अगस्त के महीने का भारतीय इतिहास में बहुत महत्व है. 9 अगस्त 1942 के दिन अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन शुरु हुआ था. इसे आज भी अगस्त क्रांति के रूप में याद किया जाता है. इसी अगस्त क्रांति के फलस्वरूप 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी मिली. अंग्रेजों ने विखंडित भारत ही सही भारतीय को सौंप अपने देश लौट गये. आज हम 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में घूमधाम से मनाते हैं. तिरंगे लहराये जाते हैं. राष्ट्रीय गान गा कर हम देश प्रेम च्यक्त करते हैं. स्कूल कालेज कार्यालयों में छुट्टी रहती है और लोग आजादी के महत्व को भले ही न समझें, लेकिन जश्न जरूर मनाते हैं. दो हजार 17 का अगस्त का महीना भी कई तरह की घटनाओं परिघटनाओं के कारण त्रासद और अविस्मरणीय बन गया. अगस्त माह के प्रारंभ में ही चंडीगढ की वर्णिका ने रात के बारह बजे सड़क पर अपना बचाव किया प्रतिष्ठित घरों के मदांध लड़कों से. उसके साथ ही उसने एक बार फिर इस बहस को खड़ा कर दिया कि रात में सड़के लड़​कियों के लिए क्यों सुरक्षित औश्र उपयोगी नहीं हैं. इस घटना में फिर एक बार लड़की को ही अपराधी बनाया गया. आजादी के 70 वर्ष बाद भी औरत की आजादी अधूरी ही नहीं, शर्तों में सीमित है.

इसी अगस्त में आये दो फैसले स्त्री की सीमित आजादी को थोड़ा सा बिस्तार देते हैं. एक फैसला मुस्लिम महिलाओं को मिला. उच्चतम न्यायालय ने तीन तलाक को असंवैधानिक तथा शरीयत के विरुद्ध घोषित किया. आने वाले दिनों में इस फैसले से मुस्लिम महिलाओं को कितना लाभ होगा, यह तो देखना है, लेकिन तत्काल उनकी यह सफलता स्वागत योग्य है. दूसरा फैसला डेरा सच्चा सौछा प्रमुख गुरमीत सिंह पर बलात्कारी होने का है. यह फैसला सीबीआई कोर्ट ने दिया. बाबा को 20 वर्ष का कठोर कारावास की सजा सुनाई. यह फैसला उन दो पीड़ित लड़कियों को न्याय तो दे रही है, साथ ही साथ समाज के खोखलेपन को भी दिखा रहा है जो आस्था के नाम पर इन बाबाओं की पूजा करता है.

इसी अगस्त में हुई दो भयंकर रेल दुर्घटनाएं. रेल दुर्घटना का अर्थ हैं, जान माल का नुकसान, वह हुआ ही, पहली दुर्घटना में 21 लोगों की जानें गई, दूसरी में जान तो नहीं गई, लोग घायल हुए. रेल मंत्रालय ने इन दुर्घटनाओं का कारण मानवीय गलती बताया. कुछ रेल कर्मियों को बर्खास्त कर तथा मृत व्यक्ति के परिजनों में कुछ लाख रुपये बांट कर अपने कर्तव्य की इति समझी. रेल मंत्री ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफे की पेशकश भी कर दी. लेकिन ये दो दुर्घटनाएं रेलतंत्र की ढीली ढाली व्यवस्था और खस्ता हाल को ही दर्शाता है.

इस अगस्त की सबसे जघन्य घटना है उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के अस्पताल में लगातार होने वाली बच्चों की मृत्यु की.आंकड़े बताते हैं कि अगस्त के पूरे महीने में 290 बच्चे मर गये. पहले तो एक खबर आती है कि अस्पताल में आक्सीजन की कमी से बच्चों की मृत्यु हो रही है, लेकिन तत्काल सरकार अपने बचाव में उतर आती है औश्र बच्चों के मृत्यु का कारण आक्सीजन नहीं बल्कि मस्तिष्क ज्वर बताती है. अब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या इस अस्पताल में इस बीमारी के लिए उचित दवाओं का अभाव है,योग्य डाक्टरों का अभाव है, देखभाल के लिए नर्सों का अभाव है या साफ सफाई का अभाव है. यह तो जानी हुई बात कि भारत के अधिकतर सरकारी अस्पताल गंदगी और बदइंतजामी के नमूने हैं. इन अस्पतालों में जाने वाले गरीब गुरबा लोगों के बच्चे मर रहे हैं तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए. गरीबों के लिए इन अस्पतालों में जाने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नही. जिस देश की सरकार स्वास्थ और चिकित्सा पर अपने जीडीपी का मात्र 2.50 फीसदी खर्च करती है, तो उस देश में बेहतर चिकित्सा व्यवस्था की कल्पना नहीं की जा सकती. हो सकता है सरकार अपनी गरीब जनता को बेहतर चिकित्सा की आदत नहीं डालना चाहती हो. एक खबर यह भी है कि बांसवाड़ा में 51 दिनों में 81 बच्चे मर गये. जोधपुर के एक अस्पताल में आपरेशन थियेटर में गर्भवती महिला का आपरेशन करते हुए दो डाक्टर लड़ पड़े और एक नवजात शिशु को आंख खोलने के पहले ही मर जाना पड़ा. इस तरह के जघन्य अपराधों की जिम्मेदारी सरकार नहीं लेगी, या फिश्र इस मृत्य व्यवस्था का सरांध षुरु हो चुका है.

सरकार की सुसुप्त व्यवस्था का उदाहरण भी इसी अगस्त में मिला. देश के सात राज्य बाढ के चपेट में हैं.लाखों लोग बेघर हुए, हजारों जानें गई. प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री तथा दूसरे गणमान्य व्यक्ति हेलीकाप्टर पर चढ कर बाढ पीड़ितों का निरीक्षण कर आये. जहां तक पहुंच हो सकती है, पीड़ितों में खैरात बांटा गया. बिहार, उत्तर प्रदेश, असम आदि राज्यों में बाढ हर वर्ष का प्रकोप है. सरकार इसे पूरी तरह रोक नहीं सकती है तो इसके प्रभाव को कम करने की कोशिश बाढ आने के पहले कर सकती है. बांढ की विनाश लीला के बाद संताप जाहिर करना सरकारों की आदत बन गई है.

बाढ तो बाढ भारी बारिश होते ही चेन्नई, मुंबई या दिल्ली जैसे महानगर ठप पड़ जाते हैं. लोग आपस में सहयोग तो करते हैं, लेकिन प्रशासन हतप्रभ हो देखती रहती है. हर वर्ष किसी न किसी शहर में यह दृश्य आम है. अगस्त के महीने में मुंबई शहर में भारी वृष्टि ने विनाश लीला खड़ी कर दी. सड़कों पर बहते पानी को निकालने के लिए मैनहोल तक खोल देना पड़ा. ऐसे ही एक मैनहोल में गिर कर वहां के एक प्रतिष्ठित डाक्टर ने प्राण गंवाये. अन्य छह व्यक्तियों के लापता होने की खबर है. इसी दौरान मुंबई में 170 वर्ष पुराना मकान ढह गया. 33 व्यक्ति दब कर मर गये. सैकड़ों घायल.

तो यह है आजादी के 70 वर्ष बाद भारत का दृश्य. कही पानी बहा ले जारी है, कही मामूली बीमारियां. जिधर देखो उध अकाल मृत्यु. अब भी आदमी निडर जीवन जी नहीं सकता. उसके सामने आजीविका का सवाल है. स्वास्थ का सवाल है. बच्चों की शिक्षा का सवाल है. बुनियादी जरूरतों को पूरा करने का संघर्ष है. तो यह आजादी, यह आजादी का जश्न और देशप्रेम अर्थहीन हो जाता है.