एक बार फिर से जेएनयू में छात्रसंघ चुनाव आ गए हैं. मृतप्राय कैम्पस में मानो एक नकली जान फूँक दी गयी है. आरोपों प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो गया है. सोशल मीडिया पर विभिन्न खेमों द्वारा एक दूसरे पर कीचड उछालने के लिए योद्धा उतार दिए गए हैं. ऐसा लग ही नहीं रहा कि यह वही कैम्पस है जहां पिछले एक साल में दमन और सरकारी हथकंडों का पूरा चक्र चला है और जहां भारत में बची खुची उच्च शिक्षा को दफनाने की भूमिका लिखी जा रही है.

जैसा कि हर साल होता है, एबीवीपी और दक्षिणपंथी ताकतें इस चुनाव के केंद्र में भी हैं और एक छोर पर भी. उनका अपना एक वोट बैंक है, जो हर साल बाहर बढ़ती दक्षिणपंथी— हिंदूवादी राजनीति से प्रभावित होकर आता है. हालांकि इनमें से कई ऐसे भी हैं जो कैम्पस की अंग्रेजीदां और न समझ में आने वाली राजनीति और राष्ट्रवाद, भाषाएं, जाति जैसे मुद्दों के अतिसरलीकरण से बिदककर एबीवीपी का दामन थाम लेते हैं.

लेकिन जेएनयू में अभी भी मुख्यधारा;कम से कम सक्रियता और गतिविधि के स्तर की राजनीति एबीवीपी और सरकार—विरोध की है और इस बात का दावा किया जाता है कि हम ही बढ़ती हुई एबीवीपी—सरकार—जेएनयू प्रशासन के दमन को रोक सकते हैं. हमें वोट दीजिये. पिछली बार की तरह इस बार भी एक वाम गठबंधन,आइसा—एसएफआई, इसी दावे के साथ मैदान में है. यह गठबंधन पिछली बार थोडा आश्चर्यजनक लगा था. क्योंकि ये दोनों संगठन कैम्पस की राजनीति में एक दूसरे के धुर विरोधी रहे हैं. और जिस समय मैं कैम्पस में आया था, आइसा सिंगूर—नंदीग्राम की घटनाओं को आधार बनाकर कैम्पस में एसएफआई के वर्चस्व को ख़त्म करने में सफल हो रहा था.

मुझे याद पड़ता है कि एक बार एक आइसा नेता से मैंने पूछा था कि आपकी पार्टी भाकपा—माले बिहार में तो माकपा से गठबंधन करती है और यहाँ आप उनको कोसते और जनविरोधी बताते हैं. यह दोहराव क्यों? उनके गोलमोल उत्तर का सार यह था कि स्थानीय स्तर पर ऐसे गठबंधन करने पड़ते हैं.

कैम्पस में पिछले दस सालों में अधिकाँश समय आइसा, कुछ मौकों पर एसएफआई से टूटे डीएसएफ या एक मौके पर एआईएसएफ के इक्का दुक्का उम्मीदवार जीते हैं. यह समय कैम्पस की राजनीति में भारी गिरावट का दौर रहा है. न केवल लिंगदोह समिति की सिफारिशों के लागू होने से छात्रसंघ के अधिकार सीमित हो गये, बल्कि विश्वविद्यालय प्रशासन का डर पूरी छात्र राजनीति पर हावी हो गया है. लिंगदोह समिति की सिफारिशों के खिलाफ चला आन्दोलन भी अंततः कानूनी प्रकिया में उलझकर रह गया. इन संगठनों की राजनीति पुराने आन्दोलनों और कैम्पस के तथाकथित गौरवशाली इतिहास को भुनाने तक ही सीमित रही. कैडर और आम छात्रों का अराजनीतिकरण हुआ. जैसा कि मैनें अपने पिछले लेख में लिखा था, यह लड़ाई अन्य व्यापक संघर्षों से जुड़ने के बजाय अपने फौरी फायदे, कैडर बनाने, चुनाव जीतने तक सीमित रही. अंततः चुनाव छात्रों के अधिकारों और बाकी देश और समाज बदलने के संघर्षों पर हावी हो गए.

दलित—पिछड़े—आदिवासिओं और वंचितों के अधिकारों की पहल करने वाला एक समूह बिरसा फुले आंबेडकर स्टूडेंट असोसिएशन पिछले दो सालों में अस्तित्व में आया है और पिछले चुनाव में उसने वाम गठजोड़ को एक कड़ी चुनौती पेश की है. कैम्पस में शिक्षकों की नियुक्तियों में वंचित तबकों की हिस्सेदारी न के बराबर होना, छात्र आन्दोलन के नेतृत्व में भी सवर्णों— अगड़ों का दबदबा होना, जैसे जायज़ सवाल उसने उठाये हैं. वहीं दूसरी ओर आर्थिक और अन्य मुद्दों पर उनकी नीतियाँ स्पष्ट नहीं हैं. और बाकी वैकल्पिक राजनीति के समूहों पर तीखे हमले करने की उनकी नीति रही है. सिर्फ पहचान की राजनीति करने वाले दलों और नेताओं, जैसे मायावती, लालू आदि की सीमाओं पर सवाल करने से वे कतराते हैं और जवाबी हमले करते हैं.

इस बार एआईएसएफ ने भी सेन्ट्रल पैनल के लिए दो प्रत्याशी दिए हैंए जिसमें अध्यक्ष पद के लिए अपराजिता राजा लड़ रही हैं, जो भाकपा नेता डी राजा की बेटी होने के साथ साथ कैम्पस की राजनीति में दो—तीन सालों से सक्रिय रही हैं. लेकिन, वही सवाल इस दल के साथ भी है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाकपा की नीतियाँ भी माकपा या भाकपा माले से अलग नहीं रही हैं. चाहे वह विकास और औद्योगीकरण का सवाल हो, किसानों के विस्थापन का या टाटा आदि को बढावा देने का. ऐसे में कैम्पस में इनका आकर्षण भी व्यक्ति आधारित ही है.

जे एन यू की छात्र राजनीति भी अन्य कैम्पसों की तरह चुनावी हार—जीत के इर्द गिर्द सिमट आई है. पिछले साल जे एन यू पर हुए दमन को भारी मीडिया कवरेज मिला, जिसमें जे एन यू की नकारात्मक छवि बनायी गयी. ताकि आगे चलकर इस विश्विद्यालय के अकादमिक और राजनैतिक चरित्र को ख़त्म किया जा सके. अब एक साल के अन्दर ही यूजीसी की सिफारिशों के गलत इस्तेमाल से शोध —एम् फिलए पी एच डी— की सीटों को लगभग ख़त्म कर दिया गया है. विभिन्न आंदोलनों के कारण छात्रों को जुर्माने भरने पर मजबूर होना पडा है. वर्ना उन्हें निष्कासित कर दिया जाता. कुल मिलाकर छात्र राजनीति और आन्दोलन की कमर टूट गयी है. और निराश होकर आम छात्रों ने भी प्रदर्शनों और मीटिंगों में अपनी भागीदारी कम कर दी है.

मीडिया कवरेज का एक दूसरा नतीजा यह रहा कि कुछ छात्र नेताओं की पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बन गयी और उन्हें संघर्ष/आंदोलनर/विपक्ष का प्रतीक मान लिया गया. नतीजतन उनके लिए विभिन्न थिंक टैंकों और किताबों, एक करियर के रास्ते खुल गए. उसमें कोई बुराई भी नहीं है. यह व्यवस्था अपने को निष्पक्ष दिखाने के लिए मीडिया और दूसरी जगहों पर कुछ विपक्ष के बुद्धिजीवियों की जगह रखती है. लेकिन इस पूरे सिलसिले में जे एन यू और बाकी जगह छात्रों की ख़त्म होती सीटों, और पिछड़े इलाकों और तबकों से आने वाले छात्रों के अस्तित्व का संकट ख़त्म नहीं हुआ. बढ़ता चला गया.

आज देश भर में ही शोध के लिए ज्यादातर केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में सीटें बंद कर दी गयी हैं, शिक्षक व् छात्र अनुपात के नाम पर, जबकि शिक्षकों के पदों को भरने और बढाने की जरूरत है. छात्रवृत्तियाँ कम की जा रही हैं और फीसें या तो बढ़ा दी गयी हैं या बढाने की तैयारी है. एफटीआईआई से लेकर हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय तक छात्र आन्दोलनों को बेरहमी से कुचला गया है. ऐसे में जे एन यू की राजनीति को कैम्पस और चुनाव के दायरे में सिमटते हुए देखना खीज पैदा करता है. ज्यादातर छात्र संगठनों की बड़ी लड़ाई की तैयारी या समझ नहीं है. बल्कि अक्सर विपक्ष या टीवी व सोशल मीडिया को जो दायरा है, उसी में अपने वर्चस्व को लेकर वे आपस में लड़ते हुए नज़र आते हैं. दलित और पिछड़े समुदाय की राजनीति और वर्ग की बात करने वाले संगठनों में आपस में बहुत कटुता और वैमनस्य है. संघ और हिंदुत्व के संगठित रूप के बरक्स प्रतिरोध बहुत बिखरा हुआ है.

संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि इस जे एन यू चुनाव में कोई भी जीते, अगर देश भर का छात्र आन्दोलन एक स्वर में सरकार को हिलाने और सड़कों पर उतरने में नाकामयाब रहता है तो इस कैम्पस और बाकी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की गिरावट जारी रहेगी. दक्षिणपंथी प्रशासन ने बहुत योजनाबद्ध तरीके से नयी नियुक्तियों में अपने लोगों को भरना शुरू कर दिया है. शिक्षकों को धमकाया जा रहा है, कोर्स मटेरियल और सेमिनारों में दक्षिणपंथी विषयों और विचारों को ही जगह दी जा रही है.

ऐसे में हमारा दायित्व यह है कि करियर और अकादमिक चिंताओं के साथ साथ देश के किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी संघर्षों में भी भागीदारी करें, हमारे विश्वविद्यालय जब उनके साथ मिलकर खड़े होंगे, तभी हम अपनी पढ़ाई की सुविधाओं को बचा पाएंगे. यह लडाई सिर्फ अपनी सुविधाओं —प्रिविलेज— को बचाने की नहीं है, बल्कि उसका फायदा उठाकर बाकी देश तक शिक्षा, स्वास्थ्य और मूलभूत अधिकारों, समता को उनतक पहुंचाने की है.