कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार के प्रश्न पर शायद भारत की आधे से ज्यादा आबादी असहिष्णु है. कम-से-कम भारत का प्रभु वर्ग भी यही धरणा रखता है. इसलिए कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और हर तरह से इसे भारत में रहना चाहिए, यह धरणा राष्ट्रंवादी भावना मानी जाती है. इस तरह कश्मीर के लोगों का मानवाधिकार भी दोयम विषय है.यही वजह है कि मैंने जब वी.पी.सिंह के शासनकाल में जगमोहन को राज्यपाल बनाकर भेजे जाते ही, बुरी तरह बिगड़ गए कश्मीर के हालात को जम्मू के बाद पहाड़ियों को पार कर घाटी में प्रवेश करते ही देखा था
उस सूरते हाल की कल्पना कर के सिहर जाता हूँ. तब मैं जे.पी. द्वारा बनाए संगठन छात्र युवा संघर्ष वाहिनी धारा के नेतृत्वकारी लोगों में से 17 लोगों की टीम के साथ घाटी में घूमा था.श्रीनगर, पट्टन, बारामुला और वास्तविक नियंत्रण रेखा, सीमाद्ध पर स्थित उरी में घूमा था. तब महबूबा मुफ्ती के अपहरण के बाद का दौर था. घाटी में चरमपंथियों/उग्रवादियों का जोर था. सिने माबन्दी की फरमान को लोगों ने स्वीकार कर लिया था. हमें कर्फू पास के सहारे घूमना पड़ता था. जो पास हमें क्रास फायरिंग के समय खास सुरक्षा नहीं दे सकता था. और बारामुला में शनिचर के रोज स्थानीय डीएसपी से यह इजाजत पत्र लेकर जब मैं और रांची का प्रसिद्ध
युवा फोटोग्राफर बारामुला के मुख्य चैराहे पर लौटे थे, तब कर्फू में ही सर में गोली लगने से एक व्यक्ति ढेर हुआ था. साइलेंसर वाली गोली से वह मारा गया था और हमें तो तब पता चला जब सीआरपी के जवान लाश की ओर दौड़ कर जमा हुए थे. हमें डीएसपी ने उरी क्षेत्र में जाने की इजाजत लिख कर दी थी और सचेत किया था कि हम अपने पास का ट्रांजिस्टर कहीं यहीं छोड़ कर जाएं.
उरी के क्षेत्र में सेना का पूरा नियंत्रण है. वहाँ उन दिनों बीबीसी के श्रीनगर स्थित संवाददाता सेना के द्वारा कुछ दिन पूर्व उठा लिए गए थे. डीएसपी ने कहा था - उनका अनुमति पत्र हमारे लिए सेना की मर्जी पर निर्भर करेगा. हम उरी गए और वहां रात में रूक कर दूसरे दिन लौटे भी.
इतना इसलिए हो सका कि सुबोधकांत सहाय तब गृह राज्य मंत्री थे. वी.पी.सिंह खुद इस विभाग को देख रहे थे. गृह राज्यमंत्री सुबोधकांत -पटना- और युवा मामलों के मंत्री भक्तचरण दास -भवानी पटना- उड़ीसा, ने ‘कश्मीर संवाद वाहिनी’ बनाकर हमारे इस पहल को अपना समर्थन दिया था. कश्मीर तब सेना के हवाले था. दो कारणों से लोग हमारे साथ खुलकर बात करते थे - एक तो हम जे.पी. -जयप्रकाश नारायण- के लोग माने जाते थे, दूसरे, तब जस्टिस वी.एम. तारकुण्डे - रेडिकल ह्यूमनिस्ट- और मानवाधिकार आन्दोलन पीयूसीएल के संस्थापक ने हमारे लिए काम किया था. इलाहाबाद हाईकोर्ट से चीफ जस्टिस पद पर रहकर उन्हीं दिनों जस्टिस बहाउद्दीन फारूकी वापस श्रीनगर लौट कर घर में रह रहे थे. कश्मीर के लिए मानवाधिकार कर्मी बन कर एक संगठन चला रहे थे. उनकी विज्ञप्तियों में ‘कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार’ का परोक्ष रूप से समर्थन रहता था.
सेना और केन्द्रीय सुरक्षा बलों की वैसी उपस्थिति जब के बीस इक्कीस सालों बाद मुझे नहीं दिखी. जब मैं अपनी बेटी जुंबिश जो आज हैदराबाद में ‘द न्यू इिन्डयन एक्सप्रेस’ की सीनियर रिपोर्टर है,के साथ 2005-06 में पुनः घाटी में गया था. खासकर श्रीनगर और गंधरबल -श्रीनगर से कट कर अलग बना जिला मुख्यालय. बहाउद्दीन फारूकी अबकी शरीर से असक्त हो गए थे. मेरा भावनात्मक संबंध ऐसा था कि पहली दफा कश्मीर में घूमते हुए मैंने वही उर्दू का शब्द अपनी बेटी के नाम के लिए चुनकर आया था और अब जब बेटी 21 साल की थी, मैं उसके साथ ही फारूकी साहब के घर गया था. उनके दामाद ने इसी वजह से उनके बैठने की खास व्यवस्था बनाकर हमें एक घंटे की मुलाकात करवाई थी.
तब बीस साल पहले फारूकी साहब ने लौटते समय मुझे कहा था - सेना का संपूर्ण वर्चस्व कायम हो जाए और शायद कश्मीर की आवाम टूट जाए. बीस साल बाद वो स्वीकार कर रहे थे कि सेना और केन्द्रीय पुलिस की जनजीवन में दखल काफी घटी है. परंतु वो आशंकाग्रस्त भी थे.
जुंबिश ने अपनी पत्रकारिता की नौकरी पाने के पहले ‘स्क्रिप्ट राइटिंग’ की थी, जो कश्मीर प्रवास पर था - ‘झेलम से सतलज तक’.
बहरहाल मैं 2005-06 में आतंकवादियों के क्षीण प्रभाव का गवाह बना था. सेना-पुलिस-कर्फू नहीं थी. गंधरबल के बाइपास पर एक दिन मैंने सेना की टुकड़ी को खड़े देखा था. परंतु न वो गाड़ियां रोक रहे थे, न बसों के नागरिकों को उतार कर उकड़ू बैठा कर बारी-बारी से बुलाते, न हमारी वहां उपस्थिति पास की जांच की.
तुलनात्मक रूप से यह माहौल 1993 से भिन्न माहौल था. बहुत सी बाते हैं. यह भी कहा गया कि गुप्तचरों ने मिलिटेंट्स में से ही अपने लोग बनाए. इनको मिलिटेंटस में से चिन्हित लोगों के खिलाफ लगाया. जो भी हो - 2005 में मिलिटेंट्स के कश्मीर बन्द जैसे आवाह्न को भी हम विफल होता देखकर आए.
पत्थरबाजों का एक दौर आ गर गुजर गया था. लोग नहीं चाहते थे कि उनका दूसरा दौर आए.
परंतु सैनिक बलों को कश्मीर का अपना वर्चस्व बनाने में दुबारा लगाया गया. इस समय एक अधिकारी ने जीप के आगे एक कश्मीरी को बिठाकर मार्च किया कि पत्थरबाज न निकले. यह गन्दी तस्वीर थी और सेना की भारी बदनामी का कारण बनी.
इस तस्वीर की तुलना इराक में सैनिकों द्वारा बन्दियों को बांध कर नंगा कर कुत्तों की तरह घुमाने जैसी बदनाम तस्वीर की याद दिलाती है.
सरकार इस तरह प्रतिक्रियावादी भारतियों की जुजुप्सा में दबी राष्ट्रीयता को उभार सकती है, परंतु कश्मीर की समस्या को एग्रीमेंट करके रख दे रही है. जो काम आज सरकार कर रही है, उससे भिन्न वक्तव्य प्रधनमंत्री ने लाल किले से दिया है. कश्मीर की जनता का प्रेम लेने की भाषा. यह जरूरी भाषा है. इस वक्तव्य का रिफलेक्शन यदि घाटी क्षेत्र में हो तो यह सार्थक भाषा है.
अभी कश्मीर के सभी पक्षों में हथियार के पक्ष ही दिख रहे हैं. पाकिस्तान की सेना एक पक्ष. आतंकवाद की हिंसा दूसरा पक्ष. भारत सरकार की सेना तीसरा पक्ष.
तब जेपी की कश्मीर संबंधी बातें -तारकुण्डे की बातें - ये नागरिक पक्ष किनारे चले गए हैं. छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी ने कश्मीर समस्या के समाधन के लिए जो 7 सूत्री फार्मूला लिखा था वह किनारे चला गया है. कश्मीर को प्रेम से अपनाने के बात इस बात की सम्मति है कि कश्मीर की जनता की हमें कद्र है. यहाँ तो तरीका यह अपनाया गया है - कश्मीर का भूभाग ही हमारे लिए एकमात्र महत्वपूर्ण प्राथमिकता है. कश्मीर की जनता तो कहीं चिंता मे है नहीं. मैं प्रधनमंत्री के वक्तव्य का स्वागत करता हूं. मुझे विस्तार पूर्वक लिखना होगा कि कश्मीर के लोग वास्तविक रूप से जनतंत्र, कल्याणकारी राज्य और शांति चाहते हैं. प्रगति, रोजगार, शिक्षा और स्वशासन चाहते हैं. इसका संपूर्ण खाका लेकर प्रधनमंत्री को आगे बढ़ना होगा.