साल का यह समय एन्सेफलाइटिस से मौत, खासकर बच्चों की मौत का समय है. मगर गोरखपुर के सरकारी अस्पताल में ऑक्सीजन सप्लाई बंद होने से एक दिन में 23, और पांच दिनों में 60 छोटे बच्चों की मौत हादसा नहीं बल्कि संस्थागत हत्या का मामला है.
लंबे समय तक प्रभात खबर, और फिर तहलका से जुड़े पत्रकार निराला ने 2011 में तहलका के लिए एन्सेफलाइटिस से मौतों पर कवर स्टोरी की थी. गोरखपुर की घटना के बाद उन्होंने फेसबुक पर उन दिनों को याद करते हुए लिखा-
“मौत—मातम है नियति और विरोध सालाना जलसा
रोने-चीखने-बेबस लाचार मा-बाप की चीत्कार, भगाभागी का पांच साल पहले वाला दृश्य अभी आँखों के सामने फिर से उभार पा रहा है.आँखों के रस्ते मन में समा रहा है. विकास रोते रोते फोटो लेते थे और रोते हुए लोगों से मेरी बात भी रोते रोते ही होती थी.
करीब पांच साल पहले अपने साथी विकास के साथ इंसेफलाइटिस वाले इलाके में जाना हुआ था. कई दिनों तक हम चक्कर काटते रहे थे. सुदूर गांवों तक. कई अस्पतालों में. अपनी आंखों के सामने बच्चों को मरते हुए देखे थे. एक के बाद एक. एक बच्चा मरा, सारे परिजन उधर दौड़े कि तब तक खबर आयी कि दूसरा भी मर गया दूसरी ओर. कल गोरखपुर में आॅक्सीजन के अभाव में बच्चे मर गये, पांच साल पहले मुजफ्फरपुर में जब जाना हुआ था तो सदर अस्पताल में एक इंसेफलाइटिस वार्ड बना था तो उसमें बेड पर कुत्ते पैखाना पेशाब करते थे. इंसेफलाइटिसवाले इलाके में गोरखपुर, मुजफ्फरपुर से लेकर गया तक 15 दिनों तक घूमने की याद अब भी आती है तो रोआं खड़ा हो जाता है. इस बीमारी को रहस्यमयी कहा जाता है लेकिन जिनके बच्चे मरते हैं, उनके जीवन स्तर को और रोजमर्रा के जीवन को देखेंगे तो पता चलेगा कि कुछ रहस्य नहीं है. सामाजिक संगठन, अस्पताल से लेकर राजनीतिक दल के बीच मजबूत गंठजोड़ और जनता की चुप्पी से यह बीमारी रहस्यमयी बनी हुई है. हर साल सालाना जलसे की तरह हो गया है इंसेफलाइटिस. जुलार्इ् में बात शुरू होती है, अगस्त के आखिरी तक खत्म. जब मौत होती है तो बात होती है और उसके बाद बात खत्म, जबकि इंसेफलाइटिस जैसी बीमारी सीधे—सीधे रहनसहन और खानपान से जुड़ा हुआ मामला है. यह सिर्फ और सिर्फ एक बार पांच से दस सालों तक लगातार सक्रिय और गंभीर अभियान की मांग करता है.”
गोरखपुर न्यूज़ लाइन के संपादक मनोज कुमार सिंह पिछले कई दिनों से गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में एन्सेफलाइटिस से हो रही मौतों पर रिपोर्टिंग कर रहे थे. ऑक्सीजन कंपनी द्वारा बकाया भुगतान को लेकर अस्पताल में सप्लाई रोके जाने की खबर भी उन्होंने 10 की शाम ही दी, अगले चौबीस घंटे में 30 बच्चे दम तोड़ चुके थे, अपने फेसबुक पेज पर उनकी यह टिप्पणी हताश करती है-
“बड़े लोग बातें बड़ी बड़ी. चार वर्ष से लिखते -लिखते थक गया कि मेडिकल कालेज को इंसेफेलाइटिस और नवजात शिशुओं के इलाज के लिए 40-50 करोड़ का वार्षिक बजट दे दो लेकिन सरकारें मसखरा साबित हुईं. ये मसखरे पैसे की कमी नहीं है का डायलाग देते रहे और आक्सीजन का पैसा व चिकित्साकर्मियों की तनख्वाह तक नहीं दे सके.”
ऑक्सीजन कंपनी के 70 लाख रुपये बकाया थे, और उसने नोटिस दिया था, मगर उसका भुगतान नहीं किया गया. वह भी तब जबकि दो दिन पहले ही मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज का दौरा किया था. गोरखपुर योगी का गृह जिला भी है, उनका संसदीय क्षेत्र भी. गोरखपुर न्यूज़ लाइन की ही एक अन्य खबर के अनुसार एक महीने में बीआरडी मेडिकल कालेज में दो बार मुख्यमंत्री, दो बार प्रमुख सचिव चिकित्सा शिक्षा, एक बार प्रमुख सचिव स्वास्थ व अनगिनत बार डीएम, कमिश्नर आ आए फिर भी मेडिकल कालेज में इंसेफेलाइटिस के इलाज से जुड़े करीब 400 चिकित्सा कर्मियों की तनख्वाह नहीं आई। किसी का 27 महीने से वेतन बकाया है तो किसी का छह महीने से। आश्वासन पर आश्वासन मिल रहा लेकिन तनख्वाह नहीं मिल रही। बीआरडी मेडिकल कालेज के 100 बेड वाले इंसेफेलाइटिस वार्ड, 54 बेड वाले वार्ड संख्या 12 में कार्यरत 378 चिकित्सकों, शिक्षकों, नर्सों व कर्मचारियों को मार्च 2007 से तनख्वाह नहीं मिली है। ये चिकित्सा कर्मी बीआरडी मेडिकल कालेज आने वाले अफसरों, मंत्रियों को प्रतिवेदन देते-देते थक गए हैं लेकिनउन्हें वेतन नहीं मिल सका है। जुलाई माह की 24 तारीख को आए प्रमुख सचिव स्वास्थ्य प्रशांत त्रिवेदी से जब ये चिकित्सा कर्मी मिले तो उन्होंने कहा कि दो दिन में वेतन मिल जाएगा लेकिन एक पखवारा हो गया किसी को भी वेतन नहीं मिला। नौ अगस्त को बीआरडी मेडिकल कालेज में मुख्यमंत्री ने दो घंटे तक गोरखपुर-बस्ती के चिकित्सा व स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों तथा बीआरडी मेडिकल कालेज के प्रिसिंपल के साथ मीटिंग की और इंसेफेलाइटिस पर चर्चा की लेकिन यह पता नहीं चल सका कि इन 400 चिकित्सा कर्मियों को वेतन न मिलने पर चर्चा हुई कि नहीं। सूचना विभाग द्वारा जारी विज्ञप्ति में भी इस मुद्दे पर एक शब्द नहीं कहा गया है। ठीक एक माह पहले भी मुख्यमंत्री मेडिकल कालेज आए थे।
यह घटना बताती है कि व्यवस्था कितनी संवेदनहीन हो चुकी है. यह सिर्फ एक प्रदेश के एक अस्पताल का मामला नहीं है. स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति हमारी सरकारों की निर्मम उदासीनता का पता हमारे बजट से ही चल जाता है. अगर गूगल पर खोजा जाए तो प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्चने के मामले में विकिपीडिया की लिस्ट में आपको भारत का नाम ही नहीं मिलेगा. नेशन मास्टर डॉट कॉम नामक एक साइट के अनुसार अपनी जीडीपी के प्रतिशत को स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्चने के मामले में भारत दुनिया में 165 नंबर पर है, नामीबिया, नाइजीरिया, यहां तक कि हमारे पड़ोसी नेपाल और भूटान भी हमसे आगे हैं. प्रति व्यक्ति चिकित्सा कर्मियों के मामले में हम शायद और पीछे हों, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली के बारे में तो अभी आयी कैग की रिपोर्ट में भी विस्तृत टिप्पणी है.
भारत भीषण आर्थिक और सामाजिक विषमताओं का देश है. ज़ाहिर है एक वर्ग के पास अच्छे से अच्छे और महंगे से महंगे निजी अस्पतालों में खर्चने को अथाह पैसा है, और आम लोगों का, गरीब लोगों का स्वास्थ्य किसी की प्राथमिकता में नहीं है. नहीं तो क्या यह संभव है कि अगर सचमुच ध्यान दिया जाए तो एन्सेफलाइटिस जैसी बीमारी, जिससे हर साल एक क्षेत्र विशेष में सैकड़ों बच्चों की जान चली जाती हो, उसे खत्म न किया जा सके.
ठीक 15 अगस्त के पहले हुई यह घटना एक बार फिर इस विडंबना की ओर ध्यान दिलाती है कि एक वर्ग के लिए आज़ादी कितनी बेमानी है अगर आज़ाद भारत में उनके जीवन के अधिकार को सुनिश्चित न किया जा सके, रोज़ मंत्रियों अफसरों के काफिलों और उनके रखरखाव पर लाखों खर्च हों, और कुछ लाख के लिए छोटे छोटे बच्चों की सांस रोक दी जाए.