घनश्याम दास जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय (JNU) के अन्य छात्रो की ही तरह एक सामान्य छात्र था. वह भी रोज क्लास जाता था. लाइब्रेरी जाता था. पढ़ता लिखता था. लेकिन अचानक से लोग उसे पागल कहने लगें, यूनिवर्सिटी जहाँ वो पढ़ता था के अधिकाश लोग भी पागल मानना शुरू कर दिया. नए नामांकन वालो बच्चों का उससे परिचय ही इस रूप में हुआ. इन सबका अंत 20 अगस्त 2017 को उसके मौत के साथ हुई. यूनिवर्सिटी ही क्यों पुरे समाज के साथ-साथ उसके परिवार वालों ने भी उसका साथ छोड़ दिया था. इस प्रकार अगर किसी ने उसे फिर भी जगह दी थी तो वह उसका यूनिवर्सिटी ही था, वह उसका JNU ही था, जिसे वह अपना घर मान चुका था. और उसी परिसर में उसकी मौत हुई.
उसके मौत के साथ ही उसे अपना कहने वालो और दुसरों को दोष देने का भी सिलसिला चला. JNU में अगले ही महीने चुनाव होने वाला है, ऐसे में लाश घनश्याम की कीमत जिन्दा घनश्याम से ज्यादा हो गयी. अचानक दलित मुद्दा उठ खड़ा हुआ कि उसके दलित होने के कारण ही वह सामाजिक तिरस्कार का शिकार हुआ. यह अपने आप में भारतीय सच्चाई है कि जातीय पहचान के आधार पर सामने वाला आपके साथ व्यवहार निश्चित करता है. लेकिन सिर्फ यही सच्चाई हो ऐसा भी नहीं है. कुछ मानवीय गुण-अवगुण-व्यवहार भी हैं जो सर्वव्यापी है. या फिर एक पूरे विशेष समाज पर एक साथ लागू होता है.
भारतीय समाज में सरकारी नौकरी पाना, उसमें भी लाल बत्ती वाली नौकरी पाना बड़े ही गौरव और गर्व की बात मानी जाती है. सामान्यतः हर कोई सरकारी नौकरी में जाना चाहता है. इसके लिए घर से लेकर नेतेदारी-रिश्तेदारी, मित्रों-शुभचिंतकों, सबका दबाब होता है. और बाद में खुद का भी दबाब कि हमें सरकारी नौकरी लेना ही लेना है. घनश्याम इसी सामाजिक मानसिकता का शिकार हुआ. जब वह M.Phil. कर रहा था, तभी उसके अन्दर संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) करने का जूनून सवार हो गया था. जब कोई कहे कि वह UPSC कर रहा है तब उसका मतलब होता है वह भारतीय प्रसासनिक सेवा (IAS) में जाना चाहता है. अन्यथा UPSC कई तरह की परीक्षाएं लेता है.
इसी जूनून के कारन वह किसी तरह अपना M.Phil. पूरा कर सका था. खैर वह किसी तरह M.Phil. पास हो गया और Ph.D. में एडमिशन मिल गया. लेकिन उसने अन्दर UPSC का जूनून था. उसके अन्दर UPSC का भूत सवार हो गया था. जैसा कि उसके Ph.D. के समय से ही हमलोग जानतें हैं कि उसके गाइड के कई बार कहने के बाद उसने अपना Ph.D. शोध प्रस्ताव (synopsis) जमा किया था. इसके बाद उसने Ph.D. पर कोई ध्यान नहीं दिया. यहाँ तक कि वह पहले से नियत चार साल में वह Ph.D. जमा नहीं कर पाया. इसके बाद एक्सटेंशन देने के बाद भी वह इसमें असफल रहा.
इसका प्रमुख कारण था कि उसे लगता था कि Ph.D. के लिए नियत समय से पहले ही वह UPSC कर लेगा. इसलिए Ph.D. पर काम क्यों करे? ऐसा सिर्फ घनश्याम के साथ ही नहीं हुआ. बल्कि JNU सहित तमान यूनिवर्सिटी में ऐसे लोग मिल जायेंगे. जिनका अंततः न Ph.D. होता है, न हीं UPSC. ऐसे लोग बाद में बहुत डिप्रेशन/ मानसिक अवसाद में चले जातें हैं. जिससे उबरना बहुत मुस्किल होता है. घनश्याम इसी का शिकार था. Ph.D. के समय ही उसका मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा था. मैं खुद उसका गवाह हूँ कि UPSC या राज्य लोक सेवा आयोग (PCS) के परिणाम आने के बाद वह गन्दी-गन्दी गालियों दिया करता था. उसका कहना था कि जिनका सेलेक्शन हुआ है, उनकी योग्यता उससे कम है.
सामान्यता हम सब ऐसा करते और कहतें हैं. जब हम असफल होतें हैं तब ऐसा कहने पर हमें मानसिक सुख मिलता है. हम सब कभी न कभी ऐसा बोलतें हैं. यह मानव स्वभाव है. लेकिन इसकी अधिकता आपको यहाँ तक ले जाती है कि मैं सबसे ज्यादा काबिल हूँ और मूर्खों का सेलेक्शन हो रहा है. यह अंततः मानसिक बीमारी और अवसाद की तरफ ले जाता है.
अपने इसी UPSC जूनून के कारन घनश्याम अपने M.Phil और Ph.D. के समय से ही मानसिक रूप से बीमार रहने लगा था. उसके दोस्त उससे कटने लगें थे. उससे कोई बात नहीं करता था. उसी समय से लोग उसे पागल कहने लगे थे. लेकिन तब वह JNU का स्टूडेंट था, इस कारण JNU की सारी सुविधाएँ उसे मिली हुई थी. इस कारण उसकी बीमारी एकदम से बाहर नहीं आई. लेकिन जैसे ही हॉस्टल छूटा, वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठा. वह JNU कैंपस में ही ढाबा पर रहता था. हॉस्टल और ढाबों के बचे जूठा खाता था. लेकिन UPSC का फॉर्म जरुर भरता था. वह दिन भर अपने नोट्स और किताबे पढ़ता रहता था. उसे यकीन था कि वह UPSC निकाल लेगा. उसकी जिंदगी की सांस UPSC थी, वही पहली इच्छा थी, वही आखिरी इच्छा. उसके लिए UPSC ही सब कुछ था.
Ph.D. के समय से ही उसका न कोई दोस्त था, न कोई साथी. सभी कट चुके थे. बाद में तो इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. दोस्त-यार क्या उसके घर वालों तक ने उसे छोड़ दिया था. वह JNU में रहता था. तब जो कुछ भी उसके पास था वो सिर्फ JNU ही था.
JNU के कई स्टूडेंट्स ने अपने तरफ से कोशिश कि की उसका इलाज कराया जाए. इसमें छात्र और शिक्षक दोनों ही शामिल थें. लेकिन छात्रो का प्रतिनिधि के तौर पर JNU छात्र संघ (JNUS) या JNU शिक्षक संघ (JNUTA) या यूनिवर्सिटी के मुखिया के रूप में कुलपति (VC) ने कुछ किया हो, इसकी जानकारी नहीं है.
शिक्षक से लेकर छात्र तक जब देश-दुनिया की बड़ी-बड़ी समस्यायों पर बात करतें हैं, तो कैंपस कैसे छुट जाता है? इसपर JNU के पूर्व छात्र लक्ष्मण सिंह देव लिखतें हैं कि “JNU के एक पूर्व छात्र घनश्याम दास का आज कैम्पस मंं ही देहांत हो गया. फ्रीडम स्क्वायर के बकवास वीरो से लेकर पूरी दुनिया मे क्रांति का स्वप्न देखने और समरसता की बात करने वाले घनश्याम के लिए कुछ नही कर पाए. मैंने व्यक्तिगत स्तर पर घनश्याम की यथासम्भव मदद की ओर कुछ मित्रो से भी करवाई. घनश्याम मध्यप्रदेश के दलित परिवार से था ओर विक्षिप्त हो गया था. विनम्र श्रद्धांजलि घनश्याम. यह बकवास वीरो का दौर है. दो साल पहले भी मैंने घनश्याम के मुद्दे को उठाया था” (फेसबुक, 20.08.2017).
JNU में मानसिक रोगी के लिए भी डॉक्टर है. लेकिन न तो खुद अपना इलाज कराया, न उसके परिवार वालो ने उसका इलाज करवाया और न ही उसके मित्रो ने. उसने शिक्षको तक ने उसका इलाज नहीं कराया या उसे इससे लिए प्रेरित करने में असफल रहें. घनश्याम आज से छः-सात साल पहले से ही मानसिक रूप से बीमार था. लाइब्रेरी में वह हमेसा UPSC लिखा टी-शर्ट पहन कर आता था. शायद उसे पता नहीं था कि UPSC का यही जूनून उसकी जान ले लेगा. अंततः 20 ऑगस्त 2017 को यही हुआ.
उसके मरने के बाद उसके लाश को भुनाने लिए बहुत से लोग आगे आये. JNUSU में रहते हुए वामपंथी संगठनो ने भले ही कुछ न किया हो लेकिन वोट के लिए वे एक दुसरे को जरुर कोसते नज़र आयें. JNUSU में ABVP भी सामिल था. बिरसा आंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन (BAPSA) ने घनश्याम के जिन्दा रहते इसे मुद्दा नहीं बनाया, लेकिन उसके मरने के बाद उसके कार्यकर्तायो ने जरुर कहा कि उसके दलित (अनुसूचित जाति) के होने के कारण उसके साथ भेद-भाव हुआ. इस कारण उसकी जान चली गई.
सच यह है कि आप किसी भी जाति के हों, समाज मानसिक विक्षिप्त लोगों के साथ ऐसा ही व्यवहार करता है. फिर क्या यह सही नहीं है कि ऐसे में उसके परिवार वालो ने भी उसका साथ छोड़ दिया था. पूरा भारतीय समाज मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगो के साथ ऐसा ही व्यहार करता है, चाहे उसकी जाति कुछ भी हो. घनश्याम को इस स्थिति तक पहुचाया UPSC के नशा ने. न जाने कितने ही लोग IIT, AIMMS, इंजीनियरिंग, डॉक्टरी, PCS आदि बनने के नशे में घनश्याम दास बन जातें हैं या बनने-बनते रह जातें हैं या वहां तक पहुँच जातें हैं. भारत में यह भी एक समस्या है कि लोग अपनी मानसिक बीमारी का इलाज नहीं करातें हैं. मानसिक बीमारी का इलाज कराने को पगलपन का इलाज माना जाता है और अंततः यह मान लिया जाता है अगर इलाज के बारे में किसी को पता चला गया तो वह यह समझेगा कि फलाना पागल हो गया है और उसका पागलपन का इलाज चल रहा है, इसलिए इलाज से ही बचा जाता है. क्योकि समाज उसे हीनता से देखता है.
इसलिए इलाज भारतीय मानसिकता का भी होना है. यह कहना गलत है कि उसके दलित होने से वह इस स्थिति तक पहुँचा. यह JNU के विद्यार्थी और प्रसाशन की समूहिक असफलता है. स्टूडेंट को JNUSU रिप्रेजेंट करता और प्रसाशन को VC साथ ही JNU का शिक्षक संघ भी इसपर चुप रहा. लेकिन अंततः ये सब इसी समाज के अंग है. इसलिए मैंने कहा कि यह सामाजिक मानसिकता को दिखाता है. इस सवाल पर भी गौर कीजिए, उससे घरवालो ने भी उसे छोड़ दिया था.
हाल ही में JNU की एक आशक्त (विकलांग/ दिव्यांग) लड़की IAS बनी, उसने अपने इंटरव्यू में कहा था कि उसके घरवालों ने भी उसे दिया था. JNU जैसे यूनिवर्सिटी होने के कारण वह किसी तरह पढ़ सकी सही और भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) के लिए चयनित हुई.
हमें भी यह सन्देश देना होगा कि सरकारी नौकरी पा लेना ही जिंदगी नहीं है. UPSC, PSC, IIT, AIIMS, Medical, Engineering से ज्यादा कीमती अपनी और समाज की जिंदगी है. परीक्षा में थोड़ी कम नंबर लाने पर स्कूल के छात्र भी आज आत्महत्या करने लगें हैं. स्कूल के बच्चे तक इस कारन अवसाद / डिप्रेशन के शिकार हो रहें हैं. आज समय की मांग है कि हम मानसिक बीमारियों के बारे में लोगो को जागरूक करें और मानसिक बीमारियों के इलाज को हीनता से न देखा जाए. मानसिक बीमारियों के इलाज को प्रोत्साहित करने की जरुरत है. समय से इलाज घनश्याम दास को बचा सकता था. इसलिए जरुरी है कि चीजो का ईमानदारी से व्याख्या करें. ईमानदार व्याख्या से ही समस्या का समाधान होगा.