन्हें काम के दौरान जीवन की सुरक्षा के लिए जो भी उपकरण मिलने थे, वो नहीं मिले. एक दिन में तीस-तीस सीवरों की सफाई करने वाले इन कर्मचारियों का नाम किसी पे रोल में नहीं होता है. दिन की समाप्ति पर बच कर निकल गये तो दिहाड़ी मिल जाती है, वरना मर गये तो पूछने वाला कोई नहीं होता है, मुआवजा तो दूर की बात है.
विश्व के दूसरे देशों में, जहां का दौरा हमारे प्रधानमंत्री आये दिन करते रहते हैं, वहां सीवरों की सफाई के लिए मशीनों का इस्तेमाल होता है. इन मशीनों को वे अपने देश में कब लायेंगे और महात्मा गांधी के इस अंतिम व्यक्ति को सीवर में प्राण त्यागने से कब मुक्त करेंगे, यह अनिश्चित ही है. एक दलित को राष्ट्रपति बना कर 130 कमरे वाले राष्ट्रपति भवन में रखना और दलितों को सीवरों में मरने के लिए छोड़ देना दलित उत्थान के नाम पर नौटंकी के सिवा कुछ नहीं है.